जब भगवान ‘राम जी’ को चौदह वर्ष का वनवास हुआ तब उनकी पत्नी ‘सीता जी’ ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया और बचपन से ही राम की सेवा में रहने वाले लक्ष्मण भाई अपने राम भैया से कैसे दूर रह सकते थे? इसलिए उन्होंने ने भी राम के साथ वन जाने के लिए माता सुमित्रा से आज्ञा ले लिया। वन जाने के पूर्व जब वे पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर जा रहे थे तब वे सोच रहे थे कि माँ ने तो मुझे वन जाने की आज्ञा दे दिया परन्तु मैं उर्मिला से क्या कहूँगा? उसे कैसे समझाऊंगा? यही सब सोचते और विचार करते हुए लक्ष्मण जी उर्मिला के कक्ष में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उर्मिला आरती की थाली लेकर पहले से ही खड़ी थी और लक्ष्मण को देखते ही बोली- “आप मेरी चिंता छोड़कर प्रभु की सेवा के लिए वन जाइए। मैं आपको नहीं रोकूँगी। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई भी बाधा नहीं आए, इसलिए आपके साथ जाने की जिद्द भी नहीं करुँगी”। लक्ष्मण को कहने में संकोच हो रहा था परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। असल में यही पत्नी धर्म है, जब पति संकोच में पड़ा हो तो उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात को जानकर उसके संकोच को बाहर निकाल दे। लक्ष्मण तो राम के साथ वन चले गए परन्तु चौदह वर्षों तक उर्मिला एक तपस्विनी की तरह कठोर तप करती रही। लक्ष्मण अपने भैया-भाभी की सेवा करते हुए वन में कभी भी सोए नहीं और इधर उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार को कभी भी बंद नहीं किया और रात-रात भर जागकर उस दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया जिसे जलाकर वह वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी। यह उर्मिला की तपश्या, त्याग, समर्पण और मर्यादा पालन का अनोखा मिशाल है।
मेघनाथ के साथ युद्ध लड़ते हुए लक्ष्मण को शक्ति वाण लग गया था और लक्षमण मुर्छित हो कर गिर पड़े थे। हनुमान जी लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी का पहाड़ लेकर लौट रहे थे। जब वो अयोध्या के उपर से आकाश मार्ग से गुजर रहे थे तब ‘भरत’ ने इस दृश्य को देखा। इसप्रकार महाकाय पर्वत को लेकर रामभक्त भरत को आशंका हुई कि कोई दानव हमारे भ्राता श्रीराम को हानी पहुँचाने का प्रयास कर रहा है और वे हनुमान जी को राक्षस समझकर उनपर वाण चला दिए। घायल होकर हनुमान जी जमीन पर गिर गये और भरत जी को सारा वृतांत सुनाये कि किस तरह छल से रावण सीता माता को चुरा ले गया और युद्ध में लक्ष्मण जी मुर्छित हो गए हैं। यह सब सुनते ही कौशल्या माता कहती हैं कि हनुमान तुम राम से कहना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में वापस न आए। राम वन में ही रहे। यह सुनकर माता सुमित्रा बोली कि हनुमान तुम मेरे राम से कहना कि वो किसी बात कि चिन्ता नहीं करे अभी मेरे पास शत्रुघ्न है, मैं उसे भी भाई की सेवा में भेज दूंगी। मेरे दोनों पुत्र राम की सेवा के लिए ही तो जन्में हैं। माताओं का यह प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अश्रु की धारा बहने लगी परन्तु हनुमान जी उर्मिला को देखकर सोचने लगे कि यह क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपने पति के प्राणों की कोई चिंता नहीं है? तब हनुमान जी उर्मिला से पूछे, हे देवी! आपके पति के प्राण संकट में हैं? सूर्योदय होते ही रघुकुल का एक दीपक बुझ जाएगा। क्या आपको इसकी चिन्ता नहीं हो रही है? हनुमान कि बातें सुनकर उर्मिला बोली “मेरा दीपक संकट में नहीं है हनुमान। वो कभी बुझ ही नहीं सकता, रही सूर्योदय कि बात तो आप चाहें तो कुछ दिन और अयोध्या में विश्राम कर लीजिये क्योंकि आपके वहां पहुँचे बिना सूर्योदय हो ही नहीं सकता है। आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को गोद में लेकर बैठे हैं। जो भगवान राम की गोद में लेटा हो, उसे काल छू भी नहीं सकता है। वे दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति जब से वन गए हैं तब से सोए नहीं हैं। उन्होंने नहीं सोने का प्रण लिया है इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे होंगे और जब भगवान का गोद मिल गया है तो थोड़ा अधिक विश्राम करने लगे हैं। वे उठ जायेंगे। हाँ हनुमान जी शक्ति वाण तो मेरे पति को लगी ही नहीं हैं, शक्ति वाण तो भगवान श्रीराम को लगी है। मेरे पति के हर श्वास में राम हैं उनके खून की बूंद-बूंद में राम हैं। जब उनके ‘शरीर’ और ‘आत्मा’ में सिर्फ राम ही राम हैं तो शक्ति वाण राम को ही लगी है और दर्द भी प्रभु श्रीराम जी को ही हो रहा होगा। इसलिए हे हनुमान जी ! आप निश्चिन्त होकर जाएँ आप के बिना पहुँचे सूर्य उदय नहीं होंगें”। उर्मिला जी के इस उत्तर को सुनकर तीनों लोकों का कोई भी प्राणी उनकी वंदना किए बिना नहीं रह पायेगा। उन्हें अपने प्रभु श्रीराम पर अटूट विश्वास था। उर्मिला का यह विश्वास उनके त्याग और समर्पण कि पराकाष्ठा प्रदर्शित करता है।
बहुत अच्छा लिखा आपने ।
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