लोक साहित्य दो शब्दों के साथ मिलकर बना है ‘लोक’ और ‘साहित्य’ जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘लोक का साहित्य’। लोक साहित्य मूलतः लोक की मौलिक अभिव्यक्ति है जो लोगों के सम्पूर्ण जीवन का नेतृत्व करती है। लोक साहित्य की परम्परा उतना ही प्राचीन है, जितना की मनुष्य। इसीलिए इसमे लोक जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, समय और प्रकृति समाहित होती है। यह साहित्य किसी विशेष व्यक्ति द्वरा निर्मित नहीं होता है। इसके पीछे एक परम्परा वर्तमान रहती है जिसका संबन्ध समाज से होता है, लोक एक परिभाषित शब्द है। लोक साहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से है जिसकी रचना लोक के द्वारा, लोक के लिए और लोक के विषय में होता है।
ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर लोक के लिए ‘जन’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘साधारण जानता’ के रुप में है। ‘लोक’ शब्द से ही हिंदी का ‘लोग’ शब्द बना है। जिसके कई अर्थ है जैसे- प्राणी, संसार, जन या लोग, प्रदेश आदि। उपनिषद में दो लोक को माना गया है- इहलोक और परलोक। निरुक्त में तीन लोकों का उल्लेख है- पृथ्वी अथार्त भूलोक, अंतरिक्ष और पाताल। लोक साहित्य को देश के सभी लोग हर काल में सर्वसम्मती से स्वीकार कर लेते हैं। इसकी परम्परा कभी भी कम नहीं होती है और न ही समाप्त होती है बल्कि सदा गतिशील रहती है। यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। लोक साहित्य में हमेशा से लोक भावनाओं को सम्मान दिया जाता है। लोक साहित्य को अनेक विद्वानों ने परिभाषित करने का प्रयास किया है –
डॉ. सतेन्द्र के शब्दों में– ‘लोक साहित्य के अंतर्गत वे सभी बोली, भाषा या अभिव्यक्ति आती है, जिसमें आदि मानव के अवशेष उपलब्ध हैं’।
डॉ. सत्य गुप्ता के शब्दों में– ‘लोक साहित्य में जीवन की भावात्मक अभिव्यक्ति मिलती है और इसकी सीमाएँ भावों से निर्मित होती है’।
काशीनाथ उपाध्याय के शब्दों में– ‘वह साहित्य जो लोक के द्वरा लोक के लिए और लोक की भाषा में हो उसे लोक साहित्य कह सकते हैं’।
उपर्यउक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि लोक साहित्य सपूर्ण मानव समाज का भाव होता है। मानव मात्र की स्वानुभूति अपनी माँ की गोदी में सीखी हुई भाषा में ही व्यक्त होती है। उसकी अभिव्यक्ति ही लोक साहित्य का रूप धारण करती है। लोक साहित्य के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि- लोक साहित्य गृहस्त तथा ग्रामीण जीवन का स्वच्छ दर्पण है। इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक तथा विस्तृत है। इसके अंतर्गत साधारण जानता का हँसना, गाना, रोना, खेलना, कूदना आदि सभी विषयों पर उपलब्ध साहित्य आ जाता है। पुत्र उत्पति से लेकर सभी माने हुए सोलह संस्कारों के अवसरों पर गाए जाने वाले लोक गीत, लोक साहित्य की अमूल्य निधि हैं। लोक हमारा जीवन रूपी समुद्र है जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों समाहित है। लोक साहित्य को, लोक की एक ऐसी कृति के रूप में स्वीकारा गया है जिस पर समस्त लोक का एक समान अधिकार है। यह साहित्य सत्यम, शिवम और सुन्दरम तीनो गुणों से परिपूर्ण है-
सत्यम्– सत्य कभी मरता नहीं है सिर्फ चोला बदल जाता है। मूल आत्मा कभी नष्ट नहीं होता है।
शिवम्– शिवम अनेक तत्वों से युक्त है। इससे मानव का हमेशा से कल्याण हुआ है। इससे मानव जाती को लोक व्यवहार की शिक्षा प्राप्त हुई है।
