काव्य – कवि के द्वारा जो कार्य संपन्न हो उसे ‘काव्य’ कहते हैं।
लक्षण- किसी वस्तु अथवा विषय के ‘असाधारण’ अथार्त ‘विशेष धर्म’ के विषय में कथन करना उसका ‘लक्षण’ कहलाता है।
काव्य शब्द की व्युत्पत्ति – ‘काव्य’ शब्द ‘कवि’ में ‘य’ प्रत्यय के योग से बना है, जिसका अर्थ होता है, कवि का ‘कार्य’ या ‘कर्म’ होता है।
काव्य लक्षण का तात्पर्य है- काव्य का स्वरुप / काव्य का अर्थ / काव्य की परिभाषाएँ / काव्य लक्षण कहलाती है।
काव्यलक्षण को तीन भागों में बाटा जा सकता है:
1. संस्कृत आचार्यो के द्वारा दिये गये काव्यलक्षण
2. हिंदी आचार्यों द्वारा दिये गये काव्यलक्षण
3. पाश्चात्य आचार्यों द्वारा दिये गये काव्यलक्षण
हिंदी आचार्यों द्वारा दिये गये काव्य लक्षण को दो भागों में बाटा जा सकता है-
भक्तिकाल-रीतिकालीन आचार्यों द्वारा दिये गए काव्य लक्षण
आधुनिक आचार्यों द्वारा दिये गये काव्य लक्षण
संस्कृत आचार्यो के द्वारा दिये गए काव्य के लक्षण:
अग्निपुराणकार (इनके रचयिता अज्ञात है इसलिए अग्निपुराणकार कहा गया है) भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य का लक्षण सबसे पहले अग्निपुराण में मिलता है।
1. अग्निपुराण –
“संक्षेपाद्वाक्यमिष्टार्थंव्यवच्छिन्नापदावली।
काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवददोष वर्जितम्।।”
अर्थ- इष्ट अर्थ को संक्षेप में व्यक्त करनेवाली अविछिन्न पदावली काव्य है। काव्य कुछ अलंकारों एवं गुणों से युक्त होता और उसके लिए दोष वर्जित होता है।
2. भरतमुनि: समय: (2/3 शताब्दी), रचना – नाट्यशास्त्र
काव्य के लक्षणों पर विचार करने वाले पहले आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित ‘नाट्यशास्त्र’ में नाट्य को ही साहित्य या काव्य भी माना गया है। राजशेखर ने नाट्यशास्त्र को ‘पंचम वेद’ की संज्ञा दी है। हालांकि भरत ने स्पष्टतः किसी काव्य-लक्षण का उल्लेख नहीं किया है। भरतमुनि ने काव्य की शोभा बढ़ाने वाले 36 लक्षणों का वर्णन किया है। काव्य कला की प्रशस्ति इस प्रकार की है —
“मृदुललित पदाढ्यं गूढ़ं शब्दार्थहीनं, जनपदसुखबोध्यं युक्तिमन्नृत्ययोज्यं। बहुकृतरसमार्गं संधिसंधानयुक्तं, स भवति शुभकाव्यं नाटकप्रेक्षकाणाम्॥” |
उपर्युक्त श्लोक में सात विशेषताएँ वर्णित हैं – मृदुललित पदावली, गूढ़शब्दार्थहीनता, सर्व सुगमता, युक्तिमत्ता, नृत्योपयोगयोग्यता, बहुकृतरसमार्गता तथा संधि युक्तता। इसमें पाँचवाँ तथा सातवाँ नाटक की दृष्टि से वर्णित हैं, शेष में गुण, रीति, रस एवं अलंकार का वर्णन है।
अर्थ- कोमल एवं सुन्दर पदों से युक्त गूढ़ अर्थ से हीन शब्द, जो जन-समूह को सुख दे, जिसमे युक्ति और नृत्य की योजना हो, जो रस का मार्ग प्रशस्त करने वाला हो अथार्त आनंद देनेवाला हो तथा संधि संधान से युक्त हो वह नाटक दर्शकों के लिए शुभ काव्य होता है।
“अर्थक्रियोंपेतम् काव्यम्” अथार्त अर्थ और क्रिया से युक्त रचना काव्य है।
3. आचार्य भामह: समय – ( 6वीं शताब्दी), रचना – काव्यालंकार
“शब्दार्थों सहितौ काव्यम्।”
अर्थात् शब्द और अर्थ के ‘सहित भाव’ (सहभाव) को काव्य कहते हैं।
आचार्य भामह शब्द और अर्थ के सामंजस्य पर बल देते हैं अर्थात् कविता न तो शब्द चमत्कार है और न केवल अर्थ का सौष्ठव है।
4. आचार्य दण्डी: समय – (8 / 9 वीं शताब्दी), रचना – काव्यादर्श
“शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिना पदावली”
