आत्मकथा की संस्कृति और दलित आत्मकथाएँ

मुझे यहाँ अदम गोंडवी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है- मैंने अदम गोंडवी के इन पंक्तियों में कुछ शब्द निकालकर अपनी तरफ से जोड़ी है-

“आइए महसूस कीजिए जिंदगी के ताप को,

मैं दलितों की बस्तियों तक ले चलूँगा आपको।”

साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ-साथ समाज का सुधारक और प्रेरक भी है। समाज  सामाजिक समस्याओं को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता है और उसका समाधान भी बताता है। यह समाज के वास्तविक रूप के अलावा उसके विकृत, विसंगति एवं असमानता को भी तटस्थता के साथ बयान करता है। एक ऐसा साहित्य जो प्राचीनकाल से सामाजिक विसंगतियों, असमानताओं, अत्याचारों, शोषणों और अस्पृश्यता के दंश की विभीषिका, दबे कुचले कहे जाने वाले पीड़ा की अभिव्यक्ति करता है, वही साहित्य दलित साहित्य है।

‘आत्मकथा’ यानी अपनी जीवन की कथा। आत्मकथा एक आत्मपरक विधा है। इसमें लेखक की आत्मा निहित होती है। इस कथा में लेखक अपनी आपबीती ‘मैं’ शैली में लिखता है। आत्मकथाकार अपनी जीवन कि संपूर्ण गतिविधियों को बाहर की दुनिया से परिचित करवाता है। आत्मकथा वास्तव में एक जीवनीपरक और सूचनापरक विधा है। जिसके द्वारा लेखक पाठक के साथ रु-ब-रु होता है।

आत्मकथा का अर्थ- ‘आत्मकथा’ के लिए अंग्रेजी में ‘ऑटोबायोग्राफी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। हिंदी साहित्य में आत्मकथा के लिए विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है जैसे- आत्मकहानी, आत्मचरित्र, आत्मवृत्त, अत्मगाथा, आत्मविश्लेषण, आत्मजीवनी आदि। आत्मकथा दो शब्दों के मेल से बना है– ‘आत्म’ और ‘गाथा’। ‘तद्भव’ मासिक पत्रिका में प्रकाशित अपने आलेख ‘सामाजिक, राजनीतिक इतिहास का जीवंत दस्तावेज’ में दिनेश कुमार कहते हैं- “आत्मकथा सिर्फ आत्मा की कहानी नहीं होती है बल्कि आत्मा के नजरिये से अपने समय और समाज की कहानी होती है।”

परिभाषाएँ:

मोहनदास नेमिशराय के शब्दों में- “दलित साहित्य यानी बहुजन समाज के सभी मानवीय अधिकारों और मूल्यों की प्राप्ति के उदेश्यों से लिखा गया साहित्य जो संघर्ष से उपजा है, जिसमे समता और बंधुता का भाव है और वर्ण-व्यवस्था से उपजे जाति भेद का विरोध है।”1

माता प्रसाद के अनुसार- “दलित साहित्य वह साहित्य है जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों के पिछड़े हुए उत्पीड़ित, अपमानित शोषित जनों की पीड़ा को व्यक्त करता है। दलित साहित्य कठोर अनुभवों पर आधारित साहित्य है। दलित साहित्य में आक्रोश और विद्रोह की भावना प्रमुख है।”2

डॉ. सोहन पाल ‘सुमनाक्षर’ के शब्दों में- “दलित साहित्य दलितोत्थान हेतु लिखा गया, एक ऐसा साहित्य है जो भोगे हुए सच पर आधारित है। यह जमीन से जुड़े हुए दलित, शोषित, उपेक्षित, सर्वहारा वर्ग से संबंधित है जो दशा और दिशा को इंगित करता है। जिसमे विद्रोह और उद्बोधन के साथ संवेदना जागृत करने की ऊर्जा है।”3

दलित साहित्य का उद्भव और विकास:

