हिन्दी साहित्य के महाकवि बिहारी रीतिकालीन, रीतिसिद्ध काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि थे। बिहारीलाल का जन्म सन् 1603 ई० के लगभग ग्वालियर के पास बसवा गोविंदपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था। वे संस्कृत के विद्वान थे। बिहारीलाल माथुर चौबे थे। इस दोहे में उनके बाल्यकाल और यौवनकाल का प्रमाण मिलता है-
जन्म ग्वालियर जानिये, खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर, मथुरा बसी ससुराल।।
बिहारी ने कृष्ण के साथ-साथ अपने दोहे में किसी आलौकिक व्यक्ति को भी नमन किया है। वह निश्चित ही बिहारी के पिता होंगे जो हिंदी के प्रसिद्ध कवि केशव ही है, किन्तु यह विषय आजतक विवादयोग्य है।
प्रकट भये द्वीजराज कुल, सुबस बसें ब्रज आय।
मेरो हरौ कलेस सब, केसो – केसौराय।।
इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखंड में बिता। विवाह के बाद वे अपने ससुराल मथुरा में रहने लगे। घर जवाई बनकर रहने के कारण इन्हें कुछ तिरस्कृत होना पड़ा था। जिसके कारण वे आश्रय की खोज में जयपुर के महाराज जय सिंह के दरबार में पहुंचे। वहाँ पर उन्हें उचित सम्मान और आश्रय दोनों मिला।
महाराज जय सिंह से मुलाकात की कहानी भी काफी मनोरंजक थी। कहते हैं- महाराज जय सिंह अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतना लीन रहा करते थे कि वे राज-पाट देखने के लिए महल से बाहर नहीं निकलते थे। राजमहल के सभी लोग काफी चिंतित रहा करते थे। वे सब समझ नहीं पाते थे कि क्या किया जाए? एक दिन बिहारीलाल राजदरबार में पहुँचे और राजा जय सिंह से मिलने की इक्षा जाहिर किए। दरवारियों का कोई जवाब नहीं पाकर बिहारीलाल बोले कि मेरा ये संदेश महाराज तक पहुँचा दीजिए। बिहारीलाल ने संदेश में लिखा था –
“नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहीं विकास इही काल।
अली कली हौं सो बंध्यो, आगे कौन हवाल”।।
बिहारी के इस दोहे ने राजा के ऊपर मंत्र जैसा काम किया। वे रानी के प्रेम पाश से मुक्त होकर पुनः अपना राज-काज सम्भालने में लग गए। बिहारी के दोहे को पढ़कर महाराज जय सिंह बहुत प्रभावित हुए। वे तुरंत बाहर निकलकर आ गए। बिहारी को इसी तरह के और भी सरस दोहे लिखने का आदेश देते हुए महाराज बोले कि प्रत्येक दोहे पर आपको एक अशर्फी दिया जाएगा। बिहारी दोहे बनाकर महाराज को सुनाते रहे और प्रति दोहे पर उन्हें एक अशर्फी मिलने लगा। इस प्रकार बिहारी ने ‘सात सौ’ दोहे लिखे जो संग्रहीत होकर ‘बिहारी सतसई’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बिहारी सतसई को श्रृंगार, भक्ति और ‘नीति की त्रिवेणी’ भी कहा जाता है।
श्रृंगार-रस के ग्रंथो में जितनी प्रसिद्धी और मान ‘बिहारी सतसई’ को मिली उतना शायद किसी अन्य ग्रन्थ को नहीं मिला। रीतिकाल के परम्परा के अनुसार बिहारीलाल ने कोई लक्षण-ग्रंथ नहीं लिखा लेकिन उनके दोहों में विभिन्न प्रकार के रस, अलंकार और नायिका भेद के उदहारण मिलते हैं। भाव, अनुभाव और संचारिभाव की अद्भुत छटा बिहारी के दोहों में दिखाई देता है। वे हिंदी साहित्य में अपने अनुभाव-विधान के लिए प्रसिद्ध थे। यह अनुभाव का एक उदहारण है-
“उन हरकी हंसी कै इतै, इन सौंपी मुस्काइ।
नैना मिले मन मिल गए, दोउ मिलवत गाइ”।
