सगुण भक्ति की विशेषताएँ तथा सूरदास और तुलसीदास के भक्ति साहित्य

ईश्वर की ‘सगुण’ और ‘साकार’ रूप में विश्वास करने वाले भक्त कवियों को ‘सगुण’ भक्ति का नाम दिया गया है। वैष्णव भक्ति के उद्भव के साथ ही सगुण भक्तिधारा विकसित हो गई थी। भक्ति प्राचीनकालीन भारतीय वैदिक भक्ति का हि विकसित रूप है। ‘सगुण’ का अर्थ होता है परमसत्ता के सभी गुणों से संपन्न। अवतार की महिमा भी सगुण के अंतर्गत आती है। काल के व्यतीत होने के साथ-साथ उपासना पद्धति के अनुकूल भगवान् के कई नाम बताये गए और प्रचलित होते गए।

      सगुणोपासकों में नामदेव का का नाम गौरव के साथ लिया जाता है। नामदेव ‘बिठोबा’ के परम भक्त थे। गुरु नामदेव ने इन्हें योगमार्ग में प्रवृत करने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न किए। किसी गुरु से दीक्षा लेकर नामदेव सगुण भक्त नहीं बने थे। इनके भक्ति के अनेक चमतकार भक्तमाल में मिलते हैं जैसे बिठोबा की मूर्ति का इनके हाथ से दूध पीना, अविद नागनाथ के शिवमंदिर के द्वार का इनकी ओर घूम जाना आदि। इस भक्ति की पराकाष्ठा के प्रसंग हैं।    

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के लगभग 900 वर्षों के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया गया है।

      आदिकाल (वीरगाथा काल, संवत् 1050-1375)

      पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)

      उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)

      आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900 से….)

भक्तिकाल को दो भागों में विभक्त किया गया है-

1. निर्गुण भक्ति धारा 2. सगुण भक्ति धारा 

निर्गुण भक्ति धारा दो भागों में विभक्त हुआ-

ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य) और प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य)

      जिन भक्त कवियों ने ईश्वर को अवतार मानकर (सगुण) उसकी उपासना की उनकी भक्ति को सगुण भक्ति कहा गया। जिन कवियों ने ईश्वर को एक साकार रूप में स्वीकार किया और उसी साकार ईश्वर के रूप को आधार मानकर काव्य सृजन किया उस काव्य को सगुण भक्ति काव्य कहा गया।

सगुण भक्ति शाखा भी दो भागों में विभक्त है –

      1. रामभक्ति धारा (राम भक्तिधारा के प्रतिनिधि कवि- तुलसीदास जी है)  

      2. कृष्णभक्ति धारा (कृष्ण भक्तिधारा के प्रतिनिधि कवि- सूरदास जी है)

      भक्तिकाल की सगुण काव्य के अंतर्गत श्रीकृष्ण का स्थान सर्वोपरि है। ‘ऋगवेद’ में कृष्ण (आंगिरस) का उल्लेख मिलता है। पुराणों तक आते-आते ‘राम’ और ‘कृष्ण’ अवतार रूप में प्रतिष्ठित हो गए। श्रीमद्भाग्वद्पुराण में उन्हें पूर्ण ब्रह्म के रूप में चित्रित किया गया है।

      सगुण भक्त कवियों ने एक नवीन भाव-क्रांति को जन्म दिया। रामानुज, रामानन्द, वल्लभाचार्य और चैतन्य आदि इस भाव-क्रांति के नेता बने। सगुण संप्रदाय की पृष्ठभूमि में वैष्णव धर्म और शक्ति का समृद्ध साहित्य है। इस साहित्य का प्रमुख ग्रंथ है भगवद्गीता, विष्णु पुराण और भागवत पुराण, पांचरात्र संहितायें, नारद-भक्ति- सूत्र और शांडिल्य-भक्ति-सूत्र। इनके अतिरिक्त दक्षिण के आलवार भक्तों की रचनाएं भी वैष्णवों की अमूल्य निधि हैं। दक्षिण के आचार्यों- नाथमुनि, यमुनाचार्य, रामानुज, निम्बार्क, मध्वाचार्य तथा बल्लभाचार्य ने इस सगुण भक्ति धारा को निजी अनुभूतियों एवं शास्त्रीय दार्शनिकता से संवलित किया। इन आचार्यों ने सगुण भक्ति के उस रूप की प्रतिष्ठा की जिसमें मानव हृदय विश्राम भी पाता है और कलात्मक सौन्दर्य से मुग्ध और तृप्त भी होता है।

