भारतीय भाषाएँ : दशा और दिशा

भारत एक प्राचीन देश है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि यह विभिन्ताओं में एकता का देश है। भारत में विभिन्नता का रूप केवल भौगोलिक ही नहीं बल्कि भाषायी तथा सांस्कृतिक भी है। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बटी है। यही कारण है कि भारत में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। हर देश की भाषा के तीन रूप होते हैं –

1. बोलियाँ 2. परिनिष्ठित भाषा और 3. राष्ट्रभाषा

बोलियाँ – जिसका प्रयोग साधारण जनता या लोग अपने समूह या घरों में करते हैं उसे बोली कहते हैं। जिसकी संख्या अनेक होती है। भारत में लगभग 600 से अधिक बोलियाँ बोली जाती हैं जैसे – कौरवी, ब्रजभाषा, बघेली, मगही आदि। 

परिनिष्ठित भाषा– यह भाषा व्याकरण से नियंत्रित होती है जिसका प्रयोग शिक्षा, शासन तथा साहित्य के लिए किया जाता है।

राष्ट्रभाषा – जब किसी भी भाषा में व्यापक शक्ति आ जाती है तब वह आगे चलकर सामाजिक और राजनीतिक शक्ति के आधार पर राज्य भाषा या राष्ट्रभाषा का स्थान पा लेती है। भारतवर्ष में अभी 22 विकसित भाषाएँ हैं पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को ‘राष्ट्रभाषा’ का गौरव प्रदान किया। इस प्रकार हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा होती है। जैसे – जर्मनी का जर्मनी, रूस का रुसी, फ्रांस का फ़्रांसीसी आदि। संबिधान के अनुछेद 344 के अंतर्गत पहले केवल 15 भाषाओँ को राजभाषा की मान्यता दी गई थी जबकि संविधान द्वारा 22 भाषाओँ को राज्यभाषा की मान्यता प्रदान की गई है। 21वें संविधान संशोधन के द्वारा सिंधी तथा 71वें संशोधन द्वरा नेपाली, कोंकणी तथा मणिपुरी को भी राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया। बाद में 92वां संबिधान संशोधन अधिनियम 2003 के द्वरा संबिधान की 8वीं अनुसूची में चार और नई भाषाओँ बोडो, डोगरी, मैथिली तथा संथाली को राजभाषा में शामिल कर लिया गया। भाषा एक नदी की धारा है जो बहती रहती है। संस्कृत इस देश की सबसे पुरानी भाषा है। इसका प्राचीनतम रूप संसार की सर्वप्रथम कृति ‘ऋग्वेद’ में      मिलता है। संस्कृत को आर्यभाषा या देवभाषा भी कहते हैं। हिन्दी इसी आर्यभाषा संस्कृत की उतराधिकार है। भारतीय आर्यभाषा संस्कृत का इतिहास लगभग ढाई या तीन वर्षो का है। इस इतिहास काल को तीन भागों में बाटा गया है –

1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा-काल

2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा-काल और

3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा-काल

1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा-काल : इस काल में चारों वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों की रचना हुई जो वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं। इन ग्रंथों की भाषा का रूप एक नहीं था। भाषा का सबसे पुराना रूप ‘ऋग्वेदसंहिता’ में था। दर्शन-ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का प्रयोग साहित्य में भी हुआ। इसे लौकिक संस्कृत भी कहते हैं। इसमे रामायण, महाभारत, व्याकरण, नाटक आदि लिखे गए। इसी वैदिक भाषा से लौकिक भाषा का विकाश हुआ। पाणिनि और कात्यायन के समय तक वैदिक भाषा ही साहित्य की भाषा थी।

2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा-काल : भारतीय आर्यभाषा नये युग में प्रवेश कर नयी भाषा की सृष्टि एवं विकास करती रही और नये भाषा का जो रूप सामने आया वह ‘प्राकृत’ था। उस समय यह ‘प्राकृत’ भाषा तीन अवस्थाओं से होकर विकसित हुई। पहली अवस्था में ‘पालि’, दूसरी अवस्था में ‘प्राकृत’ और तीसरी अवस्था में ‘अपभ्रंशों’ का विकाश हुआ। पालि भारत की प्रथम भाषा है। इसे सबसे पुरानी प्राकृत भी कहा जाता है। इसी भाषा में भागवान बुद्ध और उनके अनुयायिओं ने लोगों को उपदेश दिए थे। उत्तर भारत के अलग-अलग भागों में जिस भाषा का अधिक विकास हुआ उसे प्राकृत भाषा कहते हैं। भाषा-विज्ञान में केवल पांच प्राकृत भाषाएँ ही ऐसी थी जिनके साहित्य एवं व्याकरण की विशेषताओं का उल्लेख सर्वाधिक हुआ है और उस समय भारत में सर्वाधिक प्रचलित थी।

