भारत के महाकाव्य ‘महाभारत’ से जुड़ा हुआ यह कहानी है। युधिष्टिर जुए में अपना सब कुछ हार कर अपने भाइयों के साथ वनवास जा रहे थे। उसी वन में एक ऋषि ने उन्हें ‘नल’ और ‘दमयंती’ की कथा सुनाई थी। ‘नल’ निषध देश के राजा वीरसेन के पुत्र थे। नल बड़े ही वीर, साहसी, गुणवान और सुन्दर थे। शस्त्र विद्या और अश्व संचालन में भी वे निपुण थे। ‘दमयंती’ विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) के भीष्मक नरेश की पुत्री थी। दमयंती लक्ष्मी के समान सुन्दर, सुशील और सर्वगुण संपन्न थी। निषध देश से जो कोई भी विदर्भ देश में आता था, वह महाराज नल के गुणों की बहुत प्रशंसा करता था। नल की प्रशंसा दमयन्ती अपने गाँव के लोगों से सुनती थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी दमयन्ती के रूप और गुणों की बखान महाराज नल के सामने करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती बिना देखे ही मन ही मन में एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे।
एक दिन राजा नल अपने महल के बगीचे में टहल रहे थे। पक्षियों का मधुर कलरव उनके मन में मधुर संगीत घोल रहा था। उसी समय एक सेवक ने राजा से आकर कहा, महाराज! सरोवर में एक बहुत ही सुन्दर और अद्भुत हंस आया है। सेवक के बातों से राजा नल का ध्यान टूट गया। वे सेवक के साथ सरोवर के पास गये। उन्होंने देखा की वास्तव में एक सुन्दर हंस सरोवर में तैर रहा था। राजा नल को आते देख हंस तेज गति से भागने लगा। राजा नल उसे पकड़ने के लिए दौड़ पड़े। थोड़ी देर के बाद उन्होंने हंस को पकड़ लिया। हंस डर गया और अपने आप को राजा से छुड़ाने के लिए प्रयत्न करने लगा। हंस को लगा कि अब वह राजा नल से नहीं छुट पायेगा, तब हंस विलाप करते हुए राजा से कहा- मेरा परिवार यहाँ से बहुत दूर विदर्भ देश के राजा भीष्मक के सरोवर में रहता है। राजकुमारी दमयंती उनकी पुत्री है। मेरी हंसनी मेरे बिना जीवित नहीं रह पाएगी। वह मुझे बहुत प्यार करती है। वह रो-रो कर अपना प्राण त्याग देगी। राजन! आप मुझे छोड़ दीजिए, अब मैं कभी नहीं आऊंगा। हंस की बातों को सुनकर राजा को दया आ गई। उन्होंने हंस को छोड़ दिया। हंस ने राजा से कहा महाराज आप बहुत दयालु हैं। विदर्भ देश की राजकुमारी दमयंती भी बहुत ही सुन्दर, सुशील, दयालु और सर्वगुण संपन्न है। मैं विदर्भ देश में जाकर राजकुमारी दमयंती के समक्ष आपके गुणों की चर्चा अवश्य करूँगा कि आप जैसा दयावान और सुन्दर और कोई नहीं है। राजन आप दमयंती से विवाह कीजिए। आप दोनों एक दूसरे के योग्य है। यह कहकर हंस उड़ गया।
