लगभग सन् 1700 ई० के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। जिसे रीतिकल के नाम से जाना जाता है। इस काल के कवि, राजाओं और रईसों के आश्रय में रहते थे। मध्यकाल के अन्य कवियों की ही तरह उत्तर भारत में एक प्रसिद्ध कवि थे, जिन्हें महाकवि ‘घाघ’ के नाम से जाना जाता है। हिंदी के लोक कवियों में घाघ का महत्वपूर्ण स्थान है। घाघ लोक जीवन में अपनी कहावतों और अपनी विशेष शैली के लिए प्रसिद्ध थे। ‘घाघ’ की तरह ‘भदुरी’ और ‘डाक’ लोक कवि थे। लेकिन जितनी प्रसिद्धी ‘घाघ’ को मिली उतनी ‘भदुरी’ को नहीं मिली थी। आज भी ग्रामीण समाज में जिस प्रकार ईसुरी के लिए ‘फाग’, विश्राम अपने ‘बिरहों’ के लिए उसी प्रकार घाघ अपनी ‘कहावतों’ के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके जन्मकाल एवं जन्म स्थान के संबन्ध में भी मध्यकालीन अन्य कई कवियों की तरह मतभेद है। विभिन्न विद्वानों ने उन्हें अपने-अपने क्षेत्र का निवासी सिद्ध करने की चेष्टा किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास में घाघ के संबंध में सबसे पहले ‘शिवसिंह सरोज’ में उल्लेख मिलता है। इसमें ‘कान्यकुब्ज अंतर्वेद वाले’ कवि के रूप में उनकी चर्चा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कवि घाघ के केवल नाम का ही उल्लेख किया है। श्रीयुत पीर मुहमम्द युनिस, कवि घाघ की कहावतों की भाषा के आधार पर उन्हें बिहार के चम्पारन, मुजफ्फरपुर जिले के औरेयागढ़, बैरगनिया अथवा कुडवा चैनपुर के समीप किसी गाँव का मानते हैं। राय बहादुर मुकुंद लाल गुप्त ‘विशारद’ ने ‘कृषि रत्नावली’ में उन्हें कानपुर तथा दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने घाघ का जन्म छपरा में माना है। पंडित रामनरेश त्रिपाठी जी ने ‘कविता कौमुदी’ के भाग एक में कवि घाघ और घाघ-भंडुरी नामक पुस्तक में उन्हें कन्नौज का निवासी माना है क्योंकि घाघ की अधिकांश कहावतों की भाषा भोजपुरी है। डा. जार्ज ग्रियर्सन ने ‘पीजेंट लाइफ आफ बिहार’ में घाघ की कविताओं का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। इस धारना के आधार पर कहा जा सकता है कि घाघ का जन्म स्थान बिहार के छपरा में हुआ था।
एक और जनश्रुति के अनुसार यह कहा जाता है कि घाघ को उनकी पतोहू (पुत्रबधू) के साथ हमेशा अनबन रहती थी। घाघ जो कहावतें कहते थे, उनकी पुत्रवधू उनका मजाक उड़ाते हुए उनकी कहावतों के विपरीत कहावत में ही उनको जबाब देती थी। प. रामनरेश त्रिपाठी ने घाघ और उनकी पुत्रवधू की नोंकझोंक से सम्बंधित कुछ कहावतें प्रस्तुत की है।
1.घाघ- मुये चाम से चाम कटावै, भुई सँकरी माँ सोवै।
घाघ कहै ये तीनों भकुवा उढ़रि जाई पै रोवै।।
2.पुत्र वधु- दाम देई के चाम कटावै, नींद लागि जब सोवै।
काम के मारे उढ़रि गई, जब समुझि आई तब रोवै।।
3. घाघ- तरुण तिया होई अंगने सौवे, रण में चढ़ी के छत्री रोवै।
सांझे सतुआ करै बियानी, घाघ मरे उनकर महतारी।।
4. पुत्र वधु- पतिव्रता होई अंगने सोवै, बिना अन्न के छत्री रोवै।
भूख लागी जब करै बियानी, मरै घाघ ही कै महतारी।।
पुत्रबधू से अनबन के कारण वे छपरा छोड़ कर कन्नौज चले गए। इतनी छोटी सी बात से कोई अपना जन्म स्थान कैसे छोड़ देगा, अवश्य ही दोनों के मतभेद असहनीय हो गये होंगे जिससे आत्म सम्मान को ठेस पहुँची होगी और उन्हें अपना घर और जन्मभूमि छोड़ना पड़ा होगा। यह भी कहा जाता है कि कन्नौज में घाघ का ससुराल था। इसलिए घाघ जीविकोपार्जन के लिए छपरा छोड़कर अपने ससुराल कन्नौज गए होंगे। यह भी कहा जाता है कि घाघ हुमायूँ के दरबार में गए थे। घाघ अकबर के दरबार में भी गए थे। उनकी कहावतों से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें उपहार में प्रचुर राशि और कन्नौज के पास ही भूमि दिया था, जिस पर उन्होंने एक गाँव बसाया जिसका नाम था ‘अकबराबाद सराय घाघ’। सरकारी खतियान में अभी भी उस गाँव का नाम ‘सराय घाघ’ है। अकबर ने घाघ को ‘चौधरी’ की भी उपाधि दी थी। रीतिकाल के कवि बिहारी भी अपना जन्म स्थान छोड़कर अपने ससुराल मथुरा में रहने लगे थे।
