कवि भूषण

हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के उपरांत कविता में एक नया युग प्रारम्भ हुआ जिसे  रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रीतिकाल का आरम्भ सन् 1700 ई० से सन् 1900 ई० तक माना जाता है। भूषण का जन्म संवत् 1670 में कानपुर जिले के तिकवापुर ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उनके भाई ‘चिंतामणि’ और ‘मतिराम’ थे। कवि भूषण का वास्तविक नाम ‘घनश्याम’ था। चित्रकूट के सोलंकी राजा हृदयराम के पुत्र रूद्र सोलंकी ने इन्हें ‘भूषण’ की उपाधि से विभूषित किया था। जिसका वर्णन इस दोहे में है

कुल सुलंकी चित्रकूट- पति साहस सिल-समुद्र।

कवि  भूषण पदवी दई, हृदय राम सुत रूद्र।।

उसी समय से ये ‘कविभूषण’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। हिन्दी रीतिग्रंथों की परम्परा चिंतामणि त्रिपाठी से शुरू हुई अतः रीतिकल का आरंभ उन्हीं से मानना चाहिए। इस काल में श्रृंगार की प्रधानता थी। रीतिकाल में कई ऐसे कवि हुए जो आचार्य थे और वे विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। रीति काल के तीन प्रमुख कवियों में कवि ‘भूषण’ भी एक थे। अन्य दो कवि ‘बिहारी’ तथा ‘केशवदास’ थे। हिंदी साहित्य में वीर रस के कवियों में भूषण का स्थान सर्वोच्च था। इस काल में अधिकांश कवि राजाओं के राज दरवारों में रहकर अपने आश्रय दाताओं का मन बहलाने और उनका मनोरंजन करने के लिए कवितायें लिखते थे। कहा जाता है कि एक दिन नमक मांगने के लिए उनकी भाभी ने उन्हें ताना दिया कि नमक कमाकर लाये हो? उसी समय उन्होंने घर छोड़ दिया। और कहा अब ‘कमाकर’ लाऊंगा तभी नमक खाऊंगा। महाकवि भूषण ने अपनी वीर रस की कविताओं के द्वारा रीतिकाल की विलास मयी निस्तब्धता को भंग कर दिया। उन दिनों औरंगजेब का अत्याचार दिन पर दिन बढ़ते जा रहा था और शिवाजी उनके विरुद्ध थे। उन्हीं दिनों कवि भूषण आश्रयदाता की खोज में औरंगजेब के दरबार में गए थे और उन्हें औरंगजेब के दरबार में आश्रय भी मिल गया था। भूषण के रोम-रोम में जाती कट्टरता कूट-कूटकर भरा हुआ था। इसलिए भूषण को औरंगजेब से नहीं बनी। एक दिन औरंगजेब ने अपनी भरी सभा में कहा “मेरे सभी दरबारी खुशामदी हैं। वे मेरे दोष मुझे नहीं बताते हैं”। तब कवि भूषण ने कहा, महाराज आपके क्रोध के भय से वे चुप रहते हैं। यदि आप जीवन दान दें तो आपके दोषों को बताने वाले लोग भी यहाँ मौजूद हैं। कवि भूषण के कहने पर औरंगजेब ने कहा ठीक है बताओं वो कौन है? मैं उसे जीवन दान दे देता हूँ। औरंगजेब के द्वरा जीवन दान देने के पश्चात् कवि भूषण ने एक ही कविता में औरंगजेब के सभी दोषों को सुना दिया –

इन्द्र जिमि जंभ पर , वाडव सुअंभ पर ।
रावन सदंभ पर, रघुकुल राज है ॥१॥
पौन बरिबाह पर, संभु रतिनाह पर ।
ज्यों सहसबाह पर, राम व्दि‍जराज है ॥२॥
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर ।
भूषण वितुण्ड पर, जैसे मृगराज है ॥३॥
तेजतम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर ।
त्यों म्लेच्छ बंस पर, शेर सिवराज है ॥४॥

