हरी भरी वसुंधरा पर, था खड़ा, एक ठूँठ वृक्ष
कभी वो खुद को निहारता, कभी दिशाओं को देखता
पुष्पहीन, पत्रहीन, असहाय सा था खड़ा
ना वसेरा चिडियों का, ना लोगों के लिए ठिकाना
जब थी मैं हरी भरी और खुशहाल
पक्षियों के कलरव से गूंजती थी डाल-डाल
पथिकों का होता था बैठक यहाँ लेकिन
चुप हो जाती हूँ देख कर नियति के क्रूर परिवर्तन को
क्या ? अब ठूँठ ही रह जाउंगी मैं ?