‘दलित’ शब्द ही साहित्य के केंद्र में आकर ‘दलित साहित्य’ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। यह दलित वर्ग मानव समुदाय का ही एक अंग है। जिसको समाज ने सदियों से उपेक्षित किया है। इनके द्वारा भोगे हुए जीवन की स्थितियों का लेखा-जोखा अभिव्यक्ति ही दलित साहित्य है। दलित साहित्य की शुरुआत मराठी भाषा के दलितों और शोषितों को आधार बनाकर लिखे गए साहित्य से माना जाता है। दलित साहित्य के उद्भव को समझने के लिए हमें दलित शब्द के उद्भव और विकास को समझना होगा क्योंकि दलित शब्द ही साहित्य के केंद्र में आकर दलित साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। यह ‘दलित’ शब्द सुनते ही मस्तिष्क में अनेक प्रकार के प्रश्न कौंधने लगते हैं, जैसे दलित कौन है? उसकी पहचान, उत्पत्ति इत्यादि?

दलित लेखन की सर्वाधिक चर्चित विधा आत्मकथन है। इसका प्रारंभ बाबासाहेब भीमरावअंबेडकर के आत्मकथन ‘मेरा जीवन’ से मानी जाती है। यह आत्मकथन ‘जनता पत्र’ के 6 नवंबर, 1954 के अंक में छपा था। इसमें डॉ. अंबेडकर ने- ‘मेरा जीवन’ नाम से एक संपूर्ण आत्मवृत्त लिखने की योजना का जिक्र किया है। उनके ही शब्दों में, “सभी स्मृतियों को समेटकर एक आत्मकथा लिखने का मेरा विचार है। संपूर्ण आत्मकथा न लिखूँ तो कम से कम ‘मेरा बचपन’ नाम से एक पुस्तक जरुर लिखूँगा।”4

हिंदी दलित साहित्य में 90 के दशक में पहली आत्मकथा अपने-अपने पिंजरे आयी हालांकि उससे पहले ‘मैं भंगी हूँ’ आयी थी लेकिन स्वयं भगवानदास जी इसे अपनी आत्मकथा नहीं मानते हैं। वे इस आत्मकथा को अपनी पूरी जाति की आत्मकथा मानते हैं। इसके बाद जूठन, मुर्दहिया, तिरस्कृत, दोहरा अभिशाप, आदि आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई, जो अपनी-अपनी तरह से दलित साहित्य के इतिहास में दर्ज हो गई। अहिन्दी भाषी की दलित महिला कौशल्या बैसंत्री का दोहरा अभिशाप पहली आत्मकथा है। उसके बाद महिलाओं ने भी लिखना शुरू किया।

मुर्दहिया:

तुलसीराम का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जहाँ अंधविश्वासों का राज था। बचपन में चेचक हो जाने के कारण इनकी एक आँख की रोशनी हमेशा के लिए चली गई थी। परिवार के सभी लोग अक्सर कनवा-कनवा कहकर पुकारते थे। बचपन में अत्यधिक बीमार रहने के कारण किसी बाबा के सलाह से इनका नाम रामभक्त तुलसीदास के नाम पर तुलसीराम रखा गया ताकि ये जीवित रहें, यह भी एक तरह का अंध विश्वास ही था।

डॉ. तुलसीराम ने इस आत्मकथा की भूमिका में स्पष्ट लिखा है, “मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर (आजमगढ़) की बहुद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुजरते थे। इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाजार हो या मंदिर, यहाँ तक कि मजदूरी के लिए कलकता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुजरना पड़ता था। हमारे गाँव की ‘जिओ-पॉलिटिक्स’ यानी ‘भू-राजनीति’ में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि ‘मुर्दहिया’ मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी। वह दोनों की मुक्तिदाता थी। विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के माँसपिंड से जूझते सैकड़ों गिद्द्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे। रात के समय इन्हीं सियारों की हुआँ-हूआँ वाली आवाज उसकी निर्जनता को भंग कर देती थी। हमारे दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुःख-दर्द अपने अंदर लिए मुर्दहिया में दफ़न हो गए थे। यदि उनमे से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक ‘मुर्दहिया’ ही होता।”

