“वाह रे ! कुदरत तेरी कैसी खेल निराली,
एक का घर भर दिया, दुसरे की झोली भी खाली ।
जिसको दिया आधा, दिल का वही है राजा,
फिर भी घर-घर घूमकर, बजाता है बाजा ।
वे अपनी पहचान को भी हैं तरसते,
फिर भी, उनकी दुआओं से हैं दुसरों के घर सजते ।।”
“ना तो मैं अम्बर से टपकी, न उपजी धरती से
जैसे सब बच्चे आते हैं, मै भी आई थी वैसे
मैं भी इस जहाँ में, किसी माँ–बाप की ही संतान हूँ
लेकिन मेरे जन्म पर पिता मनाता है मातम,
और माँ अपने कोख को कोसे।।
लोगों के घर खुशियाँ बांटू पर खुद कभी न खुशियाँ पाऊं
ना तो मैं पुरुष कहलाऊँ ना नारी कहलाऊँ ।
नाच नाच कर लूँ बलैया ताली और घुंघरू बजाऊँ,
हे विधाता ! मुझे क्यों बनाया ऐसा, उत्तर ना ढूंढ पाऊं ।।”