इस दोहे में कवि ‘अनुभाव’ भाव का वर्णन करते हुए कहते है कि-कृष्ण राधा जी से हँसकर मना करते हुए कहते हैं, तुम (राधा) अपनी गायों को मेरी गायों में मत मिलाओ, इधर राधा मुस्कुराकर अपनी गायों को कृष्ण के गायों के साथ मिलाते हुए कहती हैं, लो मेरी गायों को मैं तुम्हीं को सौपती हूँ। इस तरह से गायों को मिलाते समय दोनों (राधा-कृष्ण) की आँखें मिलते ही दोनों के मन भी मिल गए।
जिस प्रकार अनुभाव और हाव-विधान की योजाना बिहारी ने किया है। वैसा श्रृंगार रस का कोई भी कवि नहीं कर सका है।
“बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाइ।
सौंह करै, भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाइ”।।
इस दोहे में कवि ने गोपियाँ और कृष्ण के बीच नोक-झोंक का वर्णन करते हुए कहा है- श्री कृष्ण से बात-चीत करने के लालच में, गोपियाँ उनके (कृष्ण) के बाँसुरी को छुपा देती है। और वे कसम खाकर, भौवें को हिलाकर हँसती है और उन्हें बासुरी देने से मना कर देती है।
बिहारी ने केवल मुक्तक-काव्य लिखा और वे सफल रहे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- “यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है।” जिस कवि के ‘कल्पना की समाहार’ शक्ति के साथ ‘भाषा की समाहार’ शक्ति जितनी अधिक होगी वह उतनी ही मुक्तक की रचना करने में सफल होगा। यह क्षमता बिहारीलाल में पूर्ण रूप से विधमान थी। इसी से वे अपने दोहे रूपी छोटे छंद में अधिक से अधिक रस भर सकते थे। बिहारी के दोहे रस के छोटे-छोटे छीटों के समान हैं। जैसे-
“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर ।।”
इस दोहे के अनुसार- बिहारी ‘सतसई’ के दोहे का प्रभाव ‘नावक’ से निकलने वाले तीर यानी कि काँटेदार बाण जैसी असरदार है, जो बाहर से देखने में तो छोटा दिखाई देता है परन्तु इसके चोट के घाव बहुत ही गहरे होते है। उसी तरह बिहारी के दोहे देखने में छोटे और सरल लगते हैं किन्तु इसके अर्थ का भाव बहुत ही गहरा होता है।
उन्होंने अपने सभी दोहों में हमेशा नए और सुन्दर प्रसंगों की कल्पना करते हुए उच्च वर्ग और सामान्य वर्ग के जीवन को उभारा है। बिहारी की सम्पूर्ण रचना श्रृंगार-प्रधान है। जिसमे उन्होंने अनेक पक्षों का विस्तृत रूप से चित्रण किया है जैसे- संयोग और वियोग दोनों ही प्रकार में वे सफल रहे। बिहारी विशेष रूप से संयोग रस में सफल रहे। इस दोहे में उन्होंने नख-शिख वर्णन का अदभुत प्रयोग किया है-
“अनियारे दीरघ दृगनि, किती न तरुनि समान।
वह चितवन औरे कछू, जिहि बस होत सुजान”।।
बिहारी के दोहे में अधिकांश सौंदर्य वर्णन भौतिक है। थोड़े दोहे ही नीति, व्यक्ति और प्रकृति संबंधी हैं। बिहारी ने सबसे अधिक प्रधानता आलंबन चेष्टाओं और मुद्राओं को दिया है- ये अनुभाव के अंतर्गत आते हैं जैसे-
“बाल कहा लाली भई, लोयन कोयन मांह।
लाल तिहारे दृगन की, पारी दृगन में छांह।।”
बिहारी ने रूप सौंदर्य का तो वर्णन किया ही है साथ में रूप सौंदर्य से हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव का भी वर्णन किया है जिससे उनके दोहे की चोट और भी अधिक जोरदार हो गई है जैसे-
“मन बांधत बेनी बंधे, नील छबीले बार”