प्राचीन महापुरुषों की तरह घाघ के संबंध मे भी अनेक किंवदन्तियां प्रचलित है। कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही कृषि विषयक समस्याओं के निदान के लिए दक्ष थे। उन्हें मौसम और प्राकृतिक परिस्थियों के आकलन का विशेषज्ञ माना जाता था। इसका प्रमाण उनकी निम्न पंक्तियों में परिलक्षित होता है
1. सावन मास बसे पुरवईया, बछवा बेंच लहू धेनु गईया।
अथार्त- यदि सावन के महिना में पुरवैया हवा बहने लगे तो यह समझ लेना चाहिए कि अकाल पड़ने वाला है अथार्त अनाजों की उपज नहीं होगी। ऐसी स्थिति में किसानों को चाहिए कि वह अपना बैल बेंच कर गाय खरीद ले, जिससे कम से कम दही- दूध और मठ्ठा तो मिलेगा।
- रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अदरा जाय
कहै घाघ सुन धाघनी, स्वान भात नहीं खाय।।
अर्थात रोहिनी नक्षत्र में अच्छी बारिस हो और मृगशिरा में गर्मी पड़े तथा अदरा नक्षत्र में वर्षा हो तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होती है कि कुत्ते भी भात खा खाकर ऊब जाते हैं। छोटी ही उम्र में घाघ इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए उनसे मिलने आया करते थे। एक बार एक व्यक्ति घाघ के पास आया और बोला कि मेरे पास भूमि तो है लेकिन उपज बहुत कम होता है, मुझे क्या करना चाहिए। उस समय घाघ अपने उम्र के बच्चों के साथ खेल रहे थे। उस व्यक्ति की समस्या सुनकर घाघ तुरन्त बोल पड़े-
आधा खेत बटैया देके, ऊँची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
अथार्त- यदि किसान के पास खेत अधिक है तो आधा खेत बटाई पर दे देना चाहिए आधे खेत में ऊँची मेंड़ बांधकर खेती करनी चाहिए यदि इतना करने पर भी अनाज अधिक पैदा नहीं हो तो मुझे गाली देना। यह भी कहा जाता है की घाघ के कहे अनुसार खेती करने पर किसान धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाता था।
आद्रा में जो बोवै साठी, दुखै मरी किनारे लाठी।
अर्थ- जो किसान आद्रा नक्षत्र में साठी (धान का एक प्रकार) बोता है वह दुःख को लाठी से मारकर भगा देता है। घाघ जिस समय और काल में पैदा हुए थे उस समय की सबसे बड़ी आर्थिक और सामाजिक समस्या किसानों के बदहाली से जुड़ी हुई थी। खेती ही जीविका के लिए एक मात्र स्रोत था और मौसम तथा खेती की समस्याओं से जुड़े होने और उसका ज्ञान रखने वाले घाघ का समाज में बहुत सम्मान था। अकबर का आश्रय प्राप्त हो जाने के बाद उनकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई होगी। जनश्रुति यह भी है कि घाघ अपने ज्योतिष विधा के आधार पर जानते थे कि उनकी मृत्यु तालाब में नहाते समय होगी, इस कारण घाघ कभी तालाब या सरोवर में स्नान करने नहीं जाते थे। एक दिन वे अपने मित्रों के कहने पर उनके साथ तालाब में नहाने गए। वहीं पर पानी में डुबकी लगाते समय उनकी चोटी एक लटठा में फँस गया और उनकी मृत्यु हो गई। कहते है कि मरते समय उन्होंने (घाघ) कहा था-
जानत रहा घाघ निर्बुद्धि। आवै काल विनासै बुद्धी।।
अथार्त- कृषि विज्ञान, ज्योतिष शास्त्र और सामान्य ज्ञान में निपुण होते हुए भी कवि घाघ इतने सरल व्यक्ति थे कि स्वयं को बुद्धिमान नहीं कहते हैं और ये मानते हैं कि जब मनुष्य का विनाश होना होता है तो बुधिहीन हो जाता है, विवेक चली जाती है और वह कुछ न कुछ ऐसी गलतियाँ कर देता है जो उसके बर्बादी का कारण बन जाता है।
Nice
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