सगुण भक्ति की विशेषताएँ निम्नलिखित है –

      1. सगुणोपासना- मध्यकालीन सगुण भक्त कवियों का उपास्य सगुण है। वैष्णव आचार्यों का कथन है कि सगुण के गुण अप्राकृतिक हैं। लौकिक गुण परिवर्तनशील, अस्थिर और कारण कार्यजन्य होते हैं, किन्तु प्रभु के दिव्य गुण ह्रास-विकास रहित हैं। भगवान का यह स्वरूप हृदय और बुद्धि की पहुँच से परे है। सगुण भगवान स्रष्टा, पालक और संहारक हैं। इनके लिए भगवान चल और अचल, मूर्त और अमूर्त, वामन और विराट, सगुण और निर्गुण भी है। सगुणवादियों के अनुसार मनुष्य वस्तुतः ब्रह्म है, नर और नारायण एक है। अवतारी तथा अवतार सर्वथा अभिन्न है।

      “नरो नारायणश्चैव तत्वमेकम् द्विधा कृतम्”– नर नारायण वस्तुतः एक तत्त्व है, उनका द्वैधीकरण व्यावहारिक बुद्धि का भ्रम मात्र है।

      2. ब्रह्मा के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूपों की मान्यता- सगुण भक्त कवियों ने ब्रह्म के निर्गुण रूप को स्वीकार किया है। परन्तु इन कवियों का कहना था कि निर्गुण की उपासना के लिए सगुण का माध्यम अनिवार्य है। जैसे- लाइन वाली कागज़ पर लिखने का अभ्यास करने के बाद ही बिना लाइन वाली कागज पर लिखा जाना संभव हो सकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘निर्गुण’ और ‘सगुण’ दोनों को सापेक्ष बताया है। उन्होंने लिखा है-            

“ज्ञान कहे अज्ञान बिनु तम बिनु कहै प्रकास। निर्गुण कहे सगुणबिनु सो गुरु तुलसीदास।।”

      कृष्ण भक्ति के प्रमुख कवि सूरदास के अनुसार सगुन का साकार रूप भावगम्य और बुद्धि ग्राह्य है। चंचल मन के लिए आधार अथवा आलंबन अनिवार्य है।       

      3. सगुन रूप की उपासना- सगुण साधना में रूपोपासना का विशिष्ट स्थान है। सगुण भक्त कवियों ने रूप सौंदर्य की उपासना पर बल दिया है। सगुण भक्त को भगवान के नाम और रूप इतना विमुग्ध कर लेते हैं कि लौकिक छवि उसके पथ में बाधक नहीं बन सकती। प्रत्येक भक्त कवि ने भगवान् के बाल रूप के सौंदर्य का जी खोलकर पूरी तन्मयता के साथ वर्णन किया है। कृष्ण भक्त कवियों ने तो भगवान् को जगाने, सुलाने, गाय चराने, छाछ खाने, झूला झूलने, नाचने आदि का वर्णन किया है।

      4. अवतारवाद में विश्वास- अवतारवाद मध्यकालीन सगुण उपासना का एक प्रमुख अंग है। भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धरती पर धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं दुष्टों को नाश करने के लिए अवतार लेता हूँ।

      यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7 

      परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4-8

भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। 

तुलसीदास भी गीता के इस मत में विश्वास करते हैं और रामचरितमानस में इस बात को दोहराते हैं।

      “जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
      करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
      तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा”॥4॥

      भावार्थ: जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।

      अवतार के सिद्धांत के पीछे गीता कि इसी धारणा का प्रभाव है। इसलिए सगुण धारा के कवियों ने अपनी भक्ति का आलंबन किसी न किसी अवतार (राम और कृष्ण) को बनाया है।  

      5. गुरू की महिमा- सगुण भक्तों के यहां भी निर्गुण संतों और सूफियों के समान गुरु का अत्यंत महत्त्व है। इस साहित्य में गुरु ब्रह्म का प्रतिनिधि और अंश है।

              गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
            गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||

      सगुण साहित्यकारों ने संसार की सब वस्तुओं से गुरु को उच्चतम माना है और उसकी महत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सूर और तुलसी का साहित्य इस कथ्य का सुन्दर निदर्शन है। नन्ददास ने बल्लभ को ब्रह्म के रूप में ग्रहण किया है। इनका विश्वास है कि गुरु के बिना ज्ञान असंभव है और ज्ञानाभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान से भक्ति और भक्ति से उसका सायुज्य (एकरूपता) प्राप्त होता है।