(क) शौरसेनी प्राकृत (ख) पैशाची प्राकृत (ग) मगधी प्राकृत (घ) अर्ध मगधी प्राकृत तथा

(च) महारास्ट्री प्राकृत

  • शौरसेनी प्राकृत मथुरा या शूरसेन जनपद के आस-पास बोली जाती थी। यह मध्यप्रदेश

की मुख्य भाषा थी जिसपर संस्कृत का प्रभाव था।

  • पैशाची प्राकृत उत्तर पश्चिम में कश्मीर के आस-पास की भाषा थी।
  • मगधी प्राकृत मगध के आस-पास प्रचलित थी।
  • अर्ध मगधी प्राकृत का क्षेत्र मगधी और शौरसेनी के बीच का हैI यह प्राचीन कौशल के

आस-पास प्रचलित थीI इस भाषा का प्रयोग अधिकतर जैन साहित्य में हुआ है।

  • महारास्ट्री प्राकृत का मूल स्थान महारास्ट्र है, मराठी भाषा का विकाश इसी भाषा से हुआ

है।

3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा-काल: मध्य-कालिन भारतीय आर्य भाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है। ये भाषाएँ बोल-चाल में पहले से ही विकसित हो गई थी। अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से कई भाषाएँ विकसित हुई जैसे –

शौरसेनी अपभ्रंश से – पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी और गुजरती

पैशाची अपभ्रंश से – पंजाबी और लहंदा

ब्राचड़ अपभ्रंश से – सिंधी

खस अपभ्रंश से – पहाड़ी

महारास्ट्री अपभ्रंश से – मराठी

अर्ध मगधी अपभ्रंश से – पूर्वी हिन्दी और

मगधी अपभ्रंश से – बिहारी, बंगाली, उड़िया और असमिया

इस प्रकार से भाषाएँ प्राकृत भाषाओँ और आधुनिक भारतीय भाषाओँ के बीच की कडियाँ हैं। उत्तर भारत में अपभ्रंश के सात रूप प्रचालित थे। इन्हीं से आधुनिक भारतीय भाषाओँ का जन्म हुआ। संस्कृत, पालि तथा प्राकृत संयोगात्मक भाषाएँ थी किन्तु अपभ्रंश वियोगात्मक हो गई। 1100 ई० के आसपास अपभ्रंस का काल समाप्त हो गया और आधुनिक भाषाओं का युग आरम्भ हो गया। भाषा परिवर्तन के इस संक्रातिकाल में ‘संदेशरासक’, ‘प्राकृतपैगलम’ ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’, वर्णरत्नाकर, कीर्तिलता आदि ग्रंथों की रचना हुई। जिसके अध्ययन के फलस्वरूप अपभ्रंश से प्रभावित पुरानी हिन्दी के रूप दिखाई दिए। हिन्दी की मूल उत्पति शौरसेनी अपभ्रंश [पश्चिमी हिन्दी] से मानी गयी है। हिन्दी में अनेक उप बोलिओं के होते हुए भी खड़ी बोली ही उसकी मूल भाषा बन गई। इस प्रकार हम यहाँ कह सकते हैं कि भाषा सिन्धु नदी की तरह है जो सदा बहती हुई चलती रहती है और जिन-जिन स्थानों से गुजरती हुई चलती है वहाँ-वहाँ से शब्दों को अपने आप में समेटती हुई विशाल और समृद्ध बनती रही है।