विदर्भ देश की राजकुमारी दमयंती की रूप की चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई थी। दमयंती के सुदरता से राजा महाराजा ही नहीं देवता भी उससे विवाह करना चाहते थे। एक दिन दमयंती अपने सखियों के साथ बगीचे में विचरण करते-करते सरोवर के पास गई। वह सरोवर में खिले हुए कमल के फूलों की सुन्दरता को निहार रही थी। तभी उसकी दृष्टि एक हंस पर पड़ी। हंस की सुन्दरता को देखकर दमयंती उसको पकड़ने की कोशिश करने लगी। जैसे ही वह हंस को पकड़ने के लिए आगे बढ़ी, हंस कहने लगा- मेरी सुन्दरता तो राजा नल के सामने कुछ भी नहीं है। राजा नल बहुत ही सुन्दर और गुणवान है, तुम्हें तो उनकी ओर आकृष्ट होना चाहिए। हंस की बात को सुनकर दमयंती बोली। तुम कैसे जानते हो राजा नल के विषय में? हंस बोला मैं कई देशों में घूमता रहता हूँ लेकिन नल जैसा दयावान, सुन्दर राजा मैंने कहीं नहीं देखा है। आप दोनों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर लगेगी। दमयंती हंस की बात को सुनकर मन ही मन राजा नल के रूप की कल्पना कर प्रेम करने लगी। दमयंती हमेशा नल के यादों में खोई रहती थी। इस प्रकार हंस ने नल और दमयंती दोनों के मन में प्रेम का विजारोपण कर दिया।
एक दिन विदर्भ नरेश अपने कक्ष में राज्य से संबंधित कार्यों में व्यस्थ थे। तभी महारानी महाराज के कक्ष में प्रवेश हुई। महाराज, महारानी से पूछे क्या बात है? आप कुछ चिंतित दिखाई दे रही है। हमें बताइए मैं अभी आपकी सभी चिंताएं दूर कर देता हूँ। महारानी बोली, आप हमेशा अपने राजकाज के कार्यों में उलझे हुए रहते हैं। आपकी बेटी दमयंती विवाह योग्य हो गई है। हमें दमयंती की विवाह के विषय में भी सोचना चाहिए। महाराज बोले- महारानी आप ठीक कह रहीं हैं। मैं मंत्री जी से कहकर दमयंती के स्वयंवर का निमंत्रण सभी देशों में राजाओं, महराजाओं और राजकुमारों को भिजवा देने के लिए कहता हूँ। महाराज की बात सुनकर महारानी अश्वस्थ हो गई। दूसरे दिन से ही दमयंती के स्वयंवर की तैयारियाँ शुरू हो गई। सभी देशों में दूर-दूर तक राजकुमारी दमयंती के स्वयंवर की चर्चा होने लगी और सभी देशों में निमंत्रण पत्र भेज दिया गया। निषध देश में भी निमंत्रण भेजा गया। राजा नल निमंत्रण पत्र पाकर बहुत खुश हुए क्योंकि राजा नल दमयंती को मन से चाहने लगे थे। दमयंती से विवाह करने के लिए केवल धरती के राजा ही नहीं बल्कि देवातागण भी ललाईत थे। दमयंती के स्वयंवर में अग्नि देव, वारुण देव, इंद्र देव, और पवन देव जा रहे थे। नल भी स्वयंवर के लिए विदर्भ जा रहे थे। देवताओं ने नल को रास्ते में रोककर पूछा, आप कहां जा रहे हैं? राजा नल ने कहा मैं दमयंती के स्वयंवर में जा रहा हूँ। उन सभी देवताओं ने सोंचा नल तो हम सभी से अधिक सुन्दर है, फिर दमयंती इसके सामने हमसे विवाह नहीं करेगी। वह नल को ही अपना पति स्वीकार करेगी। इस बात को सोंचकर देवताओं ने कहा कि दमयंती देवताओं से विवाह करने के योग्य है, कोई मनुष्य उससे विवाह करने योग्य नहीं है। राजा नल! तुम जाओ और दमयंती से कहो कि वे हममे से ही किसी देवता को वरण कर ले। देवताओं की यह बात सुनकर राजा नल बहुत उदास हो गए।
