क्षेमेन्द्र : (समय 11वीं शताब्दी) ये काशी के निवासी थे।
रचना – ‘औचित्यविचार चर्चा’
* क्षेमेन्द्र आचार्य अभिनवगुप्त के शिष्य थे।
* क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्यविचार चर्चा’ में ‘औचित्य’ को काव्य की ‘आत्मा’ मानकर काव्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों के बीच एक समन्वयकारी औचित्य सिद्धांत का स्थापना किया है।
* इन्हें ‘समन्वयकारी आचार्य’ भी कहा जाता है।
* आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य का अर्थ है काव्य में सभी अंगों का उचित प्रयोग करना अथार्त रस, ध्वनि, अलंकार और रीति की उचित प्रस्तुति। औचित्य के अभाव में ये सभी तत्व व्यर्थ है।
भारतमुनि ने नाट्यशास्त्र में औचित्य का आधार लोक की रूचि, प्रवृति और रूप को मानते हुए लिखा है कि – “जो लोक सिद्ध है वह सब अर्थों में सिद्ध है और नाट्य का जन्म लोक-स्वभाव से हुआ है अतः नाट्य प्रयोग में लोक ही प्रमाण है”।
उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया कि जैसा पात्र हो, उसी के अनुरूप उसकी भाषा, वेश चरित्र आदि होनी चाहिए। उदाहरण –
वयोsनरुपः प्रथमवस्तु वेषः
वेषानुरुपश्य गति-प्रचारः
गति-प्रचारानुगतं च पाठ्यं
पाठ्यानुरूपोsभिनयश्च कार्यः
अथार्त वय (अवस्था) के अनुरूप वेश होना चाहिए, वेष के अनुरूप गति, गति के अनुरूप पाठ्य तथा पाठ्य के अनुरूप अभिनय होना चाहिए।’ इस प्रकार भरतमुनि ने स्वाभाविक रूप में औचित्य का प्रतिपादन किया किन्तु उन्होंने ‘औचित्य’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
आचार्य क्षेमेन्द्र के ‘औचित्य’ को ‘रस’ का मूल आधार मानते हुए कहा है – “अलंकारास्त्वलंकारा: गुणाः एव गुणाः सदा।
औचित्य रससिद्धस्य स्थिरं कावस्य जीवितम्।”
अथार्त अलंकार तो सदैव अलंकार रहते हैं, गुण भी सदैव गुण ही रहते हैं किंतु ‘रससिद्धि’ काव्य को जीवित (प्राण-तत्व) मानते हैं।
* औचित्य पर बल देकर क्षेमेन्द्र ने काव्य को जीवन मूल्यों के निकट ला दिया है क्योंकि औचित्य जीवन को स्वस्थ, सुंदर और सामंजस्यपूर्ण बनाता है।
* क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्य’ के 27 भेदों का उल्लेख किया है –
पद, वाक्य, प्रबंधार्थ, गुण, अलंकार, रस, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात, काल, देश, कुल, व्रत, तत्व, सत्व, अभिप्राय, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, विचार, नाम तथा आशीर्वाद।
भामह के अनुसार – “लोकस्वभाव की अनुकूलता से रस की सृष्टि होती है”
काव्यशास्त्र में सबसे पहले औचित्य शब्द का प्रयोग कन्नौज नरेश यशोवर्मन ने अपने नाटक रामाभ्युदय में किया था”
आनंदवर्धन के अनुसार – “जहाँ कहीं भी रस का अभिनिवेश है वहाँ औचित्य का पालन करना अनिवार्य है”
आनंदवर्धन ने औचित्य के छः प्रकारों का उल्लेख किया है-
रसौचित्य, अलंकारौचित्य, गुणौचित्य, संघटनौचित्य, प्रबंधौचित्य, रीत्यौचित्य।
आनंदवर्धन ने औचित्य की तुलना में ध्वनि को ही अधिक महत्व दिया है।
वक्रोक्ति संप्रदाय के संस्थापक आचार्य कुंतक ने भी औचित्य सिद्धांत के महत्व को स्वीकार किया है।
आचार्य कुंतक ने ‘वक्रोक्ति काव्यजीवितम्’ में दो प्रकार के औचित्य की व्याख्या दिए हैं-
1. वस्तु के स्वस्थ और सम्यक स्पष्टीकरण के रूप में
2. श्रोता के स्वभाव के अनुसार वस्तु वर्णन के रूप में
आचार्य मम्मट के अनुसार– “औचित्य का काव्य में केवल उसके गुण-दोष के स्वरुप का ही पहचान की जा सकती है। इससे अधिक इसे किसी विशिष्ट काव्य पहचान के रूप में महत्व नहीं दिया जा सकता है।”
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार – “औचित्य मात्र काव्य के गुण-दोष को स्थापित कर सकता है उस काव्य का जीवन या प्राण मनना समीचीन नहीं है।”
पंडितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि अनौचित को रस-भंग का कारण माना जा सकता है।
हिंदी साहित्य में रीतिकाल के आचार्यों में केशवदास, चिंतामणि, कुलपति मिश्र, भिखारीदास आदि आचार्यों ने औचित्य सिद्धांत की चर्चा अभिधार्थ निर्णय के कसौटी के रूप में किया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ नगेंद्र ने एक तरफ औचित्य सिद्धांत का उल्लेख रस, ध्वनि एवं वक्रोक्ति के रूप में किया है तो दूसरी तरफ सामाजिक एवं आधुनिक संदर्भो में औचित्य की समीक्षा की है।