सुन्दरम्– लोक साहित्य अनेक गुणों से परिपूर्ण है। इसलिए इसकी सुन्दरता कभी कम नहीं होती है। यह साहित्य जितना प्रादेशिक है उतना ही अधिक राष्ट्रव्यापी और उससे भी अधिक अंतर्राष्ट्रीय भी है।
लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है। संस्कृति शब्द सीधे मानव के जीवन से जुड़ी हुई है। समस्त मानव विधाएं संस्कृति की पहचान होती है। सभी कलाएँ और साहित्यिक विधाएँ संस्कृति से हमारा परिचय कराती है। किसी भी देश की संस्कृति उस देश की आत्मा होती है। संस्कृति एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा ही परिवार, जाति, समाज, राष्ट्र और विश्व में अलग पहचान बनती है। लोक जीवन में कदम-कदम पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक और संस्कृति एक दुसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। एक के बिना दुसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं है अर्थात लोक जीवन को ही यदि लोक संस्कृति कहें तो गलत नहीं होगा। लोक जहाँ किसी भी देश की आंतरिक सुन्दरता का प्रतिनिधित्व करता है वहीं संस्कृति उसके बाहरी सौन्दर्य का नाम है। भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा साधारण लोग हैं जो नगरों से दूर गाँवों और जंगलों में अर्थात प्रकृति की गोद में निवास करते हैं। चाहे संस्कृति कोई भी हो उसका स्वरुप उस संस्कृति से संबंधित सामाजिक, राजनितिक एवं मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित होता है। डी.डी. वर्मा के शब्दों में – ‘संस्कृति का निर्माण एक दिन या एक व्यक्ति द्वारा नहीं होता है। यह तो समुदाय के सभी सदस्यों के दीर्घकाल के अनुभूत तथ्यों का निचोड़ होता है जिसे समाज के कर्णधारों द्वारा लोक हित को ध्यान में रखकर मान्यता प्रदान की गई होगी। इस प्रकार संस्कृति का हमेशा से विकाश होता रहा है। संस्कृति से ही व्यक्ति संस्कार सीखता है। इस प्रकार समाज और संस्कृति एक दुसरे को प्रभावित करते है और उसके विकाश में अपनी–अपनी भूमिका निभाते हैं। अर्थ की दृष्टि से संस्कृति बहुत व्यापक शब्द है। यह शब्द मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से संबन्ध रखता है। ‘हिंदी साहित्य कोश’ में संस्कृति शब्द की व्युत्पति इस प्रकार से दी गई है-
“संस्कृति शब्द व्युत्पति की दृष्टी से साकार की हुई स्थिति है, सुधरी हुई दशा, संस्कार युक्त अवस्था का बोध कराता है। इसका शाब्दिक अर्थ साफ या परिष्कृत करना है”। संस्कृति ‘व्यष्टि’ और ‘समष्टि’ दोनों का सुधार करती है। इसप्रकार अनेक शब्दकोशों में दिए गए संस्कृति के आधार पर संस्कृति का शाब्दिक अर्थ है- संस्कार, शुद्धि एवं सद्प्रयासों से अर्जित मानवीय गुण, जिन्हें आत्मसात करके मनुष्य अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। संस्कृति की महत्ता और उपयोगिता को ध्यान में रखकर अनेक विद्वानों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है-
मुकुन्दी लाल के शब्दो में- “शुद्धि, सुधार, परिष्कार, निर्माण, सजावट, आचरण, परम्परा आदि को संस्कृति कहते हैं”।
बाबु गुलाबराय के शब्दों में– संस्कृति शब्द का संबन्ध संस्कार से है, जिसका अर्थ है संशोधन करना, उतम बनाना, परिष्कार करना आदि। संस्कृत शब्द का भी यही अर्थ है। अंग्रेज़ी शब्द ‘कल्चर’ में भी वही धातु है जो एग्रीकल्चर में है। इसका भी अर्थ होता है पैदा करना या सुधारना संस्कार व्यक्ति और जाती दोनों के होते हैं। जातीय संस्कार को ही संस्कृति कहते हैं”।