भावार्थ – जिस प्रकार जंभासुर पर इंद्र, समुद्र पर बड़वानल, रावण के दंभ पर रघुकुल राज, बादलों पर पवन, रति के पति अर्थात कामदेव पर शंभु, सहस्त्रबाहु पर ब्राह्मण राम अर्थात परशुराम, पेड़ो के तनों पर दावानल, हिरणों के झुंड पर चीता, हाथी पर शेर, अंधेरे पर प्रकाश की एक किरण, कंस पर कृष्ण भारी हैं उसी प्रकार म्लेच्छ वंश पर शिवाजी शेर के समान भारी हैं।

कविभूषण के कविता को सुनकर औरंगजेब क्रोधित हो उठा और तलवार लेकर कवि भूषण को मारने के लिए झपटा लेकिन किसी तरह कवि भूषण अपनी जान बचाकर वहाँ से निकल गए। उसके पश्चात् कवि भूषण शिवाजी के दरबार में चले गए। यह मिलन दोनों के लिए अति लाभकारी हुआ। भूषण को शिवाजी की वीरता पर सच्ची श्रध्दा थी और शिवाजी को कविभूषण की कवितायें बहुत अच्छी लगती थी। कवि भूषण शिवाजी को प्रसन्न करने के लिए कविता नहीं रचते थे बल्कि शिवाजी के जिन गुणों से वे प्रभावित होते थे, उनके उन्ही गुणों से प्रेरित होकर, अपनी काव्य की रचना करते थे। यही कारण था कि भूषण की काव्य रचना अन्य कवियों के काव्य रचनाओं से बिल्कुल अलग और अधिक सत्य होता था। कवि भूषण का वीर रस काव्य काल की तरंगों में विलीन नहीं हुआ। आज भी उनकी रचनाएँ लोगों में अधिक लोकप्रिय है और पढ़ी जाती है। जिस प्रकार तुलसीदास जी ने भगवान राम के लोक रक्षक मर्यादापूर्ण चरित्र से प्रभावित होकर ‘रामचरितमानस’ की रचना किया। उसी प्रकार शिवाजी के लोक रक्षक चरित्र से प्रभावित होकर कवि भूषण ने अपनी काव्य रचनाएँ की थी। शिवाजी भी अपने समय में जाति, देश और धर्म के रक्षक के रूप में प्रतिस्ठित थे। यही कारण था कि हिन्दू जनता शिवाजी को अपना और अपने धर्म का रक्षक मानती थी। शिवाजी का यह जाति रक्षक और धर्म रक्षक रूप ही कवि भूषण के लिए प्रेरणादायक था। कवि भूषण की रचनाओं में सिर्फ उनकी हृदय की बात ही नहीं बल्कि उस समय के तात्कालिक हिन्दू लोगों की भावनाओं और उनके जाति-प्रेम का भी ज्ञान प्राप्त होता है। हिन्दू राजा संख्या में अधिक और बलशाली थे इसके बावजूद भी उनमें आपसी फुट थी जिसके कारण वे मुसलमानों से पराजित हो जाते थे। इस बात को कवि भूषण ने अनुभव किया था और अत्यंत व्यथित होकर उन्होंने इस कविता को लिखा-

“आपस की फुट ही ते सारे हिंदवान टूटे”।

शिवाजी के अतिरिक्त उस काल में मुगलों से लोहा लेने वाले एक और वीर योद्धा पन्ना नरेश महाराजा छत्रसाल थे। भूषण ने अपने काव्य में महाराज छत्रसाल के भी महिमा का गुणगान किया है। महाराज छत्रसाल के दरबार में कवियों का बहुत आदर किया जाता था। कहते हैं कि एक बार स्वयं महाराज छत्रसाल ने कवि भूषण की पालकी को अपने कंधे पर उठा लिया था। उसी समय राजा छत्रसाल की श्रध्दा और भक्ति को देखकर कविभूषण के हृदय से स्वर निकल पड़ा “सिवा को सराहौ कि सराहो छत्रसाल को”।