मुर्दहिया दलित जीवन संघर्ष की सिर्फ वेदनामयी गाथा ही नहीं, अपितु हिंदू जाती-व्यवस्था की जड़ता, अंधविश्वास, कर्मकांड तथा तमाम विभेदकारी शोषणमुक्त विषम परिस्थितियों के घेरे को तोड़कर उगते हुए सूरज से एक दलित बालक तुलसीराम की संघर्ष यात्रा है।  

जूठन:

दलित साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि का ‘जूठन’ आत्मकथा साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान रखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा था। ‘जूठन’ रचना में इसे गंभीरता के साथ उठाया गया है। इसमें दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना को जगाने की कोशिश करता है। इसलिए यह पुस्तक पाठकों के बीच लोकप्रिय हुई है। हिंदी साहित्य के दलित आत्मकथाओं में ओमप्रकाश वाल्मीकि का प्रमुख स्थान है। साहित्य में जितनी प्रशंसा और प्रतिष्ठा जूठन आत्मकथा को मिली है शायद उतनी प्रशंसा और प्रतिष्ठा अन्य आत्मकथाओं को नहीं मिली है।

यह आत्मकथा दलितों और पिछड़ी जातियों का सशक्त दस्तावेज है। इस आत्मकथा में दलित जीवन की आत्मपीड़ा का दंश बार-बार मुखरित हुआ है। इस आत्मकथा में वर्णित वेदना हमारे अंतर्मन को झंकझोर देती है। हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था द्वारा दिए गए घाव और निर्ममता का यह ‘जूठन’ सबूत है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अनेक दर्द भरी पीड़ाओं को भोगा, उनके तपती हुई ताप में तपकर खुद को निचोड़ा और दलित साहित्य का सृजन किया है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन ने हिंदू धर्म में व्याप्त वर्ण व्यवस्था की परतों को जन मानस के सामने खोलकर रख दिया है। भारतीय समाज, संस्कृति तथा शिक्षा और शिक्षक की विकृत मानसिकता को प्याज की छीलके की तरह परत दर परत खोल दिया है। गाँधी जी के बारे में वाल्मीकि लिखते है, “अम्बेडकर को पढ़ लेने के बाद यह बात समझ में आ गई थी कि गाँधी ने ‘हरिजन’ नाम देकर अछूतों को राष्ट्रीय धारा में नहीं जोड़ा, बल्कि हिन्दुओं को अल्पसंख्यक होने से बचाया। उनके हितों की रक्षा की।”5

जूठन पूरी शिक्षा पद्धति और शिक्षकों की घिनौनी मानसिकता को उजागर करती है। गुरु शिष्य की जो पवित्र छवि हमें दी गई है या निर्माण किया गया है वह बाहर से देखने में खुबसूरत, सुहावना, पवित्र और प्रशंसनीय लगता है लेकिन उतना है नहीं। इस पवित्र रिश्ते को वही जान सकता है जो इन गुरूओं के पास से गुजरा हो। अब तक कितने एकलव्यों की अँगूठा काटा गया होगा यह तो गुरु ही बता सकते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “अध्यापकों का आदर्श जो मैंने देखा था वह अभी मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है, तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो माँ-बहन की गालियाँ दिया करते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे बाहितापन करते थे।”6