राजा नल ने देवताओं से कहा- दमयंती से तो मैं विवाह करना चाहता हूँ। मैं उससे प्रेम करता हूँ। देवगण कुपित होकर बोले- अगर तुम नहीं गए तो तुम दोनों का अनिष्ट होगा। राजा नल ने कहा लेकिन मैं इतनी जल्दी कैसे जा सकता हूँ। देवातागन बोले- आप अपनी आंखें बंद करो! जैसे ही आप अपनी आंखें खोलेंगे आप अपने आपको दमयंती के महल में पाओगे। राजा नल ने अपनी आँखे बंद किया और जैसे ही खोला उन्होंने अपने को दमयंती के महल में पाया। राजा नल घूमते हुए महल के उपवन वाले सरोवर की तरफ बढ़े। उस सरोवर में राजा नल ने उसी हंस को अपनी हंसनी और पूरे परिवार के साथ देखकर अति प्रसन्न हुए। नल को देखकर दासियां दौड़ते हुए जाकर दमयंती को सूचना दिया कि कोई राजकुमार अपने महल में आया है और वह सरोवर की तरफ घूम रहा है। राजकुमारी जी चलिए देखिये। राजकुमारी दमयंती अपने दासियों के साथ बाहर आकर देखते ही पहचान लिया कि यही राजा नल हैं। हंस के वर्णन के अनुसार सभी लक्षण इस व्यक्ति से मिलते थे। दमयंती उनसे प्रेम करने लगी थी, इसीलिए नल को देखते ही दमयंती खुश हो गई। राजा नल भी दमयंती को प्रेम भरी नजरों से देखकर प्रेमासक्त हो उठे। हंस के वर्णन के अनुसार राजा नल के सपनों की रानी दमयंती उनके समक्ष खड़ी थी। यह कैसा समय था? यह कैसी बिडम्बना थी कि वे अपने प्रिय को प्रेम के लिए निवेदन भी नहीं कर सकते थे क्योंकि वे तो देवताओं का संदेशा लेकर दमयंती को संदेश सुनाने के लिए गए थे। राजा नल ने अपने दिल पर पत्थर रखकर दमयंती से कहा- “यहाँ आपके स्वयंवर में आने के लिए मैं भी आमंत्रित था। मार्ग में आते समय मुझे चार देवता पवन देव, अग्नि देव, इंद्र देव और वरुण देव मिले थे। उन्होंने संदेशा भेजवाया है कि दमयंती से कहना कि वे मनुष्य को नहीं देवताओं के वरण योग्य है, इसिलए वे हम देवताओं में से किसी एक का वरण करे। यह बात सुनते ही दमयंती के मन को चोट लगा और गुस्सा भी आई। दमयंती ने कहा मेरे पर किसी का अधिकार नहीं है और ना ही मैं कोई राज्य हूँ जिस पर शासन किया जा सकता है। विवाह कोई व्यापार नहीं है, जो हर किसी के साथ किया जा सकता है। मैंने आपसे प्रेम किया है मैं अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर चुकी हूँ। मेरा विवाह आपसे ही होगा। अन्यथा मैं कदापि विवाह नहीं करुँगी। दमयंती की बात सुनकर राजा नल आति प्रसन्न हुए। उनका अशांत मन शांत हो गया। तत्पश्चात राजा नल विवाह समारोह में शामिल हो गए। समारोह स्थल की अनोखी साज-सज्जा थी। कई देशों के राजा-महाराजा दमयंती के विवाह समारोह में पधारे थे। प्रजा जनों की भीड़ भी एकत्रित हो चुकी थी। हर कोई चाहता था कि वरमाला उसी के गले में पड़े। नियत समय से अपूर्व सुंदरी दमयंती ने हाथ में वरमाला लिए अपनी सखियों के साथ प्रवेश किया। वधु वेश में दमयंती के अलौकिक सौंदर्य को देख सभी राजा-महाराजा हतप्रभ से हो गए। दमयंती धीरे-धीरे वरमाला लेकर आगे