कवि भूषण ने प्रमुख रूप से शिवाजी और महाराज छत्रसाल की प्रशंसा में ही काव्य लिखा है। कवि भूषण ने उस समय में हो रहे हिन्दुओं और मुसलमानों के संघर्ष का अपने काव्यों में सजीव चित्रण किया है। रीतिकाल की रीतिबद्ध परम्परा में रहते हुए रस की दृष्टी से भूषण ने अपनी अलग से वीर रस काव्य की रचना किया। इसे कवि भूषण की साहित्यिक क्रांति ही कह सकते हैं। जिस समय अन्य सभी तत्कालीन कवि श्रृंगार रस के काव्य की रचनाओं के निर्माण में लगे हुए थे उस समय कवि भूषण ने अपनी कविता के लिए एक नया विषय चुना था। अपने ही युग में श्रृंगार लहर के विरुद्ध चलना या उस श्रृंगार लहर को ही एक नया मोड़ दे देना एक क्रन्तिकारी कवि ही कर सकता है। इस दृष्टि से भी कवि भूषण का उस काल के कवियों में विशेष महत्व था। कवि भूषण के काव्य में सिर्फ वीर रस की प्रधानता थी। वीर रस के साथ कहीं-कहीं भूषण ने अपने काव्य में भयानक रस का भी चित्रण किया है। इन दोनों रस का वर्णन कवि शिवाजी के शौर्य-प्रदर्शन के एक प्रसंग में किया गया है। शिवाजी के आतंक से उनके शत्रु मुगलों की दुर्दशा कैसी हो जाती है उसका यहाँ चित्रण किया गया है –

चकित चकता चौंकि उठे बार-बार, दिल्ली दहसति चितै चाह करषति है।

बिलखी बदन बिलखात बिजैपुरपति, फिरति फिरंगिनी की नार फरकति है।

थर-थर काँपत कुतुबशाह गोलकुंडा, हहरि हबस भूप भीर भरकति है।

राजा शिवराज के नगादन के धाक सुनि, केते पातसाहन की छाती दरकति है। भूषण की कविताओं की भाषा ‘ब्रज’ थी परन्तु उन्होंने अपनी रचनाओं में कई जगह पर उर्दू और फारसी शब्दों का भी प्रयोग किया है। भूषण की भाषा उनके काव्य विषय के अनुरूप ही ‘ओज’ पूर्ण थे। उनकी भाषा में भावों के अनकुल ही कर्कश और कठोर शब्दों का प्रयोग हुआ है। भूषण की भाषा अधिकांश स्थानों पर सरल और सुबोध भी है। उनकी कविताओं को सुनने मात्र से हृदय में उत्साह का संचार होने लगता है। उनकी कविता में जिस प्रसंग का वर्णन होता है उसे सुनते ही उस प्रसंग का चित्र आँखों के सामने आने लगता है। कवि भूषण के 6 ग्रंथ माने जाते है लेकिन अभी तक तीन ग्रंथ ही मिले हैं- ‘शिवराजभूषण’, ‘शिवाबावनी’ और ‘छत्रसालदसक’। कवि भूषण के वीररस के काव्य ने हिन्दुओं को नवजीवन प्रदान किया था। वे सरस्वती माता के सच्चे उपासक थे। रीतिकाल के कवियों ने जिस प्रकार सरस्वती जी को लक्ष्मी के हाथों बेच दिया था वैसा दुष्कर्म भूषण ने नहीं किया। भूषण कवि के काव्य रचना की मूल प्रेरणा, जाती और धर्म के रक्षक के रूप में शिवाजी के प्रति सच्ची भक्ति थी। रीतिकाल के कवियों में वे पहले कवि थे जिन्होंने राष्ट्रीय-भावना को प्रमुखता प्रदान किया। निःसंदेह वे राष्ट्र के अमर धरोहर थे।

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