“वाह रे ! कुदरत तेरी कैसी खेल निराली,
एक का घर भर दिया, दुसरे की झोली भी खाली ।
जिसको दिया आधा, दिल का है वह राजा,
फिर भी घर-घर घूमकर, बजाता है बाजा ।
वे अपनी पहचान को भी हैं तरसते,
फिर भी, उनकी दुआओं से हैं दुसरों के घर सजते ।”
ये बहुत बड़ी विडम्बना है कि बिना किसी गलती के असीम यातनाओं की सजा उन्हें क्यों दी जाती है और कौन इसके लिए जिम्मेदार है। जिस तरह से कुछ लोग जन्मान्ध तथा कुछ शरीर और दिमाग की विमारियों के साथ पैदा होते हैं। उसीप्रकार कुछ ऐसे लोग ऐसे भी हैं, जिनके जन्म के साथ हुई दैवी घटनाओं के कारण कुछ ऐसा शारीरिक विकार होता है जिसकी वजह से उन्हें उनका परिवार, समाज और कानून, कोई भी उन्हें मनुष्य तक समझने की संवेदना नहीं दिखालाता है। यहाँ तक कि उनका सम्बोधन भी एक असम्मानित तरीके से किया जाता है। जी हाँ, मैं जिनकी बात कर रही हूँ उनको समाज कई तरह से सम्बोधित करता है जिसमें मुख्य है – हिजड़ा, किन्नर, खोजवा, नपुंसक, छक्का, थर्ड जेण्डर, उभयलिंगी आदि। विकलांग पैदा होने वाले लोगों को तो परिवार, समाज और कानून संरंक्षण देता है, उनके साथ सहानुभूति रखता है किन्तु किन्नर, हिजड़ा या खोजवा के साथ कोई भी सहानुभूति नहीं दिखलाता है।
किन्नरों को चार वर्गो में बांटा गया है- बुचरा, नीलिमा, मनसा और हंसा। सम्पूर्ण किन्नर समुदाय को संरचना की दृष्टी से सात घरानों में बांटा जाता है, हर घराने के मुखिया को नायक कहा जाता है। ये नायक ही अपने गुरु का चुनाव करते हैं। महाभारत के एक पात्र शिखण्डी को भी इसी समाज का प्रतिनिधी माना जाता है और महाभारत के एक मुख्य पात्र जो महारथियों में गिने जाते हैं उस ‘अर्जुन’ को भी अज्ञात वास के दिनों में एक अप्सरा के श्राप बस किन्नर बनना पड़ा था। अर्जुन अज्ञात वास के दिनों में किन्नर के रूप में ही एक राजकुमारी की शिक्षिका ‘वृहन्नला’ बनकर रहे थे। जब से दुनिया बनी है तब से इस सृष्टि में किन्नर मौजूद हैं जिसका उल्लेख पुराणों और पौराणिक कथाओं में किया गया है। शिव पुराण में जिक्र किया गया है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा जी ने अपनी योग शक्ति से पुरुषों को उत्पन्न किया। योग द्वारा मनुष्यों और जीवों को उत्पन्न करने में काफी समय लग रहा था ऐसे में ब्रह्मा जी के निवेदन पर भगवान शिव ने अपने शरीर के आधे अंग से एक स्त्री को उत्पन्न किया और शिव अर्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। अर्धनारीश्वर रूप में भगवान शिव न तो पूर्ण रूप से पुरुष थे और न ही पूर्ण स्त्री। अर्धनारीश्वर रूप से जहाँ सृष्टि में स्त्री रूप का सृजन हुआ वहीं किन्नर की भी परिकल्पना हुई। इसलिए भगवान शिव ही किन्नरों को सृष्टि में लाने वाले माने जाते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार बुध ग्रह नपुंसक माना जाता है इसलिए किन्नरों में बुध ग्रह का वास माना गया है। यही वजह है कि बुध ग्रह को अनुकूल बनाने के लिए किन्नरों का ज्योतिषशास्त्र में काफी महत्व दिया गया है। किन्नरों की उत्पति के विषय में और भी दो धारणायें आती हैं
- किन्नरों की उत्पति ब्रह्मा जी की छाया या उनके पैर के अँगूठे से हुआ है और
- अरिष्टा और कश्यप उनके आदि जनक ( पिता ) थे।
हिमालय का पवित्र शिखर कैलास किन्नरों का प्रधान स्थान माना जाता था। वहाँ वे भगवान भोले की सेवा करते थे । उन्हें देवताओं का गायक और भक्त माना जाता था। ये यक्षो और गन्धर्वो की तरह नृत्य और संगीत में प्रवीण होते थे। पुराणों के अनुसार- ये कृष्ण का दर्शन करने द्वारका भी गए थे। भीम ने शांतिपर्व में वर्णन किया है कि किन्नर बहुत सदाचारी होते हैं। अजंता के भित्ति चित्रों में गुहिरियको, किरातों और किन्नरों के भी चित्र हैं। महाकवि कालिदास के अमर ग्रन्थ कुमारसम्भव के प्रथम सर्ग के श्लोक 11 और 14 में भी किन्नरों का मनोहारी वर्णन है। इसके अतरिक्त अनेक विद्वानों और साहित्यकारों ने अपने शोधग्रंथों, यात्रा- पुस्तकों, आलेखों और कविताओं में किन्नर देश और किन्नौर में रहने वालें