‘जूठन’ में दुःख-दर्द, पीड़ा और कराह का संसार पसरा पड़ा है।इन्हीं वेदनामयी टीसों के बीच ओमप्रकाश वाल्मीकि पलते बढ़ते, जीते और साँस लेते रहे हैं। जूठन में एक तरफ यातनामयी चीखें हैं तो दूसरी तरफ इनसे होड़ लेने की अद्भूत साहस भी व्याप्त है। जूठन के टुकड़ों पर जिंदा रखनेवाली हिंदू व्यवस्था को वाल्मीकि की मनुष्यता से सबक लेनी चाहिए। मन में आक्रोस और अपमान की धधकती ज्वाला के बीच भी उनकी मनुष्यता कहीं नहीं खोती है, बल्कि और भी निखरकर सामने आती है। इस प्रकार दलित वर्ग के प्रतिनिधि के रुप में ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस आत्मकथा में उनकी शिक्षा तथा दलित लेखक के वास्तविक जीवन की पीड़ा, शोषण, वेदना, अत्याचार की गूँज आदि समाज में किस तरह से व्याप्त है, यह सब इस आत्मकथा के शैक्षणिक और सामाजिक संदर्भ में देखा जा सकता है।

मेरा बचपन मेरे कन्धों पर:

डॉ. श्यौराजसिंह बेचैन ने ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ में स्त्री की दयनीय स्थिति तथा उसके संघर्षपूर्ण जीवन को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक ने दलित संघर्ष का पूरा यथार्त चित्रण किया है। लेखक को कभी भी किसी स्कूल का विधिवत पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला। वे अनाथ और बाल मजदूर रहे। वे अपने जीवन को चलाने के लिए अपने तमाम रिश्तेदारों के पास भटकते रहे। कभी सब्जी बेची, कभी अंडे बेचे, कभी ईंट के भट्टे पर काम किया। पेट भरने के लिए उन्होंने अनेकों काम किया लेकिन उन्होंने कभी भी अपने आत्म सम्मान को नहीं बेचा और न ही उन्होंने कभी भीख माँगा। वे संघर्षरत रहे, किन्तु हार नहीं माने। वे स्वयं कहते है- “वह मेरे खेलने खाने और स्कूल जाने की उम्र थी, पर व्यवस्था ने मुझे फुटपात दिया था। जहाँ बैठकर मैं बूट पॉलिश किया करता था और अपने ग्राहकों को पढ़ा करता था। मेरे हालात मेरे विद्यालय थे और मेरे संपर्क में आनेवाले मेरे शिक्षक।”7

झोपड़ी से राजभवन:

माता प्रसाद जी ने अपनी आत्मकथा ‘झोपड़ी से राजभवन’ नाम से लिखी है। यह अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माताप्रसाद की ऐसी आत्मकथा है, जिसमे न केवल तत्कालीन समाज की विसंगतियों का चित्रण है, बल्कि राष्ट्रीय, राज्यस्तरीय एवं स्थानीय राजनीतिक षड्यंत्रों का भी प्रमाणिक वर्णन है। राजभवन तक पहुँचना हर किसी का सपना होता है लेकिन सब कोई राजभवन तक नहीं पहुँच पाता। निःसंदेह राजभवन तक पहुँचना एक बड़ी उपलब्धि है। विशेष रूप से श्री माता प्रसाद जैसे दलित व्यक्ति के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि राजभवन तक की यात्रा उन्होंने अपनी झोपड़ी से शुरू की इसलिए झोपड़ी से राजभवन माता प्रसाद जी की राजनीतिक जीवन यात्रा का वृत्तांत भर नहीं है अपितु यह आत्मकथा अभाव और उत्पीड़न के शिकार, दलित समाज की पीड़ा, दर्द, संघर्ष, स्वाभिमान और जिजीविषा की कहानी है।    

तिरस्कृत:

डॉ. सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत’में आरंभ से लेकर अंत तक दलितों को गाँव और शहर के सवर्ण लोग किस प्रकार प्रताड़ित करते हैं। उसका हृदयविदारक वर्णन इस पुस्तक में मिलता है। सूरजपाल चौहान का संबंध भारतीय समाज व्यवस्था में सबसे नीची जाती या यह कहें की दलितों में दलित समझे जानेवाली भंगी जाती से था। इस आत्मकथा में भंगी जाति की व्यथा का वर्णन है। लेखक सूरजपाल चौहान की चेतना की निर्माण भूमि मुख्य रूप से दिल्ली शहर रहा है। वे बचपन में ही अपना गाँव छोड़कर पिता के साथ दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में वे एक सफाई कर्मचारी के बेटे की हैशियत से आए थे। लेखक की माँ बेगार के रूप में ठाकुरों के मोहल्ले में सफाई का काम करती थी। एक बार उनकी माँ बीमार पड़ गई थी। उस परिस्थिति में लेखक को सफाई के लिए वहाँ जाना पड़ता है। लेखक वहाँ बहुत बड़े पैमाने पर झाड़ू लगाता है। इस कारण उसके कमर में दर्द होने लगता है। नाक, कान, सिर, आदि मिट्टी से भर जाते हैं। तब लेखक मन ही मन सोचता है कि शायद माँ रोजाना इस तरह के पीड़ाओं के झेलने के कारण ही बीमार हो जाती है। उन्हीं दिनों बालक सूरजपाल को एक नया अनुभव जूठन इकठ्ठा करने का आया। बालक सूरजपाल अपने इस नए अनुभव से मन ही मन खुश था। जूठन उठाने वाले की नजर ठीक उस कुत्ते की तरह होती है जो उसका प्रतिद्वंदी बनकर खड़ा होता है। एक आदमी खाना खाकर जूठी पत्तल उसकी ओर फेंकता है, उस पत्तल पर लेखक की माँ और कुत्ता दोनों एक साथ झपटते हैं। यह दृश्य भारतीय संस्कृति द्वारा दी गई सामाजिक व्यवस्था पर घोर प्रहार है। ऐसी संस्कृति जो आदमी के स्वाभिमान का हनन कर उसे पशुओं के श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। इसका मुख्य कारण गरीबी और जाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था है। लेखक ने सही कहा है कि, “जब रूखे-सूखे निवालों के भी लाले हों और आदमी-आदमी के हाथों नारकीय जीवन जीने को विवश हो तब वह स्वयं में और पशुओं में अनरत नहीं कर पाता है।”8  

इस भंगी जाति के यथार्थ को लेखक ने कहा है- “जब-जब बसीठों यानी सवर्ण के घरों में शादी-ब्याह का कार्यक्रम होता, हमारे भंगी मोहल्ले में त्यौहार जैसा माहौल उत्पन्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे हमारे मोहल्ले में ही किसी के ब्याह-बरात हो।”9  

दलित लेखन में तीन जगहों को निशाना बनाया गया है। जहाँ दलितों के साथ सबसे ज्यादा भेद-भाव होता हैं वह है- गाँव, स्कूल और कार्यालय। गाँव में होनेवाले जातिगत भेदभाव से संबंधित कई प्रसंग ‘तिरस्कृत’ में मौजूद हैं। गाँव के इसी घुटन भरे माहौल को छोड़कर लेखक अपने पिता के साथ दिल्ली आ जाता है। यहाँ लेखक को अपने व्यक्त्तित्व निर्माण करने का अवसर मिलता है। लेखक के पिता को जीवन बीमा के खजांची पी. कुमार लेखक को पढ़ने की सलाह देते हुए कहते है- “पाँच रुपये कमाने के चक्कर में बच्चे का जीवन बर्बाद मत करों, इसे खूब पढाओं लिखाओं…।”10

शिकंजे का दर्द:

सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ काफी चर्चित रही है। इन्होंने इस आत्मकथा में अपनी तीन पीढ़ियों के स्त्रियों के दर्द और संघर्ष को दर्शाया है। यदि हिंदी दलित आत्मकथाओं में महिला द्वारा लिखी गई पहली आत्मकथा कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ है तो सुशीला टाकभौरे का ‘शिकंजे का दर्द’ दलित महिला आत्मकथाकारों का आगाज है। ‘शिकंजे का दर्द’ दलित नारी के शोषण के विरुद्ध के संघर्ष की गाथा है।

‘दोहरा अभिशाप’:

कौसल्या नंदेश्वर बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ दलित नारी जीवन की संघर्षरत करुण गाथा है। उन्होंने अपने जीवन की हरेक घटनाओं को पाठकों के सामने उघाड़ कर रख दिया है। यह बहुत साहस का काम है। एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुजरना पड़ता है। एक उसका स्त्री होना और दूसरा दलित होना। कौशल्या बैसंत्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती हैं।

भारतीय संविधान में स्त्रियों को अनेकों अधिकार दिए गए हैं, परंतु यह उतना ही सच है कि समाज परिवार एवं घर में आज भी शोषण, अन्याय, हिंसा और गुलामी से वे आजाद नहीं हो पाई हैं। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था से पोषित मानसिकता ने स्त्रियों को कम आँका और उसके साथ सौतेला व्यवहार किया। कौशल्या बैसंत्री ने समाज और परिवार द्वारा मिला इसी सौतेले व्यवहार और घृणित मानसिकता को अपने इस आत्मकथा के माध्यम से उघाडा है। लेखिका अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखती हैं कि- “पुत्र, भाई, पति सब नाराज हो सकते हैं, परंतु मुझे भी स्वतंत्रता चाहिए कि मैं भी अपनी बात समाज के सामने रख सकूँ। मेरे जैसा अनुभव और भी महिलाओं को आए होंगे परन्तु समाज और परिवार के भय से वे अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती हैं और जीवन भर घुटन में जीती हैं। समाज की आँखें खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने लाने की जरुरत है।”11

उपसंहार:

ये आत्मकथाएँ ओमप्रकाश वाल्मीकि, कौशल्या बैसंत्री, डॉ. सूरजपाल चौहान, श्यौराजसिंह  बेचैन, डॉ. तुलसीराम, माता प्रसाद, की है। प्रत्येक आत्मकथा में लेखक के आत्मसंघर्ष की गहरी गूंज मौजूद है। चाहे ओमप्रकाश वाल्मीकि हो या डॉ. तुलसीराम की। वे सभी अपने आत्मसंघर्ष के प्रति सजग हैं। वे जानते है कि समाज को बदलने के साथ-साथ अपने आप को भी बदलना बेहतर जरुरी है। यह आत्मसंघर्ष ही उन्हें सचेत लेखक बनने की ओर ले जाता है। उनका संघर्ष जितना बाहर है, उतना ही भीतर भी है। उन्हें कदम-कदम पर सामाजिक पूर्वाग्रहों और अपने आप से लड़ना ही इन आत्मकथाओं को मूल्यवान बनाता है। स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दलित आत्मकथाएँ अपनी प्रामाणिकता और औचित्य के लिए किसी आलोचक के प्रमाण-पत्र पर निर्भर नहीं है। उनका सबसे बड़ा प्रमाण-पत्र उनके निहित लेखकों का अपना आत्मसंघर्षमय जीवनसघर्ष ही है। 

संदर्भ ग्रंथ:

  1. हिंदी दलित कविता: नये संदर्भ डॉ टी. जी. राही, पृ. सं. 14
  2. दलित साहित्य, माता प्रसाद, पृ. सं. 3
  3. दलित साहित्य क्रांति व विद्रोह का शाश्वत साहित्य (लेख) डॉ. सोहनाक्षर शिखर की ओर: सं.- डॉ एन सिंह, पृ. सं. 301
  4. ‘अपेक्षा’ पत्रिका के जुलाई-सितंबर, 2003, दलित आत्मवृत्त विशेषांक में प्रकाशित “मेरा बचपन” शीर्षक आत्मकथ।
  5. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, 1997. पृष्ठ. सं. 89
  6. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली, 1997. पृष्ठ. सं. 14
  7. डॉ. श्यौराजसिंह बेचैन ने ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ पृ.सं. 278  
  8. सूरजपाल चौहान- तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, पृ. सं. 16
  9. सूरजपाल चौहान- तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, पृ. सं. 17
  10.  सूरजपाल चौहान- तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, पृ. सं. 49
  11.  दोहरा अभिशाप- कौसल्या बैसंत्री, पृ. सं. 103

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