बढ़ने लगी। वह जिस राजा के सामने से गुजरती उसके हृदय में आशा का संचार जग जाता, और आगे बढ़ जाती तो राजा मुरझा जाते थे। दमयंती की आँखें तो राजा नल को ढूंढ रही थी। उसने राजा नल को ढूंढू ही लिया। उसने एक साथ पांच-पांच नल को देखा। देवताओं को यह बात पहले से ही पता था कि दमयंती नल को ही अपना वर चुनेगी। यह सोचकर सभी देवताओं ने नल का रूप धारण कर लिया था। स्वयंवर में एक साथ कई नल खड़े थे। यह देखकर सभी परेशान थे कि इन सभी में असली नल कौन होगा? दमयंती जरा भी विचलित नहीं हुई। दमयंती ने अपनी ऑखें बंद करके मन ही मन ईश्वर का स्मरण किया। हे! प्रभु हे! ईश्वर मेरी सहायता करो। दमयंती ने सुना था कि देवताओं के पैर भूमि में स्पर्श नहीं होते और ना ही उनकी फूल की मालाएँ कभी मुरझाती है। यही सोचकर दमयंती ने निरीक्षण किया और उसने अपनी आंखों से असली नल को पहचान लिया। दमयंती धीरे से राजा नल के पास जाकर उनके गले में वरमाला डाल दिया। दमयंती सभी देवताओं को हाथ जोड़कर बोली हे! देव जनों मैं पहले से ही राजा नल का वरण कर चुकी थी। आप सब हमें आशिर्वाद दें। यह देखकर सभी देवताओं ने नल और दमयंती का अभिवादन किया और आशिर्वाद दिया। इस तरह आंखों में झलकते भावों से ही दमयंती ने असली नल को पहचानकर अपना जीवन साथी चुन लिया। नल-दमयंती को देवताओं का आशीर्वाद भी प्राप्त हु्आ। दमयंती निषध नरेश राजा नल की महारानी बनी। दोनों बड़े सुख से समय बिताने लगे। दमयंती पतिव्रताओं में शिरोमणि थी। अभिमान तो उसे कभी छू भी नही सकता था।
समय बीतने लगा दमयंती के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। उन्होंने पुत्र का नाम इन्द्रसेन और पुत्री का नाम इन्द्रसेना रखा दोनों बच्चे माता-पिता के अनुरूप ही सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न थे। विदर्भ नरेश अपनी पुत्री दमयंती से मिलने निषध देश आए। अपनी पुत्री के सुखी गृहस्थ जीवन को देखकर वे बहुत ही खुश हुए समय सदा एक-सा नहीं रहता, दुःख-सुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। दीपावली का त्योहार आने वाला था राजा नल ने अपने राज्य में बहुत बड़ा पूजा का आयोजन करवाया था। उस पूजा में राजा नल ने सभी देवताओं का पूजन किया लेकिन ‘कलयुग’ को भूल गए। ऐसा देखकर कलयुग क्रोधित हो गए। उन्होंने अपना अपमान समझा और कलयुग राजा नल से प्रतिशोध लेना चाहता था। वैसे तो महाराज नल गुणवान् तथा धर्मात्मा थे किन्तु उनमें एक दोष था, जुए का आदत। नल के एक भाई का नाम पुष्कर था। वह नल से अलग रहता था। उसने उन्हें जुए के लिए आमन्त्रित किया। खेल आरम्भ हुआ। भाग्य प्रतिकूल था। नल हारने लगे और उनका भाई पुष्कर जितने लगा। राजा नल इस जुए में अपना सबकुछ सोना, चाँदी, रथ, राजपाट आदि सब हार गए। महारानी दमयंती ने प्रतिकूल समय जानकर अपने दोनों बच्चों को विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिनपुर भेज दिया। इधर नल जुए में अपना सर्वस्व हार गये। उन्होंने अपने शरीर के सारे वस्त्र-आभूषण उतार दिये। केवल एक वस्त्र पहनकर नगर से बाहर निकल पड़े दमयंती भी मात्र एक साड़ी में अपने पति के साथ निकल पड़ी। एक दिन जंगल में राजा नल ने सोने के पंख वाले कुछ पक्षी देखे। राजा नल ने सोचा, यदि इन्हें पकड़ लिया जाय तो इनको बेचकर निर्वाह करने के लिए कुछ धन कमाया जा सकता है। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने पहने हुए वस्त्र खोलकर पक्षियों पर फेंका। वे पक्षी राजा नल के वस्त्र लेकर उड़ गये। अब राजा नल के पास तन ढकने के लिए भी वस्त्र नहीं रहा। नल अपने से ज्यादा दमयंती के दुःख से व्याकुल थे। जंगल में नल और दमयंती भूख और प्यास से व्याकुल हो रहे थे। नल ने बड़ी मेहनत करके तलाब से कुछ मछलियां पकड़ कर किसी भी तरह वही पर आग जलाकर मछलियों को भुन लिया। मछलियों को आग में भूनने से उस में राख लग गया था। नल दमयंती से बोले तुम यहीं ठहरों मैं इन मछलियों को तालाब से धोकर लाता हूँ, इनमे राख लगा हुआ है तब खायेंगे जैसे ही राजा नल मछलियों को पानी में धोने लगे वैसे ही सारी मछलियाँ पानी में बह गई। राजा सिर्फ देखते ही रह गए। नल अपने साथ होने वाले इन सभी घटनाओं को देखकर हताश हो रहे थे। आखिर ये सब मेरे साथ क्यों हो रहा है। मन ही मन सोचने लगे। हे! भगवान मुझे समझ में नहीं आ रहा है, अब मैं क्या करूँ? मैं अकेले होता तो सब बर्दास्त कर लेता लेकिन इस सुकुमारी दमयंती का दुःख मेरे से देखा नहीं जा रहा है।
जंगल में चलते-चलते नल और दमयंती बहुत थक कर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। दोनों एक ही वस्त्र से तन छिपाये हुए थे। दमयंती को थकावट और भूख के कारण नींद आ गयी। राजा नल ने सोचा, दमयंती को मेरे कारण बड़ा दुःख सहन करना पड़ रहा है। यह सोचकर राजा नल दमयंती को सुप्त अवस्था में छोड़कर चले गए लेकिन उनका मन बहुत दुखी था। उनके मन में बार-बार यही विचार आ रहा था कि दमयंती के इस दशा का मैं ही जिम्मेदार हूँ। मैंने तो दमयंती को उसकी रक्षा करने का वचन दिया था। लेकिन मैं उसके इन सभी अनंत दुखों का कारण बन गया हूँ। अब मुझसे दमयंती का दुःख सहा नहीं जा रहा है। यदि मैं इसे इसी अवस्था में यहीं छोड़कर चला जाऊँगा तो यह किसी भी तरह अपने पिताके के पास पहुँच जायेगी।
यह सोचकर नल दमयंती के आधी साड़ी को फाड़कर उसी से अपना तन ढककर दमयन्ती को उसी अवस्था में छोड़ कर चल दिये। जब दमयंती की नींद खुली तब वे अपने को अकेला पाकर करुण विलाप करने लगी। वे भटकती-भटकती जंगल के बीच में पहुँच गई। वहां जंगल में एक अजगर दमयंती को निगलने की कोशिश कर रहा था, तब अपनी रक्षा के लिए दमयंती जोर-जोर से चिल्लाने लगी। दमयंती की आवाज सुनकर वहां एक व्यघ्र आया और अजगर को मारकर दमयंती को बचा लिया। दमयंती जब शांत