ओम प्रकाश सेठी के शब्दों में- धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान और रीति-रिवाज आदि के समन्वित रूप को संस्कृति कहते हैं।
भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता का भाव रखती है। इन विद्वानों द्वरा दी गई परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि ‘किसी भी देश या समाज में रहने वाले लोगों की विशेषताओं, गुणों ,रीति-रिवाजों, क्रिया-कलापों, धार्मिक-रुचियों, कलात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के सभी रूपों को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति जल की धारा की तरह हमेशा गतिमान रहती है। संस्कृति के मुख्यतः दो पक्ष दिखाई देते हैं
- आतंरिक पक्ष और 2. बाहरी पक्ष
1. आतंरिक पक्ष– इसके अंतर्गत जीवन के मूल्यों को शामिल किया गया है जिसमें करुणा, दया, अहिंसा, मानवता, परोपकार, लोकमंगल आदि है। संस्किति में ये सभी गुण अमूर्त रुप से विधमान होते हैं। इन मूल्यों का संस्कृति में अपना विशेष महत्व होता है। इन आतंरिक मूल्यों अथवा संस्कृति के आतंरिक पक्ष को संस्कृति की रीढ़ की हड्डी भी कहा जाता है ।
2. बाहरी पक्ष– संस्कृति का बाहरी पक्ष संस्कृति का मूर्त एवं साकार रूप है। इसका निर्माण समाज के लोग सामूहिक रूप से करते हैं। लोगों की वेशभूषा, खान-पान, समाज में प्रचलित पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज एवं वास्तुकला, संगीतकला, नृत्यकला, चित्रकला आदि है जो संस्कृति का सजीव एवं साक्षात रूप है। आतंरिक पक्ष संस्कृति की आत्मा है तो बाहरी पक्ष को संस्कृति का शरीर कहा जा सकता है। लोक संस्कृति आम जनता की संस्कृति है इसे ‘जनवादी’ संस्कृति भी कहा जा सकता है। जो साहित्य अपने लोक चेतना से जितना अधिक जुडा रहता है वह लोक साहित्य का उतना ही सच्चा प्रतिनिधि होता है। किसी भी देश की संस्कृति का मूल केन्द्र वहाँ का लोक जीवन होता है। लोक संस्कृति ही वहाँ के लोगों के जीवन में उर्जा का स्रोत भरती है। किसी भी समाज का लोक जीवन केवल उस समाज के जड़ों को ही नहीं सींचता और पुष्ट करता है बल्कि मानव-मानव के बीच की अजनबीपन, स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता को भी दूर करता है। इसके फलस्वरूप उनके बीच सामाजिक सहानुभूति, त्याग, एवं समर्पण की भावना को प्रेरित करता है। आज मनुष्य को जिस शांति और तनावमुक्त जीवन की आवश्यकता है वह लोक संस्कृति में सहजता से प्राप्त हो जाती है। लोक जीवन में घृणा, द्वेष, कटुता आदि के भाव बहुत कम और प्रेम, सेवा, भाईचारा आदि की भावना अधिक होती है। संस्कृति मानव जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। संस्कृति विचार, कर्म और आचरण का यथार्थ रूप है जो समय-समय पर समाज को प्रेरणा देती रहती है। यही कारण है कि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपनी संस्कृति के विषय में जानता और समझता है तथा उसी के अनुरूप अपना आचरण करता है। लोक संस्किति के अंतर्गत विभिन्न तत्वों का समावेश है जिसके दो भाग हैं।
1. अध्यात्मिक तत्व और 2. लौकिक तत्व
1. आध्यात्मिक तत्व के अंतर्गत परलोक संबंधी धारना होती है जैसे – स्वर्ग और नरक, साधना के मार्ग, जीवन का आदर्श और धार्मिक सिद्धांत।
2. लौकिक तत्व के अंतर्गत मानव जीवन के विभिन्न संस्कार हैं- सामाजिक उत्सव, पर्व-त्योहार, मनोरंजन के साधन, वेश-भूषा, अलंकार-प्रशाधन, कला, शिल्प और प्रथाएं आदि इसमें शामिल है।