दशा– हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा ही नहीं भाव है संस्कति है, सभ्यता है, संस्कार है और हमारी गर्व है। हम सभी भारतीयों को अपने राष्भाषा हिन्दी से दूर नहीं जाना है बल्कि इसे ज्यादा से ज्यादा ऊँचाई पर पहुँचाने की कोशिश करते रहना चाहिए। भाषा चाहे कोई भी हो अपने आप में इतना महान होता है कि चाह कर भी उसका कोई मज़ाक नहीं उड़ा सकता है। हम सभी भारतवासी बहुत ही गर्व के साथ कहते हैं कि हिन्दी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा दोनों है लेकिन क्या हम अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति समर्पित हैं? यह भी सोंचना हमारा फर्ज होता है। मुझे ऐसा महसूस नहीं होता है कि हमारे देश में हिन्दी की दशा उतनी अच्छी है जितनी की होनी चाहिए। आज भी लोग हिन्दी बोलने वालों के तरफ इस तरह से देखते हैं जैसे कि वह अछूत हो। लोग अपनी भाषा बोलने में शर्म महसूस करते हैं। आज के समय में भी अंग्रेजी बोलने वालों को स्मार्ट और हिन्दी बोलने वालों को मुर्ख और गँवार समझा जाता है। मैं कई राज्यों में रही हूँ। उन राज्यों में भी हिन्दी के प्रति लोगों का रुझान कुछ खास नहीं है। बच्चे भी हिन्दी इस कारण पढ़ते हैं क्योंकि यह उनके पाठ्यक्रम में हैं। यहाँ तक कि हिन्दी पढ़ाने वाले शिक्षक और शिक्षिकाएं भी अपने विषय पर गर्व नहीं करते हैं। हमें तो अपने भाषा और विषय दोनों पर गर्व होना चाहिए। भारतेंदु जी के शब्दों में-

निज भाषा उन्नति आहे, सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा- ज्ञानके, मिटत न हिय को सूल।।

आज हमारे देश को स्वतंत्र हुए 70 वर्ष हो गए हैं लेकिन आज भी हम अपने देश को सही मायने में एक भाषा नहीं दे सके हैं। जिस भाषा में पूरा देश बात कर सके। जिस भाषा को अंग्रजों ने हमारे ऊपर थोपा उसे आज भी हम बड़े शौक से अपनी दिनचर्या में प्रयोग करते हैं। अंग्रेज तो इस देश से चले गए, पर अंग्रेजियत आज भी हावी है। आज दुःख की बात यह है कि  अंग्रेजी पढ़ना हमारी मज़बूरी हो गयी है। यही कारण है कि हिन्दी इस देश की आज तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। भारतवर्ष को छोड़कर अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए विश्व के किसी भी देश ने अंग्रेजी को नहीँ अपनाया, आज हर देश की अपनी भाषा है। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि हम अंग्रेजी की अवहेलना कर हिन्दी को आगे बढाएं। कहने का तात्पर्य यह हैं कि हिन्दी अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकता तो अंग्रेजी भी हिन्दी का स्थान नहीं ले सकता है।

दिशा– अब बात आती है दिशा कि तो मुझे तसल्ली है कि आज भी हिन्दी बोलने और

लिखने वालों की देश में कमी नहीं है। मैंने कई ऐसे लेखक और लेखिका को पढ़ी है जिन्होंने MA इंग्लिश में किया है और उनका लेखन कार्य हिन्दी में है। मैं यहाँ एक और उदहारण देना चाहूँगी – महापंडित राहुल सांस्कृतयायन जी को कहा जाता है कि वे 36 भाषाओँ के ज्ञाता थे। वे जहां भी जाते थे वहाँ की भाषा सीख लेते थे फिर भी उन्होंने अपनी भाषा को कभी नहीं छोड़ा।

उन्होंने हिन्दी को बहुत प्यार किया। उन्हीं के शब्दों में “मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के सम्बन्ध में मैंने अपने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।” राहुल सांकृतायन जी के विचार आज बेहद हम भारतीयों के लिए प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियाँ सूत्र रूप में हमारा मार्ग दर्शन करती हैं। हिन्दी को खड़ी बोली का नाम सांकृतायन जी ने ही दिया था। हम जानते हैं कि आज समय में अंग्रेजी आना बहुत जरुरी है। उसके बिना काम नहीं चल सकता है। भाषा सिखना गलत नहीं है लेकिन अपनी भाषा को छोड़ दूसरों की भाषा पर गर्व करना अच्छी बात नहीं है। इसके लिये हम सभी भारतीयों को आगे आना होगा और अपनी आने वाली पिढ़ी को जागरूक करना होगा। बंगाल के महापुरुषों ने भी हिन्दी के गरिमा को पहचाना था। बाबु बंकिमचन्द्र चटर्जी ने 1876 में बंगदर्शन में लिखा था “हिन्दी शिक्षा ना कोरिले, कोनो क्रमे ई चलिबे ना।”

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