हुई तो व्याघ्र ने पूछा इस घने जंगल में तुम क्यों और कैसे आई? तुम कौन हो सुंदरी? दमयंती की सुन्दरता पर मुग्ध होकर व्याघ्र उसे अपनी काम-पिपासा का शिकार बनाना चाहता था। दमयंती उस व्याघ्र के मन की भाव को समझ गई। दमयंती ने उसे श्राप देते हुए कहा, हे भगवान! यदि मैंने अपने पति राजा नल के अलावा किसी भी पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो आप इस व्याघ्र के प्राण ले लो। दमयंती के इतना कहते ही व्याघ्र के प्राण पखेरू निकल गए। इस प्रकार दमयंती दैवयोग से भटकते-भटकते एक दिन चेदिनरेश सुबाहु के पास और उसके बाद अपने पिता के पास पहुँच गई।
राजा नल जिस रास्ते से जा रहे थे, वहाँ घना जंगल था। उन्होंने देखा कि जंगल में भयानक आग लगी है। उस आग में एक नाग फंसा हुआ है। नाग निकलने कि बहुत कोशिश कर रहा था लेकिन वह निकल नहीं पा रहा था। नाग को इस दशा में देखकर राजा नल को दया आ गई। उन्होंने उसे झाड़ियों से निकाल दिया। उसी समय नाग ने कहा, राजन! तुम मुझे अपने कदम से दस कदम गिनकर आगे रखो तभी मेरा भला होगा। ये नाग धर्मराज थे जो नल का परीक्षा ले रहे थे। राजा नल ने सर्प को उठाकर अपनी कदम गिनते हुए आगे बढ़कर दस बोले, वैसे ही नाग ने राजा नल के माथे पर डंस लिया। राजा नल चौक कर बोले लगता है यह मेरा काल था। अब मैं किसी को देख भी नहीं पाउँगा और इस जंगल में मर जाऊँगा। तभी नाग ने कहा- चिंता मत करो राजन तुम्हें कुछ भी नहीं होगा! मैंने तुम्हारी ‘दया’ की परीक्षा ली है और तुम इस परीक्षा में सफल हुए हो। धर्मराज ने कहा, राजन तुम्हारे इस सुन्दर रूप रंग को देखकर कोई राजवंशी समझकर तुम्हें काम नहीं देगा। अब तुम्हारे इस कोयल की तरह काले रंग को देखकर कोई भी काम पर रख लेगा। अभी तुम्हें इसकी सख्त जरुरत है। जब तुम्हें इस काले रंग को बदलने की जरुरत पड़े तो तुम मेरा स्मरण कर लेना। मेरा स्मरण करते ही तुम्हारा रंग फिर पहले की तरह हो जायेगा। नाग (धर्मराज) यह कहकर चला गया। नल भटकते-भटकते राजा रितुपर्ण के यहाँ पहुँच गए जो अयोध्या के राजा थे। राजा नल ने कहा महाराज मुझे नौकरी पर रख लीजिये। राजा रितुपर्ण पूछे तुम्हारा नाम क्या है? तुम क्या काम जानते हो? नल ने कहा- मैं बाहुक हूँ, मैं घोड़ों की अच्छी तरह से देखभाल कर सकता हूँ और रथ हांकने में निपुण हूँ। राजा रितुपर्ण ने अपने 500 घोड़ों की देखभाल और रथ हांकने का काम राजा नल को सौंप दिया। बाहुक के सौम्य व्यवहार से राजा बहुत प्रभावित थे। बाहुक को राजा रितुपर्ण के यहाँ काम करते-करते बहुत समय बीत चुका था। एक दिन अचानक बाहुक को पता चला की विदर्भ देश की राजकुमारी का फिर से स्वयंवर हो रहा है। इस खबर को सुनते ही बाहुक बेचैन हो गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोचने लगा दमयंती दूसरा विवाह कैसे कर सकती है। तभी एक नौकर बाहुक को आकर बोला, बाहुक! चलो तुम्हें