      6. लीला रहस्य- सगुण काव्य में लीलावाद का अत्यंत महत्त्व है। चाहे तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम हों या सूर के ब्रजराज दोनों ही लीलाकारी हैं। तुलसी के लोकरक्षक राम रावण का संहार करते हैं। तुलसी के लिए समस्त रामचरित लीलामय है। कृष्ण एक ओर लीला करते समस्त गोपीयों  के साथ रासलीला करते हैं वहीं दूसरी ओर अधासुर एवं बकासुर राक्षसों का बध कर देते हैं। सच तो यह है कि सगुण भक्ति लीला में सच्चिदानन्द स्वरूप देखता है।

      7. भक्ति क्षेत्र में जाति भेद की अमान्यता-  सगुण भक्त कवियों तथा आचार्यों ने भक्ति के क्षेत्र में जाति-पाति का बंधन स्वीकार नहीं किया। यद्यपि कर्म-क्षेत्र में इन सबने वर्णाश्रम व्यवस्था पर बल दिया है। भगवद्भक्ति क्षेत्र में किसी के शूद्र होने के नाते उसे भक्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया। सगुण भक्ति-साहित्य में भक्ति क्षेत्र में कबीर का कथन मान्य है-

      “जाति-पांति पूछे नहि कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”

8. भक्ति का विशिष्ट स्वरुप-

सगुण भक्ति दो प्रकार की होती है- 1.रागानुगा भक्ति 2. वैधी भक्ति

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “कर्तव्य बुद्धि से जो नियम स्थिर किये जाते है उसे विधि कहते है और स्वाभाविक रूचि से जो वृति उतेजित होती है उसे राग कहते है।” रागानुगा भक्ति में ईश्वर के प्रति तन्मयत और अनुराग का आधिक्य होता है जबकि वैधी भक्ति में शास्त्रों के विधि निषेध का पालन करना पड़ता है।

कृष्ण भक्त कवि मानते थे कि ब्रज के लोगों की कृष्णा के प्रति रागात्मिक भक्ति है लेकिन अब यह भक्ति संभव नहीं है। हम केवल उनका अनुकरण कर सकते है। रागात्मिक भक्ति का अनुकरण होने के कारण इसे रागानुगा भक्ति कहते है।

तुलसीदास की भक्ति वैधी भक्ति है। वैधी भक्ति ईश्वर के ऐश्वर्य रूप का गायन करती है अथार्त उसके स्वामी होने का श्रेष्ठतम का भाव व्यक्त किया जाता है। तुलसीदास अपने इष्ट को अपना स्वामी मानते है और स्वयं को उनका दास। इसलिए तुलसी की भक्ति दास्य भाव की भक्ति कही जाती है।

रागानुगा भक्ति ईश्वर कि सांख्यभाव से की जाती है। सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों की भक्ति इसी कोटि में आती है। वे ईश्वर के माधुर्य रूप का गायन करते है। यही इनकी भक्ति की विशिष्टता है।

सूरदास और तुलसीदास के विभिन्न भक्ति साहित्य का विश्लेषण –

      हिंदी साहित्य के भक्ति काल में कृष्ण काव्य धारा के अधिष्ठाता सूरदास हैं, तो राम काव्य धारा के अधिष्ठाता तुलसीदास। इन दोनों विभूतियों का जन्म भारत की परतंत्र भूमि पर हुआ। जब हम सभी भारतीय परतंत्रता की भीषण यातनाओं में साँस ले रहे थे। हिन्दू जनता अपना उत्साह, उमंग, बल स्वाभिमान सभी कुछ भुला चुकी थी। देवी-देवताओं पर से भी उनका विश्वास टूट रहा था। ऐसी विषम परिस्थिति में सूरदास ने अपने कृष्ण के चरित्र और तुलसीदास ने अपने राम के चरित्र द्वारा लोगों के जीवन में एक नये ऊर्जा का संचार किया। सूर और तुलसी दोनों ही हिंदी काव्य के सूर्य और चंद्र हैं। इस दोनों संत कवियों ने समान रूप से हिंदी काव्य के भंडार को भरने तथा अजेय बनाने में अपना विशेष योगदान दिया है। ये दोनों कवि अपने क्षेत्र में समान महत्व रखते हैं।

