समकालीन हिंदी उपन्यासों में अभिव्यक्त आदिवासी जीवन

भूमिका- भारत विभिन्नताओं में एकता का देश है। सदियों से भारतीय समाज में अनेक वर्ण, जाति, धर्म तथा संप्रदाय के लोग एक साथ मिलकर रहते आये हैं। आदिवासी समुदाय भी अनेक क्रिया-कलापों के साथ संगठित रूप से रहते हैं। आज भी बहुत से आदिवासी जंगलों पहाड़ों और दुर्गम प्रदेशों में रहकर अपना जीवन यापन करते हैं। सदियों से ये लोग अन्य सभ्यता और संस्कृति से दूर होने के कारण कई मामलों में आज भी पिछड़े हुए हैं।

      भारत के इतिहास में अदिवासियों का अपना इतिहास रहा है। इनके संस्कार, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, बोली-भाषा सब कुछ अन्य लोगों से भिन्न हैं। साहित्य मात्र समाज को ही निर्मित नहीं करता है, बल्कि उसके विकास में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हिंदी उपन्यास साहित्य में आदिवासी समाज का चित्रण उपन्यासकारों ने समय-समय पर किया है और करते आ रहे। उनके अनुसार यह स्पष्ट है कि आदिवासी यहाँ के मूल निवासी हैं, परन्तु आज भी उन्हें उपेक्षितों जीवन जीना पड़ रहा है। इसी सन्दर्भ में मैत्रयी पुष्पा कहती हैं, “कभी-कभी सड़कों, गलियों में घूमते या अखबारों की अपराध-सुर्ख़ियों में दिखाई देने वाले कंजर, सॉसी, नट, मदारी, सपेरे, पारदी, हाबूड़े, बनजारे, बावरिया, कबूतरे न जाने कितनी जन-जातियाँ हैं जो सभ्य समाज के हाशिये पर डेरा लगाए सदियों गुजार देती हैं- हमारा उनसे चौकना सिर्फ काम चलाउ ही बना रहता है। उनके लिए हम है ‘कज्जा’ और ‘दिकू’ यानी सभ्य सभ्रांत ‘परदेशी’ उनका इस्तेमाल करनेवाला शोषक, उनके अपराधों से डरते हुए मगर अपराधी बनाये रखने के आग्रही।”1                

      आदिवासी का अर्थ- ‘आदिवासी’ शब्द ‘काल’ बोधक शब्द है। आरंभ से विशेष स्थान पर रहने वालेको आदिवासी कहते हैं अथार्त इस धरती का ‘मूलवासी’।

      आदिवासी शब्द की परिभाषा- “आदिवासी शब्द से तात्पर्य है ‘मूल निवासी’, ‘बनवासी’ या ‘जंगली आदिम’ भारतीय संविधान में इन्हें अनुसूचित जनजाति के नाम से संबोधित किया गया हैं।”2

      क्रोबर के शब्दों में “आदिवासी जनजातियाँ ऐसे लोगों का समूह होता है, जिसकी अपनी एक सामान्य संस्कृति होती हैं।”3

      रमणिका गुप्ता के शब्दों में- “बिना जंगल जमीन अपनी भाषा, जीवन शैली, मूल्यों के बिना आदिवासी; आदिवासी नहीं रह सकता। आदिवासी इस देश का मूल निवासी है।”4

      रिवर्स के शब्दों में- “यह एक साधारण प्रकार का समूह है, जिसके सदस्य एक सामान्य बोली का प्रयोग करते है तथा युद्ध जैसे सामान्य उद्देश्यों के लिए सम्मिलित रूप से कार्य करते है।”5

      डॉ. मजुमदार के शब्दों में- “आदिवासी एक सामान्य नामवाला परिवारों का संगठन अथवा परिवारों का समूह होता है, जिसके सदस्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं और विवाह व्यवसाय का पेशे से संबंधित कुछ निषेधों का पालन करते हुए जिन्होंने आदान-प्रदान संबंधित तथा पारस्परिक कर्तव्य विषयक निश्चित व्यवस्था का विकास कर लिया हो।”6

      मानवशास्त्र विश्वकोश के अनुसार- “एक आदिवासी परिवार समूहों का एक ऐसा संकलन है जिसका एक सामान्य नाम (टोडा, उराँव, मुण्डा, भील, गोंडा) विशिष्ट भाग समाज व्यवस्था, संस्कृति और उत्पत्ति संबंधी एक मिथक (पुराकथा) होता है तथा जो एक निश्चित क्षेत्र में निवास करता है।”7

हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन

      उपन्यास हिंदी साहित्य की एक सशक्त और लोकप्रिय विधा है। साहित्य, संस्कृति और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसका अधिक महत्त्व है। मनुष्य की विविधता पूर्व प्रकृति उसके ज्ञान, वैभव, बुद्धि और भाव का अध्ययन उपन्यास के द्वारा व्यापक रूप से किया जाता है। मानव जीवन के प्रत्येक रूप को प्रदर्शित करने की जितनी शक्ति उपन्यास में है शायद उतनी किसी अन्य विधा में नहीं है। उपन्यासकार केवल जीवन के यथार्थ का ही चित्रण नहीं करता है अपितु वह आवश्यकतानुसार समाज में हो रही परिवर्तन या यों कहें कि सुधार की भावना को भी जगाता है। उपन्यासकर (इसके) उपन्यास के द्वारा पाठक के करीब जाकर अपनी बात या अपनी नवीन विचारों को रख सकता है। उपन्यास शब्द का प्रयोग सबसे पहले बंगाल के साहित्यकार भूदेव मुखर्जी ने किया था। उपन्यास दो शब्दों से बना है- उप+न्यास ‘उप’ का अर्थ ‘समीप’ और ‘न्यास’ का अर्थ ‘धरोहर’ होता है।अतः शाब्दिक अर्थ ‘मनुष्य के समीप (नजदीक) हुआ अर्थात उसी की भाषा में रखी हुई धरोहर।’

      हिंदी में आदिवासी जीवन को लेकर उपन्यास लेखन की परंपरा अधिक पुरानी नहीं है। उपन्यास तो लिखे जा रहे थे किन्तु आदिवासी समाज आरंभ के उपन्यासों में पूर्ण रूप से नहीं आया था। आदिवासी समुदाय को लेकर उपन्यासों का लेखन स्वाधीनता प्राप्ति के बाद ही शुरू हुआ था। इसके पहले कुछ उपन्यासों में किसी-किसी आदिवासी समुदाय का थोड़ा-बहुत जिक्र मिल जाता था। हिंदी जगत में सबसे पहले आदिवासी समाज से रु-बरु ‘रेणु’ के आँचलिक उपन्यास ‘मैला आँचल’ से हुआ जब उन्होंने अपने जमीनी हक़ से बेदखल संथालों को अपने स्वत्व और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए देखा था। यहीं उनका परिचय आदिवासियों कि जीजिविसा और जीवटता से हुआ था। यह सर्वविदित है कि साहित्य की कोई भी प्रवृति तत्काल अवतरित नहीं होती है। हिंदी उपन्यास लेखन की परंपरा लाला श्रीनिवास द्वारा लिखित ‘परीक्षा गुरु’ से मानी जाती है। इस उपन्यास के लगभग 130-35 वर्ष हो गए हैं। उस समय और आज के समय में निरंतर उपन्यास के क्षेत्र में विकास हुआ है।

      प्रो. बी. के कलासवा ने लिखा है कि- “आदिवासी जीवन संबंधी उपन्यास लिखने वालों में प्रथम नाम जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी का लिया जाता है, जिन्होंने 1899 ई. में ‘बसंत मालती’ नाम से उपन्यास लिखा जो मुंगेर जिले के मलपुर अंचल के मल्लाह आदिवासी जीवन पर आधारित है। उसके बाद अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध की कृति ‘अधखिला फूल’ (1907) लिखी गई जिसमें आदिवासी जीवन से संबंधित कुछ अंश थे। यह उपन्यास  संथाल आदिवासियों को केंद्र में रखकर लिखा गया था। वृंदावनलाल वर्मा द्वारा रचित उपन्यास ‘कचनार’ (1947) हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन को लेकर लिखा गया महत्वपूर्ण उपन्यास है। वृंदावनलाल लाल वर्मा ने इसे सच्ची घटनाओं पर आधारित उपन्यास बताया है।

20वीं शदी के उतरार्द्ध में लिखे गए आदिवासी उपन्यास –

      रथ के पहिये (देवेन्द्र सत्यार्थी), शैलूष (शिवप्रसाद), कब तक पुकारूँ (रांघेय राघव), जंगल के फूल और सूरज किरण की छाँव (राजेन्द्र अवस्थी), जंगल के आस-पास (राकेश वत्स) धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ शुरू होता है, सावधान नीचे आग है (संजीव), जहाँ बाँस फूलते हैं (श्री प्रकाश मिश्र) आदि प्रमुख उपन्यास है। हिंदी उपन्यासों के विकास यात्रा की बात करें तो आदिवासी जीवन से संबंधित उपन्यास सही अर्थों में स्वातंत्रोत्तर ही दृष्टिगगत होते हैं।