रामचरित मानस के इन पंक्यियों के अनुसार- क्षिति जाल पावक गगन समीरा पंच तत्व से बने शरीरा। जिस प्रकार मानव का शरीर पञ्च तत्व के समीकरण से बना है। उसीप्रकार लोक संस्कृति के भी पाँच तत्व माने गये हैं ।
1. लोक परम्पराएँ तथा अंध परम्पराएँ
2. संस्कार, विधि-विधान तथा आचार-विचार
3. सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संस्थाएं
4. धार्मिक तथा अध्यात्मिक मान्यताएं
5. लोक साहित्य
उपयुक्त विभाजनों के आधार पर लोक संस्कृति को दो भागो में वर्गीकृत किया जा सकता है
1.सामाजिक पक्ष और 2. साहित्यिक पक्ष
1. सामाजिक पक्ष के अंतर्गत वे सभी क्रियाएं आती हैं जो जन्म से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक होती है। लोक परम्पराओं के अंतर्गत- पृथ्वी, पशु-पक्षी, वनस्पति, मानव, राग, औषधि तथा बीमारियाँ आदि आते हैं। संस्कार, विधि-विधान, आचार-विचार तथा धर्मग्रंथों के अनुसार इसमें 16 संस्कार आते हैं लेकिन केवल 6 संस्कार ही समाज में मुख्य रूप से किए जाते है– जन्म, यगोपावित, नामकरण, विवाह, गवना और मृत्यु आदि। हमारे देश में अनेकों सामाजिक संस्थाएं है जैसे- अनाथालय, वृद्धावस्था, धर्मशालाएँ, राजतंत्र, लोकतंत्र आदि। धार्मिक तथा आध्यात्मिक मान्यताओं के अंतर्गत देवी देवताओं की पूजा, पुनर्जन्म, भाग्य, कर्मकांड, तंत्र -मंत्र, टोना-टोटका आदि शामिल हैं।
- साहित्यिक पक्ष में वे सभी क्रियाएं आती हैं जैसे लोकगीत, लोककथा, लोकनाट्य लोकगाथा, सोहर कजरी, चैता, होली, छठगीत, बालकों के गीत, माता के गीत, निर्गुण आदि। लोकगीत के ये कुछ उदहारण हैं
बालक जन्म गीत– जुग जुग जियस इ ललनवा———
मैया के गीत– निमिया के डार मईया लावेली हिलोरवा की डुली डुली ना —
चैता गीत– हंसी हंसी पनवा खिअवले बेईमनवा, की अपने बसे रे परदेश —
छठ गीत – केरवा जे फरेला घवद से, ओहपर सुगा मेंड़रास——–हमारे देश में इतनी सारी लोक संस्कृतियाँ हैं जिसमे से सभी को एक साथ समेटना बहुत ही मुश्किल है। आज लोक साहित्य सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में फैला हुआ है। इसका सबसे अधिक प्रचार-प्रसार सिनेमा समाचार पत्र तथा दूरदर्शन ने किया है। दूरदर्शन में हर भाषा के चैनल है और सभी चैनलों ने अपने अपने क्षेत्रीय लोक संस्कृति को अपने क्षेत्र से बाहर निकालकर विश्व के अनेक भागों में फैलाने का काम किया है। भाषा और संस्कृति कई कारणों से एक स्थान से निकलकर अनेक क्षेत्रों में फैल जाता है। इतिहास में पाँच हजार साल पुरानी लोक संस्कृति के भूमंडलीकरण और विस्तारीकरण का मुख्य कारण युद्ध, व्यापार, रोजगार, विदेशी निवेश और उपनिवेशवाद ही रहा है लेकिन समय और परिस्थितियों में बदलाव के साथ-साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की परिकल्पना ने लोक संस्कृति के भूमंडलीकरण को और भी समृद्ध तथा पोषित किया है। आज संचार साधनों के बदलते रूप ने संस्कृति के विस्तारीकरण को और भी गति प्रदान किया है। उपनिवेशवाद की संकुचित विचार धारा का स्थान वसुधैवकुटूम्बकम की परिकल्पना ने ले लिया है और सभी देश एक दुसरे की लोक संस्कृति को सम्मान के साथ स्वीकार करने लगे हैं। ये अपने आप में बहुत ही सुखद और आनन्दप्रद अनुभूति है।
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नमस्ते
महोदय
आप इस आलेख को अपनी संपादकीय पुस्तक में छाप सकते है।
मुझे अपनी ‘संपादकीय’ पुस्तक की एक प्रति देंगे तो खुशी होगी। मैं आपको इसकी मूल्य चुका दूंगी।
धन्यवाद
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