      हिंदी साहित्य में सूर और तुलसी दोनों की रचनाओं पर हिंदी जगत को नाज है। ये दोनों भक्त अपने अराध्य के प्रति आत्म-समर्पित थे। सूरदास के अराध्य लोकरक्षक कृष्ण थे और तुलसी के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे सूर ने अपने अराध्य के बाल लीलाओं का मधुर गायन किया है तो तुलसी दास्य भाव से लोकरंजक विविध रूपों की मनोहारी छटा का निरूपण किया है। वस्तुतः दोनों कवियों में कौन श्रेष्ठ है, यह निर्णय लेना कठिन है क्योंकि दोनों कवि अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम और अद्वितीय हैं।

सूर वात्सल्य के कवि है और तुलसी रस सम्राट के कवि –

      सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य श्रृंगाररस को अधिक महत्व दिया है हिदी साहित्य में वात्सल्य और श्रृंगार का जैसा सजीव और मार्मिक चित्रण सूरदास ने किया है वैसा अन्य कोई भी कवि नहीं कर सका है। सूर वात्सल्य रस के सम्राट कवि हैं। तुलसीदास अपने काव्य में किसी विशेष रस को लेकर नहीं चले हैं। उन्होंने अपने काव्य में समस्त रसों को समान महत्व दिया है यही कारण है कि उन्हें रस सम्राट कहा गया है।  

सूरदास की अपेक्षा तुलसीदास में भावों की अधिक विविधता

      सूरदास जी ने मानव प्रकृति के प्रेम पक्ष पर अधिक बल दिया है, यही कारण है कि उन्होंने अपने काव्य में केवल अपने अराध्य देव के सौंदर्य का वर्णन किया है। जबकि तुलसीदास जी ने मानव जीवन के विविध भावों का चित्रण अपने काव्य में व्यापक रूप से किया है। उनके काव्य में पितृभक्ति मातृप्रेम, पतिव्रत धर्म, राजा-प्रजा का संबंध इर्ष्या, वीरता, क्रोध, व्यंग्य, त्याग, मित्रता आदि अनेक भावों का चित्रण मिलता है। भावों की यह विविधता सूर के काव्य में नहीं मिलता है।   

सूरदास केवल भक्त कवि है और तुलसीदास लोकनायक कवि

      सूर और तुलसी दोनों ने सगुन भक्ति को अपनाया परन्तु उन्होंने भ्रमरगीत में निर्गुण भक्ति का तीव्र शब्दों में खंडन किया है। तुलसीदास ने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे लोकहित और लोककल्याण की भावना को साथ लेकर चले थे। तुलसीदास ने अपने समय में समाज में फैली वैमनस्य की भावना को दूर करने के लिए समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया।

व्यापकता की दृष्टि से सूरदास तुलसीदास से आगे –

      सूरदास का काव्य व्यापकता की दृष्टि से तुलसीदास की अपेक्षा सीमित है। सूर का काव्य केवल साहित्यिक, संगीतज्ञों और भक्तों तक ही अपना क्षेत्र बना सका है। जबकि तुलसीदास कृत महाकाव्य रामचरितमानस हिन्दू जनता का कंठहार है।

उक्ति वैचित्र्य और अलंकार की दृष्टि में अंतर

      सूर के काव्य में तुलसी की अपेक्षा उक्ति वैचित्र्य और वाग्विदाग्धता की प्रधानता है। तुलसी के काव्य में भी यत्र-तत्र अनूठी उक्तियों का प्रयोग मिलता है। सूरदास ने जहाँ अपने काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का सजीव वर्णन किया है वहीं तुलसीदास जी ने पर्ययोक्ति, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग बड़ी ही कुशलता से किया है।

भाषा की दृष्टि से अंतर

      सूरदास जी ने अपने काव्य की रचना ब्रज भाषा में किया है और तुलसीदास जी ब्रज एवं अवधी दोनों भाषाओं पर सामान अधिकार रखते थे।

शैली की दृष्टि से अंतर

      सूरदास जी ने अपनी काव्य रचना में केवल गीत, पद तथा दोहा शैली को अपनाया वहीं तुलसीदास जी ने अपने समय के प्रचलित समस्त शैलियों का प्रयोग अपने काव्य में किया। उन्होंने मुख्य रूप से अपने काव्य में दोहा, चौपाई, छप्पय, गीत, सवैया आदि को स्थान दिया। सूरदास जी ने केवल मुक्तक काव्य की रचना की। तुलसीदास जी ने प्रबंध और मुक्तक दोनों तरह के काव्य रचना की।     