अर्थात् इष्ट अर्थ से युक्त अविच्छिन्न पदावली उसका शरीर मात्र है।
5. आचार्य वामन – समय – (8 वीं शताब्दी), रचना – ’काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’
“गुणालंकृतयों शब्दार्थर्यो काव्य शब्दो विद्यते।”
अर्थात् गुण और अलंकार से युक्त शब्दार्थ ही काव्य है।
6. आचार्य आनंदवर्धन – समय – (9 वीं शताब्दी), रचना – ‘ध्वन्यालोक’
आनन्दवर्धन “शब्दार्थ शरीरं तावत्काव्यम्”
अथार्त शब्द और अर्थ जिसका शरीर है वह काव्य है।
आनन्दवर्धन – “सहृदय हृदयहलादि शब्दार्थमयत्वमेय काव्यलक्षणम्”
अथार्त- सहृदय के ह्रदय को अहलादित करना और शब्द, अर्थ से युक्त होना काव्य है।
आनंदवर्धन – “कव्यस्यात्मा ध्वनि: शब्दार्थ शरीरं तावत्काव्यम्”
अथार्त- काव्य की आत्मा ध्वनि है। शब्द और अर्थ उस काव्य का शरीर है।
7. भोजराज – समय: (10 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ), रचना – ‘सरस्वती कंठाभरण’, ‘श्रृंगार प्रकाश’
“निर्दोषं गुणवत्काव्यं अलंकारैरलंकृतम्।
रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्तिं प्रीतिं च विन्दति।।
अर्थ – काव्य दोषों से रहित, गुणों से युक्त एवं अलंकारों से अलंकृत होता है। रस से युक्त यह काव्य कवि की कीर्ति और प्रीती को बढ़ाने वाला होता है
8. आचार्य रुद्रट – समय – (9 वीं शताब्दी का प्रथम भाग), रचना – ‘काव्यालंकार’
“ननु शब्दार्थौ काव्यम्”
अथार्त- निश्चित शब्द और अर्थ से युक्त रचना काव्य है।
9. आचार्य कुन्तक – समय – (10 वीं शताब्दी का मध्यभाग), रचना – ‘वक्रोक्ति जीवितम्’
“शब्दार्थों सहितौ वक्र कविव्यापारशालिनी।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणी।।”
अर्थ- कवि की वक्र (श्रेष्ठ) प्रतिभा से उत्पन्न वह कार्य जो शब्द और अर्थ से युक्त, बंधो में व्यवस्थित होता है। वह काव्य है तथा वह विद्वानों को आनंद देने वाला होता है।
10 . आचार्य मम्मट: समय – (11 वीं शताब्दी), रचना – ‘काव्यप्रकाश’
“तद्दोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि”
अर्थ- वह (काव्य) जो दोषों से रहित, शब्द और अर्थ से युक्त गुणों से रहित युक्त तथा कभी-कभी अलंकार से रहित भी होता है।
11. आचार्य वाग्भट: समय – (1121 – 1266), रचना – ‘वाग्भटालंकार’
“साधु शब्दार्थ सन्दर्भ गुणालंकार भूषितम्
स्फुटरीति रसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये।।”
अर्थ- श्रेष्ठ शब्दार्थ गुण एवं अलंकारों से सुसज्जित रीति एवं रस से युक्त रचना काव्य है। ऐसा काव्य कवि की कीर्ति करने वाला होता है।
12 . आचार्य हेमचंद्र – समय – (12 शताब्दी), रचना – ‘काव्यानुशासन’
“अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम्”।।
अर्थ – दोषों से रहित, गुणों, अलंकारों और शब्द एवं अर्थ से युक्त रचना काव्य है।
13 . आचार्य जयदेव – समय – (13 वीं शताब्दी), रचना – ‘चंद्रालोक’
“निर्दोषो लक्षणवती सरीतिर्गुण भूषिता।
सालंकाररसानेक वृत्तिर्वाक् काव्यनाम् भाक्।।”
अर्थ- दोष रहित, लाक्षणिक, रीति युक्त, गुण युक्त, अलंकार सहित, रस युक्त, वृति युक्त रचना काव्य है।
14. आचार्य विद्यानाथ – समय – (13 शताब्दी), रचना – ‘प्रतापरुद्रयशो भूषण’
“गुणालंकार सहितौ शब्दार्थौ दोष वर्जितो।
गद्य पद्योभरमय काव्यं काव्यविदो विदुः।।
15. आचार्य विश्वनाथ : समय – (14 वीं शताब्दी), रचना – साहित्यदर्पण
“वाक्यरसात्मकंकाव्यम्”
अथार्त- रस से युक्त वाक्य ही काव्य है।