इस दोहे में काले बालों के हृदय पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन है। बिहारी का प्रकृति निरीक्षण अत्यंत सूक्ष्म था। उन्होंने स्वतंत्र रूप से भी प्रकृति का वर्णन किया है, जो कम होते हुए भी प्रभावी है। कल्पना, अनुभूति और मनोविज्ञान की दृष्टी से बिहारी के दोहे उत्कृष्ट हैं, साथ ही उनका कला पक्ष भी अत्यंत सुन्दर है। बिहारी के दोहों में सभी प्रकार के अलंकार प्राप्त होते हैं। बिहारी का अलंकार विधान उनके सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। अलंकारों के प्रयोग से उनकी रचनायें चित को पुलकित कर देती हैं। बिहारी का भाषा पर विलक्षण अधिकार था। बिहारी की भाषा सामान्य होने के बावजूद भी साहित्यिक थी। उनका एक शब्द भी व्यर्थ नही होता था और वे थोड़े से शब्दों में ही अधिक बातें कह देते थे। उनकी भाषा के विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है-
“ब्रज भाषा बरनी सबै, कविवर बुद्धि विशाल।
सबकी भूषण सतसई, रची बिहारी लाल”।
बिहारी के कई दोहों में ज्योतिष, बैद्द-शास्त्र, वेदांत-दर्शन और विज्ञान के सिद्धांतो का प्रयोग किया गया है। ज्योतिष-ज्ञान का परिचय इस दोहे से प्राप्त होता है-
“दुसह दुराज प्रजानी कौ, क्यों न बढ़ै दुःख द्वन्द्व।।
अधिक अंधेरो जग करत, मिली मावस रवि चन्द”।।
जिस प्रकार अमावश्या के दिन रवि और चंद्रमा एक ही दिशा में आकर संसार में अंधकार पैदा कर देते हैं, उसी प्रकार दो राजाओं के राज्य में प्रजा का कष्ट बढ़ जाता है। बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रज भाषा थी। बिहारी का शब्द चयन बड़ा ही सुन्दर और सार्थक था। उन्होंने अपनी भाषा में मुहावरों का भी सुन्दर प्रयोग किया है। जैसे-
“मूड चढ़ाऐऊ रहै फरयौ पीठी कच-भारू।
रहै गिरै परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारू।।”
रीतिकाल के कवि राजनीति में भी रूचि रखते थे। हम यहाँ बिहारी के विषय में कह सकते हैं कि वे एक हिम्मती स्वभाव के कवि थे। तभी तो उन्होंने कविता के माध्यम से पहली बार में ही राजा को विलास भवन से निकालकर कर्म क्षेत्र में लाने का साहस किया। एक बार राजा जयसिंह मुगलों का पक्ष लेकर मराठों के विरुद्ध लड़ने का बिचार कर रहे थे। उसी समय बिहारी लाल ने अपने एक दोहे के द्वारा उनका पथ प्रदर्शन किया। वह दोहा था-
“स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देखु बिहंग विचारि।
बाज पराये पानि पर, तू पंछीनु न मरि”।।
बिहारी का यह दोहा व्यर्थ नहीं हुआ। उसके बाद से महाराज जयसिंह का रुख शिवाजी के प्रति परिवर्तित हो गया। उनके ही प्रयास से शिवाजी और औरंगजेब में संधि हुई। कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति के कारण सतसई के दोहे ‘गागर में सागर’ भरने जैसा है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से देखा जाए तो बिहारी का कवित्व और व्यक्तित्व अत्यंत उच्चकोटि का दृष्टिगोचर होता है। अपने काव्य गुणों के कारण ही बिहारी महाकाव्य की रचना नहीं करने के बावजूद भी महाकवियों की श्रेणी में गिने जाते हैं। निःसंदेह बिहारी रीतिकाल के उत्कृष्ट कवि थे। जिनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।
जिस प्रकार स्त्री की शोभा आभूषण से उसी प्रकार काव्य की शोभा अलंकार से होती है अर्थात जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है। या काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को alankarकहते है।
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