गुरु का महत्व

गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गरु:साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।

पौराणिक समय से ही हमारे देश में गुरु का विशेष महत्व है। गुरु ही शिष्य के जीवन में ज्ञान रूपी प्रकाश फैलता है। कबीर दास जी भी कहते है कि

गुरु कुम्भार शिष कुंभ है, गढ़ी-गढ़ी काढ़ै खोट।
अंतर  हाथ  सहारि  दै, बाहर   बाहै   चोट।।

          अथार्त- गुरु कुम्भार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घड़े  के समान है, जिस प्रकार घड़े को सुन्दर बनाने के लिए कुम्हार अन्दर से हाथ का सहारा देकर ऊपर से थाप मारता है ठीक उसीप्रकार गुरु अपने शिष्यों को डांट-फटकार लगाकर कठोर अनुशासन में रखता है लेकिन दिल में प्रेम भावना रखते हुए शिष्य को सज्जन और सुसंस्कृत बनाता है। गुरु की कठोरता बाहरी होती है लेकिन अन्दर से वो दयावान होते हैं।

एक समय की बात है। नरेन (स्वामी विवेकानन्द) अपने छात्र जीवन में आर्थिक संकट से परेशान थे। तभी वे अपने गुरु राम कृष्ण परमहंस के पास गए और उन्होंने अपने गुरु से कहा कि यदि आप काली माँ से प्रार्थना करेंगे तो वे हमारे वर्तमान आर्थिक संकट को दूर कर देंगी। रामकृष्ण जी बोले- ‘नरेन संकट तुम्हें है, तुम खुद जाकर माँ से मांगो, वह अवश्य तुम्हारी सुनेंगी।‘ गरु की बात मानकर नरेन माँ के पास गए और बोले ‘माँ मुझे भक्ति दो’ यह बोलकर नरेन अपने गुरु के पास आ गए। उन्होंने पूछा- ‘क्या माँगा’ ? नरेन बोले माँ मुझे भक्ति दो। गुरु बोले अरे इससे तुम्हारे कष्ट नहीं दूर होंगे, तू फिर अन्दर जा और माँ से स्पष्ट मांग। नरेन दूसरी बार गए और वही बोले- ‘माँ मुझे भक्ति दो’ फिर तीसरी बार भी उन्होंने काली माँ से यही कहा- ‘माँ मुझे भक्ति दो’ तब गुरु परमहंस हंसने लगे और बोले नरेन! मुझे मालूम था तू माँ से भौतिक सुख कभी भी नहीं मांगेगा क्योंकि तुम्हारे हृदय में आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा उत्पन्न हो चुकी है इसलिए मैंने तुम्हें तीन बार भक्ति मांगने के लिए ही अन्दर भेजा था। तुम्हारे वर्तमान आर्थिक संकट का समाधान तो मैं स्वयं कर सकता था। तात्पर्य है कि  सच्चे गरु के सानिध्य में रहकर ही मन का शुद्धिकरण करना सहज और सरल हो पाता है।

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