महाराज बुला रहे हैं। बाहुक आश्चर्यचकित होकर पूछा! महाराज बुला रहे हैं? हाँ चलो! बाहुक महाराज रितुपर्ण के पास जैसे ही पहुँचा तब उसने देखा की महाराज हाथ में एक निमंत्रण पत्र लेकर चिंतित है। बाहुक ने कहा महाराज आपने मुझे याद किया। हाँ बाहुक “आओ-आओ” यह कहकर महाराज ने बाहुक को निमंत्रण पत्र दिखाते हुए कहा? देखो बाहुक यह विदर्भ देश की राजकुमारी का निमंत्रण पत्र है। कल ही स्वयंवर है और यह निमंत्रण पत्र मुझे अभी मिला है। अब तुम्हीं बताओं मैं इतनी जल्दी वहाँ कैसे पहुँच सकता हूँ? बाहुक ने महाराज से कहा, महाराज आप चिंचित न हो, अभी तो बहुत समय है, मैं आपको वहाँ समय से पहले ही पहुँचा दूंगा। बाहुक के आश्वासन से महाराज की चिंता दूर हो गई। जैसे ही महाराज रितुपर्ण रथं पर बैठे वैसे ही बाहुक ने मन ही मन में ‘पवन देव’ का स्मरण कर रथ को हांक दिया। थोड़ी ही देर में रथ ‘हवा से बातें करने’ लगा। महाराज रितुपर्ण रथ के वेग और रथ वाहक बाहुक दोनों को देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। जैसे ही महाराज रथ से बाहर देखने लगे वैसे ही महाराज का दोशाला उड़ गया। महाराज बोले बाहुक रथ को रोकना, मेरा दोशाला उड़ गया है। बाहुक ने तुरंत रथ रोक दिया। बाहुक ने कहा महाराज हम तो बहुत दूर आ गए हैं, वापस जाना मुमकिन नहीं है। अगर हम वापस गए तो बहुत देर हो जायेगा। महाराज बोले छोड़ो चलो। बाहुक ने पुनः रथ को हांक दिया। संध्या होने से पहले ही बाहुक ने महाराज को विदर्भ देश के (अतिथिशाला) स्कंधावार में पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचते ही रात हो चुकी थी। उस अतिथिशाला में कई राजाओं को ठहराया गया था। दमयंती सभी व्यवस्थाओं का बहुत ही सावधानी के साथ निरीक्षण कर रही थी। मन ही मन वह सोच रही थी कि अगर राजा नल का पता नहीं चला तो! लेकिन दमयंती उम्मीद नहीं छोड़ी थी। दमयंती का मन कहता था कि राजा नल को जब मेरी स्वयंवर के विषय में पता लगेगा तब वे अवश्य ही आएंगे। आज की रात आखरी रात थी गणना के अनुसार सभी राजा और राजकुमार स्वयंवर में पहुँच चुके थे। दमयंती के अनुसार अब कोई भी आने वाला नहीं था। दमयंती ने रात में अपनी दासी केश्की के साथ अपने दोनों बच्चों को भेजा और कहा कि तुम हर राजा के सामने जाकर उन्हें हमारी कहानी सुनाना। क्या पता नल भेष बदल कर आयें हो। केश्की सभी राजाओं के सामने जाकर कहानी सुनाकर आगे बढ़ जाती। केश्की कहानी सुनाते-सुनाते बाहुक के पास पहुंची और दमयंती की कहानी बड़े ही करुणा के साथ सुना रही थी। दमयंती कि करुणा भरी कहानी को सुनकर बाहुक के आँखों से आंसू बहने लगा। बाहुक ने इंद्रसेन और इंद्र्सेना को अपने गले से लगा लिया। दमयंती के सिखाएं अनुसार बच्चों ने कहा मुझे बहुत जोर से भूख लगी है। बाहुक ने कहा, बच्चों! अभी मैं तुम दोनों के लिए तुरंत भोजन बनाता हूँ। ऐसा कहकर बाहुक ने तुरंत अग्नि देव और वरुण देव का स्मरण किया। स्मरण करते ही दोनों प्रकट हो गए बाहुक ने तुरंत बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन बनाकर बच्चों को खिला दिया और बच्चों को खीर देते हुए कहा कि तुम अपनी माँ को दे देना।