      वन लक्ष्मी (1956) उपन्यास में आदिवासी समाज के धर्मांतरण के गंभीर समस्या को उठाया गया है। इसमें बिहार की ‘हो’ जनजाति की एक युवती बुदनी को खिरीस्तानी (क्रिस्चियनिटी) धर्म को मानने वाला एक लड़का जेफरण अपने जाल में फंसाता है। इसी मुद्दे पर यह उपन्यास है।

      वरुण के बेटे (1957) नागार्जुन द्वारा लिखे गए इस उपन्यास में बिहार के आदिवासी मछुआरों के अस्मिता को बचाए रखने की जद्दोजहद को दिखाया गया है। कोसी परियोजना का दुष्परिणाम यहाँ के आदिवासियों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है, इस उपन्यास में स्पष्ट दिखाई देता है।

      कब तक पुकारूँ (1957) इस उपन्यास के केंद्र में राजस्थान की जनजाति को रखा गया है। रांघेय राघव ने ‘करनट’ जनजाति के रीति-रिवाजों, समाज में इनकी स्थिति और तथा कथित सभ्य समाज के जुल्म को साहित्य के माध्यम से दिखाया है।

      साँप और सीढी (1960) शानी द्वारा रचित इस उपन्यास का केंद्र उड़ीसा एवं बस्तर के मध्य एक कस्तूरी नामक गाँव है।

      जंगल के फूल (1960) – राजेन्द्र अवस्थी, वन के मन में (1962) – योगेंद्र सिन्हा, सागर लहरें और मनुष्य (1964) – उदय शंकर भट्ट, शाल्वनों का द्वीप (1967) – गुलशेर खां शानी आदि उपन्यास महत्वपूर्ण हैं। हिंदी आदिवासी उपन्यासों को जब अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि उपन्यासकारों ने अपनी रचना में आदिवासी जीवन के उन पहलुओं को उजागर किया है जिसपर अबतक किसी ने प्रकाश ही नहीं डाला था। यहाँ के मूल निवासी होने के बावजूद भी उन्हें आज भी उपेक्षितों का जीवन जीना पड़ रहा है।        

      21वीं सदी के उपन्यासों की इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाले और आदिवासी शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाले उपन्यास इक्कीसवीं सदी में लिखे गए और आगे भी लिखे जा रहे हैं। विकास के नाम पर आदिवासी समुदाय को उसके मूलभूत आवश्यकताओं जल, जंगल, जमीन से बेदखल किया जा रहा है। ऐसे में संकट केवल उनके अस्तित्व पर ही नहीं बल्कि उनकी संस्कृति पर भी है। इसी बात को केंद्र में रखकर आदिवासी समुदाय पर केन्द्रित दो उपन्यासों का नाम आता है। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ तथा ‘गायब होता देश’ इन दोनों उपन्यासों का प्रणयन कथाकार रणेंद्र ने किया है। रणेंद्र का यह उपन्यास (ग्लोबल गाँव के देवता) यह सिर्फ उपन्यास ही नहीं आदिवासी समुदाय खासकर ‘असुर’ के इतिहास को भी प्रकट करता है। रणेंद्र का दूसरा उपन्यास ‘गायब होता देश’ है। इस उपन्यास में उन्होंने ‘मुण्डा’ आदिवासी समुदाय को केंद्र में रखकर उसके शोषण-दमन, संघर्ष को कथा का माध्यम बनाया है, साथ ही मुण्डा समाज के इतिहास और संस्कृति का विश्लेषण किया है। प्रसिद्ध कथाकार, संपादक एवं विचारक रमेश उपाध्याय ने गायब होता देश के बारे में लिखा है कि-“यह उपन्यास भूमंडलीय यथार्थवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।”8

      रमेश उपाध्याय लिखते हैं कि “इस उपन्यास में वर्तमान व्यवस्था विकास के नाम पर आदिवासियों की उन्नत, सुन्दर और टिकाऊ सभ्यता संस्कृति को समूल नष्ट करने पर तुली है। देशी-विदेशी कारपोरेट, विल्डर, भू-माफिया, मीडिया, खदान कंपनियाँ, केन्द्र तथा राज्य सरकारें सभी आदिवासियों की जमीनें, जंगल और जल हड़पने, उनकी पहाड़ों में छिपी संपदा को लूटने तथा उन्हें मार-पीटकर उजाड़ने उन्हें और दरिद्र बनाने पर तुले हुए हैं।”9

      मैत्रयी पुष्पा का अल्मा कबूतरी (2000), तजिंदर का काला पादरी (2002), भगवानदास मोरवाल का रेत (2007), रणेंद्र का ‘गायब होता देश’ (2014), विनोद कुमार का ‘रेड जोन’ (2015) आदि प्रमुख इस परम्परा के प्रमुख उपन्यास हैं।    