किन्नर जनजाति का उल्लेख किया है। चाणक्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में किन्नरों का उललेख किया है। इतिहास में भी मुस्लमान शासकों द्वारा अपने रानिओं की पहरेदारी के लिए किन्नरों को रखने के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार किन्नरों के संबन्ध में अनेक अंतर्कथाए प्रचलित हैं। इनमे सबसे अधिक प्रचलित कथा भगवान राम के वनगमन से सम्बंधित है- जब भरत राम से मिलने चित्रकूट जा रहे थे तब सभी अयोध्यावासी भी उनके साथ चित्रकूट आए थे। अयोध्या वासियों के विनय को अस्वीकार करते हुए प्रभू श्री राम ने सभी नर-नारियों को वापस अयोध्या लौट जाने के लिए कहा, परन्तु उनके सम्बोधन में हिजड़ों का नाम नहीं था, अपितु किन्नर 14 वर्ष तक प्रभू श्री राम के आने की प्रतीक्षा करते रहे। वापसी पर जब भगवान राम उन्हें मिले तब उनकी निश्छल और निस्वार्थ भावना से अभिभूत होकर उन्हें वरदान दिया कि तुम जिन्हें आशिर्वाद दे दोगे, उनका कभी भी अनिष्ट नहीं होगा।
“जथा जोगु करि विनय प्रनामा, विदा किए सब सानुज रामा ।
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे, सब सनमानी कृपानिधि फेरे ।।”
साहित्य में किन्नर विमर्श से सम्बन्धित पांच उपन्यास मिलते हैं- यमदीप, तीसरी ताली, किन्नर कथा, गुलाम मंडी, पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा। ‘यमदीप’ उपन्यास में नीरजा माधव जी ने किन्नरों के सामाजिक स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है। किन्नरों को किस प्रकार मानसिक, शारीरिक, और सामाजिक भेदभाव से गुजरना पड़ता है। किन्नर नंदरानी को उसके माता-पिता अपने पास रखना चाहते हैं। उसे अपने पैर पर खड़ा देखना चाहते हैं लेकिन महताब गुरु कई प्रश्नों का उतर मांगते हैं जिसका किसी के पास जबाब नहीं होता। महेंद्र भीष्म जी का ‘किन्नर कथा’ किन्नर समाज की पैरवी में लिखा गया उपन्यास है जो किन्नरों को अपने समाज और अधिकारों के प्रति जागरूक करता है। इसमें उनकी आह और वेदना का उल्लेख है। इस उपन्यास में राज घराने में जन्मी ‘चंदा’ की कहानी है । ‘गुलाम मंडी’ में लेखिका ने किन्नरों के जीवन की त्रासदी और सामाजिक उपेक्षा के दर्द को बहुत ही मार्मिकता के साथ उभारा है। प्रदीप सौरभ की ‘तीसरी ताली’ में गौताम साहब और आनंदी आंटी डर से दरवाजा नहीं खोलते हैं कि कहीं वे हमारे बच्चे को न उठा कर ले जाए क्योंकि वहाँ बच्चे होने की खुशी नहीं बल्कि दुःख और शोक का माहौल हो गया था। चित्रा मुद्गल जी का उपन्यास ‘पोस्ट बाँक्स 203 नाला सोपारा’ है जिसमें लेखिका ने पाठकों से किन्नर समाज के दशा और दिशा का परिचय करवाया है।
हमारे समाज में हमेशा से दो ही लिंग, ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ प्रमुख रहा है जो समाज को हमेशा से गतिशील रखा है लेकिन इन दो लिंगों के अलावा किन्नरों का तीसरा लिंग भी है। ऐसा नहीं है कि किन्नर इस धरती पर आसमान से टपके हैं। ये भी किसी न किसी परिवार के सदस्य हैं और इनके भी माँ-बाप हैं फिर भी इन्हे परिवार से अलग कर दिया जाता है। आखिर क्यों? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? माँ-बाप, भगवान, या खुद किन्नर। मेरी सोच से शायद कोई भी नहीं या सभी पक्ष और आज भी समाज इन्हें तीसरा स्तर का ही दर्जा देता है? क्यों? ये वही वर्ग है जो किसी भी पारिवरिक अनुष्ठानों में सिर्फ आशीर्वाद देने का काम करते हैं। समाज की यह मान्यता है कि इनके आशिर्वाद से परिवार में समृधि आती है। परिवार के कुछ विशेष अवसरों पर ही इन्हें घर के अन्दर आने दिया जाता है। जब किसी परिवार में किन्नर का जन्म होता है तो परिवार के पिता पुरुषत्व पर संदेह होने के डर से ‘तृतीय लिंगी’ बच्चे को अपने से अलग कर देता है। आज के समय में भी इनकी स्थिति में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है क्योंकि परिवार, समाज और सरकार का व्यवहार इनके प्रति उपेक्षित रहा है। समाज ने तो इन्हें मनुष्य का दर्जा देने से और सरकार ने इन्हें नागरिक