16. पण्डितराज जगन्नाथ: समय – (17 वीं शताब्दी), रचना – रसगंगाधर
“रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्”
अर्थात्- रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द ही काव्य है।
हिंदी आचार्यों द्वारा काव्य लक्षण:
भक्तिकाल एवं रीतिकाल के आचार्यो के द्वारा दिए गए काव्य लक्षण:
भक्तिकाल आचार्यं द्वारा दिए गए काव्य लक्षण:
तुलसीदास:
“कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कर हित होई।।”
अथार्त- तुलसीदास सब का हित करने वाली साहित्य, रचना को काव्य मानते है।
“कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लागि पछिताना।।”
तुलसीदास भक्तिकाल के कवि हैं आचार्य नहीं है उन्होंने लोकहित के लिए लिखा है।
रीतिकालीन आचार्यों द्वारा दिया गया काव्य लक्षण:
केशवदास:
रीतिकाल के प्रथम अलंकारवादी आचार्य माने जाते है।
“जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न बिराजई कविता बनिता मित्त।।’’
चिंतामणि:
’’सगुनालंकार सहित दोष रहित जो होई।
शब्द अर्थ ताको कवित्त कहत बिबुध सब कोई।।’’
कुलपति मिश्र: (रसवादी आचार्य, इनपर कुंतक का प्रभाव है।)
“जगते अद्भुत सुख सदन, अरु अर्थ कवित्त।
यह लच्छण मैने कियो, समूझि ग्रंथ बहुचित्त।’’
“दोष रहित अरु गुण सहित कछुक अल्प अलंकार।
शब्द अर्थ सो कवित्त है ताको करो विचार।।”(यहाँ मम्मट का प्रभाव है)
सोमनाथ: (इन्होंने काव्य में छंद को हिंदी में पहली बार महत्व दिया है)
“सगुण पदारथ दोष बिनु पिंगल मत अविरुद्ध।
भूषण जुत कवि कर्म जो, सो कवित्त कहि बुद्ध।।”
भिखारीदास:
“रस कविता को अंग, भूषण हैं भूषण सकल।
गुण सरूप और रंग, दूषण कुरूपता।।
देव कवि: (काव्य रसायन) –
“शब्द जीव तिहि अरथ मन, रसमत सुजस सरीर।
चलत वहै जुग छंद गति, अलंकार गंभीर।।’’
“शब्द सुमति मुख ते कढ़े, लै पद वचननि अर्थ।
छंद भाव भूषण सरस, सो कहि काव्य समर्थ।।” (यह ‘शब्द रसायन’ रचना से है)
अथार्त- विद्वानों के मुख से निकले हुए वे शब्द जिनमे अर्थ का सहभाव होता है, जो छंद, भाव, अलंकार एवं रस से युक्त होते है, विद्वान काव्य कहते है।
श्री पति – (रचना- काव्य सरोज), रसवादी आचार्य है।
“शब्द अर्थ बिन दोष गुण अलंकार
ताको काव्य बखानिए श्रीपति परम सुजान।।”
अथार्त- शब्द और अर्थ का सहभाव जो दोषों रहित तथा गुण अलंकार व रसों से युक्त हो उसे काव्य कहते है।
ठाकुर कवि – “पंडित और प्रवीनन को जोह चित्त हरै सो कवित्त कहावै’’
पाश्चात्य आचार्यों द्वारा दिये गये काव्यलक्षण
ड्राइडन – “काव्य सुस्पष्ट संगीत कविता है।’’
कार्लाइल – “काव्य संगीतमय विचार है।”
वर्ड्सवर्थ – “कविता हमारे प्रबल भावों का सहज उद्रेक है।”
विल्सन – “भावनाओं से रंजित बुद्धि काव्य है।”
जान मिल्टन – “सरल, प्रत्यक्ष तथा रागात्मक अभिव्यक्ति काव्य है।’’
एडगर एलन पो – “सौन्दर्य की लयपूर्ण सृष्टि काव्य है।”
मैथ्यू आर्नल्ड – “कविता मूल रूप से जीवन की आलोचना है।”
कॉलरिज – “सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम क्रम कविता है।”
हडसन – “कविता जीवन की व्याख्या है।”
पी. बी. शैली – “कविता सर्वाधिक सुखों और सर्वोत्तम मनों के सर्वोत्तम और सुखपूर्ण क्षणों का लेखा-जोखा है।”
पी.बी. शैली – “कल्पना की अभिव्यक्ति ही कविता है”
लेहंट – “कल्पनात्मक मनोवेग का नाम कविता है”
डॉ जानसन – “कविता वह कला है, जो कल्पना की सहायत से विवेक द्वारा सत्य और आनंद का संयोजन करती है।”
डॉ जॉन्सन – “छन्दमयी वाणी कविता है।’’