अंततः दमयन्ती के सतीत्व के प्रभाव से एक दिन महाराज नल के दुःखो का भी अन्त हुआ। दोनों का पुनर्मिलन हुआ और राजा नल को उनका राज्य भी वापस मिल गया। पुरानों के अनुसार- कहा जाता है की नल और दमयंती की अमर प्रेम कथा सुनने से पति-पत्नी के बीच में कटुता मिट जाती है, और प्रेम बढ़ता है। आबू पर्वत के समीप एक आहुक नामक भील रहता था। उसकी पत्नी का नाम आहुजा था। वह बड़ी पतिव्रता तथा धर्मशील थी। वे दंपत्ति बड़े शिवभक्त एवं अतिथि सेवक थे। एक बार भगवान शंकर ने इन दोनों की परीक्षा लेने का विचार किया। वे एक यति का रूप धारण करके संध्या समय आहुक के दरवाजे पर जाकर कहने लगे- ‘भील! तुम्हारा कल्याण हो, मैं आज रातभर यहीं रहना चाहता हूँ, तुम दया करके एक रात मुझे रहने के लिए स्थान दे दो।’ इस पर भील ने कहा – ‘स्वामी! मेरे पास स्थान बहुत थोड़ा है, उसमें आप कैसे रह सकते हैं?’ यह सुनकर यति चलने को ही थे कि पत्नी ने पति से कहा- ‘स्वामी! यति को लौटाइए नहीं, गृहस्थ धर्म का विचार कीजिए। आप दोनों घर के भीतर रहें और मैं अपनी रक्षा के लिए कुछ बड़े शस्त्रों को लेकर दरवाजे पर बैठी रह जाऊंगी।’ भील ने सोचा कि यह बात तो ठीक नहीं क्योंकि यह अबला है। अतएव उसने यति तथा अपनी पत्नी को घर के भीतर रखा और स्वयं शस्त्र धारण कर बाहर बैठा रहा। रात बीतने पर हिसक पशुओं ने उस पर आक्रमण किया और उसे मार डाला। प्रात: जब यति और उसकी पत्नी बाहर आये तो उसे मरा देखा। यह देखकर यति बहुत दु:खी हुए। पर भीलनी ने कहा- ‘महाराज ! इसमें शोक तथा चिंता की क्या बात है? ऐसी मृत्यु तो बड़े भाग्य से ही प्राप्त होती है। अब मैं भी इनके साथ सती हो जाऊंगी। इसमें तो हम दोनों का परम कल्याण हो गया।’ यों कहकर चिता पर अपने पति को रखकर वह भी उसी अग्नि में प्रविष्ट हो गयी। तब भगवान शंकर डमरु-त्रिशूल आदि के साथ प्रकट हो गये। उन्होंने बार-बार उस भीलनी से वर मांगने को कहा, पर वह कुछ न बोलकर सर्वथा ध्यान मग्न हो गयी। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि ‘अगले जन्म में तुम्हारा पति ‘निषध देश के राजा बीरसेन का पुत्र नल होगा और तुम्हारा जन्म विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री दमयंती के रूप में होगा। यह ‘यति’ भी हंस होगा और यही तुम दोनों का संयोग करायेगा। वहां तुम लोग अनंत राजसुखों का उपभोग करके अंत में दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त करोगे।’ यों कहकर प्रभु शंकर वहीं अचलेश्वर लिंग के रूप में स्थित हो गये और कालांतर में ये दोनों भील दंपत्ति नल-दमयंती के रूप में अवतीर्ण हुए ।