प्रकृति चित्रण की दृष्टि से अंतर

      प्रकृति चित्रण की दृष्टि से दोनों ने अपने काव्य में प्रकृति के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। सूरदास जी ने उद्दीपन रूप का चित्रण किया है। उनकी प्रकृति का मनोहर रूप जलाने का कार्य करता है। जबकि तुलसीदास ने अपने काव्य में प्रकृति के आलंबन रूप में बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है।

रस निरूपण की दृष्टि से

      वात्सल्य और श्रृंगार रस के निरूपण में सूरदास, तुलसी से अधिक श्रेष्ठ है तुलसी के अराध्य लोक रक्षक एवं मर्यादावादी है। वे धरती पर लोक-धर्म की रक्षा के लिए अवतरित हुए है। इसलिए उनमे श्रृंगार रस का समावेश अधिक नहीं है। सूरदास के अराध्य कृष्ण संसार को आनंदमयी बनाने के लिए अवतार लिए हैं। उन्होंने अपनी बाल-लीलाओं और यौवन-क्रीडाओं से दुखी जीवन को क्षण भर के लिए आनंदमयी बना दिया। यही कारण है कि बाल लीला एवं श्रृंगार के वर्णन में सूर अधिक सफल हुए हैं।

      उदाहरण- “हरि जू की बाल छवि कहौं वरनि सकल सुख कि सींव,

                  कोटि-मनोज-शोभा हरनि” (सूरसागर)

      आचार्य शुक्ल का कथन है कि- श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक सूर की दृष्टि पहुँची, वहाँ तक किसी और कवि की नहीं। सूर के गीत से प्रभावित होकर तुलसीदास जी ने ‘गीतावली’ में बाल-लीला का वर्णन बहुत कुछ सूरदास कृष्ण के समान किया है।

उदाहरण- “रघुवीर बाल छवि कहीं वरनि सकल सुख की सींव,

             कोटि मनिज शोभा हरनि।” (गीतावली)

इसी तरह यशोदा और कौशल्या के पुत्र वियोग की मनःस्थिति का वर्णन दोनों कवियों ने किया है। अंतर सिर्फ इतना है कि यशोदा कृष्ण के अभाव में गायों कि दशा के लिए चिंतित हैं।

उदाहरण- “ऊधो इतनी कहियो जाय अति कृसगात भई हैं तुम बिनु परस दुकादी गाय”। (सूरसागर)

जबकि कौशल्या राम के अभाव में घोड़ों की दशा से चिंतित है।

      उदाहरण- “राधी फिर  एक बार आवौ ये वर वाजि वीलोकी आपने बाहरी बनहिं सिधावी।” (कवितावली)

      सूर ने बाल कृष्ण के साथ-साथ उनके साथ रहने वालों ग्वालों, माता यशोदा तथा नंद के मृदुल ह्रदय का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, जो तुलसी के कृत्यों में नहिं दिखाई देता है। तुलसी के बालक राम बालकों के साथ खेलते तो अवश्य है परन्तु कृष्ण की तरह वे अपने सखाओं से मिल नहीं पाते है। इस तरह तुलसी के बाल चरित के ढंग इतने सरल, स्वाभाविक और सुहावने नहीं हैं जितने सूरदास के हैं।

      उदाहरण- “मैया मोहे दाऊ बहुत खिझायो। मोको कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो     

निष्कर्ष- दोनों कवि अपने-अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं एक सूर्य है तो दूसरा चंद्र। केशवदास के शब्दों में- “सूर-सूर तुलसी ससी’

      सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के कवि हैं। बाल-जीवन का पर्यवेक्षण एवं चित्रण महान सहदय और मानव प्रेमी व्यक्ति ही कर सकता है। सूरदास ने वात्सल्य और श्रृंगार का वर्णन लोक सामान्य की भाव-भूमि पर किया है। तुलसी की अपेक्षा सूर का विषय-क्षेत्र सीमित अवश्य है, किंतु सूर ने राधाकृष्ण की प्रेम-लीला और कृष्ण की बाल-लीला को प्रकृति और कर्म के विशद् क्षेत्र का संदर्भ प्रदान कर दिया है। लोक-साहित्य में यह संदर्भ सहज तौर पर जुड़ा दिखलाई पड़ता है। लोक-साहित्य की सहज जीवंतता जितनी सूर के साहित्य में मिलती है, उतनी हिंदी के किसी कवि में नहीं मिलती है।

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