अध्याय- 1 आदिवासी उपन्यासों की अवधारणा एवं स्वरुप

      प्रथम अध्याय में आदिवासी उपन्यासों की अवधारण एवं स्वरुप को विवेचित करना, इसके अंतर्गत आदिवासी की परिभाषाएँ, आदिवासी शब्द की उत्पत्ति, आदिवासियों की विशेषताएँ, हिंदी साहित्य में लिखे गए आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों के परिचय आदि। 

अध्याय- 2 आदिवासी हिंदी उपन्यास का परिचयात्मक अध्ययन

      इस अध्याय में विवेच्च्य ‘आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों का परिचयात्मक विवेचन’ करते हुए उनकी विशेषताओं को रेखांकित करना, आदिवासियों के अनेक अयामों का उल्लेख करना आदि।

अध्याय- 3 हिंदी उपन्यास में आदिवासी जीवन का सामाजिक-आर्थिक पक्ष

      आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों में सामाजिक-आर्थिक के पक्षों का निरूपण करना, आर्थिक और सामाजिक शोषण के कारणों का विवरण करना आदि।

अध्याय- 4 हिंदी उपन्यास में आदिवासी जीवन का धार्मिक-सांस्कृतिक पक्ष

      आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों में आदिवासियों के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन, आदिवासी समाज में पारिवारिक जीवन, नारी स्थितियों आदि का सोदाहरण विवेचन करना आदि।   

अध्याय- 5 समकालीन हिंदी उपन्यास में आदिवासी जीवन का विद्रोह

      आदिवासीयों के जीवन में होने वाले अनेक विद्रोहों का वर्णन, इतिहास में होने वाले विद्रोहों के नायक, कारन आदि। 

अध्याय- 6 हिंदी उपन्यास में आदिवासी जीवन और पर्यावरण

      पर्यावरण की परिभाषा, वर्तमान में पर्यावरण कि स्थिति, आदिवासी जीवन में पर्यावरण का महत्व आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन।    

उपसंहार :

      संक्षेप में हम कह सकते हैं कि हिंदी उपन्यासों में चित्रित आदिवासीयों की सामाजिक स्थिति आज भी दयनीय और करुणा से भरी है। आदिवासी अत्याचार-अन्याय से ग्रस्त हैं। इनके जीवन की अनेक घटनाएँ इन उपन्यासों में अंकित है। रोजगार की तलास, विकास के नाम पर घटते जंगलों से पलायन करना आदि इनकी समस्याओं के महत्वपूर्ण कारण हैं। आज आदिवासियों को जब उनके जल, जंगल और जमीन से अलग किया जा रहा हैं तो उनमे एक असंतोष का भाव पैदा होने लगा है। जिसके फलस्वरूप वे विद्रोह या आन्दोलन करने के लिए विवश हो जाते हैं। कभी-कभी ताकतवरों के प्रभाव के कारण ये अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए भी मजबूर हो जाते हैं। इतना सब होने के बावजूद भी आदिवासी समाज अपने संस्कारों एवं संस्कृतियों की पहचान बनाये रखने के लिए कटिबद्ध है। परंतु पूंजीपतियों और लोकतंत्र की व्यवस्था ने इनका जीना दूभर कर दिया है। आज उपन्यासों और साहित्य के अनेक विधाओं द्वारा उठाये गये सवाल ही आने वाले समय में उनके प्रश्नों के उत्तर के रूप में परिवर्तित होकर खुशियों का कारण बन सकता है।

परिशिष्ट: 1

पुस्तक सूचि

आधार ग्रन्थ सूचि

पत्र-पत्रिकाएँ

आलोचनात्मक ग्रन्थ सूचि  

सन्दर्भ ग्रंथ:

      1. पुष्पा मैत्रयी – अल्मा कबूतरी, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी नेताजी सुभास        मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली

      2. शर्मा रामशिवलोचन – भारत की जनजातियाँ, पृ. स. – 90

      3. डॉ. एस. के. सोनी राजस्थान के आदिवासी, यूनिक ट्रेडर्स, पेज.न. – 9

      4. डॉ. रमणिका गुप्ता: स्वयं साक्षात्कार द्वारा

      5. डॉ. हरिश्चंद्र उप्रेती: भारतीय जनजातियाँ: संरचना एवं विकास, राजस्थान हिंदी         ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, पृ.स.-1      

      6. डी. एन. मजुमदार: रेसेस कल्चर्स ओफ इंडिया

      7. मानवशास्त्र विश्वकोश: हरिकृष्ण रावत

      8. सं लीलाधर मंडलोई, नया ज्ञानोदय, जुलाई 1914 अंक 137 पृष्ठ सं.110

      9. सं लीलाधर मंडलोई, नया ज्ञानोदय, जुलाई 1914 ए अंक 137 पृष्ठ सं.110

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