अधिकार देने से भी वंचित रखा है। भारत की इस पवित्र धरती पर जन्म लेने के बाद भी उनके जन्म का कोई रिकार्ड नहीं होता है। भारत सरकार के आंकड़ो के अनुसार देश में किन्नरों की संख्या लगभग चार लाख नब्बे हजार है। आज के समय में भी इनकी आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति बहुत खराब है जिसके फलस्वरूप उन्हें भीख मांगने पड़ रहे हैं। बाजार, सड़क, ट्रेनों, आदि जगहों पर ये अक्सर भीख मांगते मिल जाते हैं। कई बार तो लोग इनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं। कोई भी इनके दुख-दर्द को सुनना, समझना या महसूस नहीं करना चाहता है। आज हम सब 21वीं शदी के मशीनी युग में जीवन जी रहे हैं जहाँ बटन दबाते ही चुटकियों में हर कार्य शुरू और संपन्न हो जाता है वहीं हमारी सोंच अभी भी पौराणिक बेड़ियों से जकड़ी हुई है। किन्नर समुदाय की स्थिति बहुत ही दयनीय है जिससे समाज एकदम अनभिग्य और संवेदनहीन है। इतिहास की अगर हम बात करें तो सन् 1871 से पहले भारत के किन्नरों को ट्रांसजेंडर का अधिकार मिला हुआ था। सन् 1871 में अंग्रेजों ने किन्नरों को क्रिमिनल ट्राइब्स यानी एक जनजाती की श्रेणी में डाल दिया था। बाद में जब आजाद भारत का संविधान बना तो सन् 1951 में किन्नरों को क्रिमिनल ट्राइब्स से निकाल दिया गया परन्तु उन्हें उनका हक़ नहीं मिला। शायद यही एक वर्ग है जिसे परिवार से लेकर समाज और बाजार तक किसी ने कोई काम नहीं दिया। विश्व में किन्नर समुदाय को ट्रांसजेंडर के रूप में मान्यता मिली है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने 1994 में किन्नरों को मताधिकार दे दिया था। इसके बाद 15 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के एस. राधाकृष्णन और ए. के. सीकरी ने तीसरे जेंडर को मान्यता देते हुए एक ऐतिहासिक फैसला दिया। किन्नर समाज की लम्बे समय से चली आ रही मांग को अदालत ने स्वीकार कर लिया। अब इस पहल को आगे बढ़ाना परिवार और समाज की जिम्मेदारी है। जबतक समाज में जागृति नहीं आएगी तब तक कोई भी कानून या सरकार इसे मुख्य धारा में नहीं ला सकती है।
कितनी अजीब बात है कि इतिहास में आदिकाल से, द्वापरयुग के महाभारत और त्रेता युग के रामायण में भी किन्नरों के सामाजिक उपस्थिति के प्रमाण मिलने के बावजूद भी मनुष्य के रुप में समाज किन्नरों को उचित स्थान नहीं दे सका है। आज भी हिंदी साहित्य में किन्नर विमर्श अपरिपक्व अवस्था में है। आम आदमी ने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किन्नरों के अन्दर धड़कने वाले दिल में क्या हलचल होती है। समाज उन्हें स्वीकारने से भी हिचकिचा रहा है फिर भी साहित्य जगत में उन्हें उनके हक के लिए समय-समय पर किए जा रहे प्रयास की सराहना करनी होगी लेकिन इतना ही प्रयास काफी नहीं है। हमने अनेक प्राणियों को प्रेम से अपने घरों में स्थान दिया है। हमारे देश में पशु, पक्षी, पेंड़, पौधे, यहाँ तक की पत्थर की भी पूजा होती आई है तो प्रक्रति की इस कृति को सम्मान के साथ क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?
“ना तो मैं अम्बर से टपकी, न उपजी धरती से
जैसे सब बच्चे आते हैं, मै भी आई थी वैसे
मैं भी इस जहाँ में, किसी माँ–बाप की ही संतान हूँ
लेकिन मेरे जन्म पर पिता मनाता है मातम और माँ कोख को कोसे।।
लोगों के घर खुशियाँ बांटू पर खुद कभी न खुशियाँ पाऊँ
ना तो मैं पुरुष कहलाऊँ ना नारी कहलाऊँ ।
नाच नाच कर लूँ बलैया ताली और घुंघरू बजाऊँ,
हे विधाता ! मुझे क्यों बनाया ऐसा, उत्तर ना ढूंढ पाऊँ ।।”
Medam badhiya likha he aap ne…. Aaj muje kinnaro ke bare me jaj ne ki utsukata huvi to google kar raha tha… Bahut sara matiriyal padha pr en sab me aak ka artical achha laga muje… Thank u mem…
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Namaskar
Bahut bahut dhanyawad Parth acharya ji
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Fatehpur
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