नाम – टी. एस. इलियट
पूरानाम – थॉमस / टॉमस सतरं इलियट
जन्म – 1888 ई. सेंत लुईस (अमेरिका), 1927 ई. में ब्रिटिस नागरिकता प्राप्त
निधन – 1965 ई. लंदन में हुआ
टी. एस. इलियट – दर्शनशास्त्री, निबंधकार, नाटककार, आलोचक, कवि थे। इन्हें आधुनिक आलोचक का ‘मसीहा’ भी कहा जाता है।
इन्हें ‘द वेस्ट लैंड’ (1922 ई.) के लिए 1948 ई. में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला
आलोचनात्मक काव्य रचनाएँ:
> ‘प्रफ्रूॉक ऐंड अदर आब्जॅरवेशंस’ (1917 ई.) में प्रकाशित हुआ।
> ‘द वेस्टलैंड‘ (1922 ई.) में प्रकाशित हुआ। यह रचना अंग्रेजी में है। इसमें 434 पंक्तियाँ है। यह पुस्तक संस्कृत के ओम शांति ओम शांति (ॐ) मन्त्र से समाप्त हुआ है। इसी पुस्तक के लिए इन्हें नोबल पुरस्कार मिला था।
> ‘द सिक्रेट वुड’ (1920 ई.)
> ‘होमेज टु जॉन ड्राइडन’ (1924 ई.)
> ‘एलिजावेथेन ऐसेज’ (1932 ई.)
> ‘द यूज ऑफ पोएट्री एंड मार्डन एंड द यूज ऑफ क्रिटिसिज्म’ (1933 ई.)
> ‘ऐसेज एशेंट एंड मार्डन’ (1936 ई.)
> ‘नोले एंड एक्सपीरियंस’ (1937 ई.)
> ‘फ़ोर क्वार्टेट्स’ (1944 ई.)
> ‘द यूज आन पोएट्री ऐंड पोएट्स’ (1958 ई.)
महत्वपूर्ण नाटक: इन्होंने निम्नलिखित 5 नाटक लिखे –
> ‘मर्डर इन द कैथीड्रल’ (1935 ई.)
> ‘फैमिली रियूनियन’ (1937 ई. )
> ‘द काकटेल पार्टी’ (1950 ई.)
> ‘द कान्फ़िडेंशल क्लाक’ (1955 ई.)
> ‘द एल्डर स्टेट्समैन’ (1958 ई.)
ये सभी नाटक पद्य में लिखे गए हैं, एवं रंगमचं पर लोकप्रिय हुए हैं।
‘मर्डर इन द कैथीड्रल’ पर फ़िल्म भी बन चुकी है।
टी. एस. इलियट के प्रमुख सिद्धांत:
1. नर्वैक्तिकता का सिद्धांत
2. परंपरा की परिकल्पना का सिद्धांत
3. वस्तुनिष्ट समीकरण का सिद्धांत
1. निर्वैक्तिकता का सिद्धांत (व्यक्तिवादिता)
इस सिद्धांत का प्रतिपादन इलियट ने साहित्य में बढ़ती हुई अति वैक्तिवादिता के विरोध में किया था।
परिभाषा – “साहित्य व अन्य कलाएँ किसी व्यक्ति विशेष की पूँजी नहीं है, उनमे व्यक्त भाव एवं विचार सार्वजनिक एवं सार्वभौमिक होते है।”
‘इलियट’ का निर्वैयक्तिकता के सिद्धांत का प्रतिपादन रोमैंटिक कवियों की व्यक्तिवादिता के विरोध में हुआ। इलियट, एजरा पाउण्ड के विचारों से काफी प्रभावित थे। एजरा पाउण्ड की मान्यता थी कि कवि वैज्ञानिक के समान ही निर्वैयक्तिक और वस्तुनिष्ठ होता है। कवि का कार्य आत्मनिरपेक्ष होता है। इलियट अनेकता में एकता को एकता में बाँधने के लिए परंपरा को आवश्यक मानते थे, जो वैयक्तिकता का विरोधी है। वे साहित्य के जीवंत विकास के लिए परंपरा का योग स्वीकार करते थे, जिसके कारण साहित्य में आत्मनिष्ठ तत्व नियंत्रित और वस्तुनिष्ठ प्रमुख हो जाता है।
इलियट ने वस्तुनिष्ठ साहित्य को महत्व दिया तथा कला को निर्वैक्तिक घोषित किया
इलियट का प्रारंभिक विचार था- ‘कविता उत्पन्न नहीं की जाती अपितु उत्पन्न हो जाती है।’
किन्तु, बाद में उन्होंने अपने विचार को बदलते हुए कहा – “मैं उस समय अपनी बात ठीक ढ़ंग से व्यक्त नहीं कर सका था।”
इलियट के निर्वैक्तिता सिद्धांत की मान्यताएँ:
> कवि, वैज्ञानिक के सामान निर्वैक्तिक और वस्तुनिष्ट होता है।
> कवि व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं अपितु उससे पलायन है।
> निर्वैक्तिता का अर्थ है, रचनाकार के भावों एवं विचारों का समानीकरण होना।
> कवि का व्यक्तिगत भाव सार्वभौमिक होकर काव्य में व्यक्त होता है।
निर्वैक्तिकता के दो रूप है- (i) प्राकृतिक निर्वैक्तिकता (ii) विशिष्ट निर्वैक्तिकता
(i) प्राकृतिक निर्वैक्तिकता – जो प्रकृति के नियमों के संदर्भ में होती है। उसे प्राकृतिक निर्वैक्तिकता कहते हैं जैसे- हवा, पानी, धुप, मानवता आदि का भाव।
(ii) विशिष्ट निर्वैक्तिकता – कवि का वह विशेष विचार जो किसी समस्या पर केंद्रित हो तथा बाद में वे सभी का विचार बन जाएँ वे विशिष्ट निर्वैक्तिकता कहलाती है।
काव्य का कवि के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं होता है
कवि एवं कलाकृति दोनों परस्पर प्रभावित होते है
कविता के तीन स्वर होते हैं – (i) प्रथम स्वर (ii) द्वितीय स्वर (iii) तृतीय स्वर
(i) प्रथम स्वर- प्रथम स्वर में कवि औरों से नहीं स्वयं से बातें करता है।
(ii) द्वितीय स्वर- दूसरे स्वर में वह श्रोताओं से बातें करता है।
(iii) तृतीय स्वर – तीसरे स्वर में वह सार्भौमिक बातें करता है।
निर्वेयक्तिकता सिद्धांत की आलोचना:
डॉ भागीरथ मिश्र के अनुसार – “टी. एस. इलियट का निर्वेयक्तिकता सिद्धांत भारतीय रस सिद्धांत के साधारणीकरण को समेटे हुए है।
रामचंद्र तिवारी के अनुसार – “इलियट ने निर्वेयक्तिकता सिद्धांत में आत्मनिष्ठ साहित्य के स्थान पर वस्तुनिष्ठ साहित्य पर बल दिया है।”
इलियट का परंपरा/परिकल्पना की अवधारणा का सिद्धांत:
आलोचना के सन्दर्भ में इलियट ने 1918 ई. में अपने प्रसिद्ध लेख – ‘ट्रेडिसन एंड दी इंडिविजुअल टेलेंट. में परंपरा की परिकल्पना का सिद्धांत दिया है।
यह लेख ‘दि सेक्रेट वुड’ (1920 ई.) रचना में संकलित है।
इस लेख के तीन भाग हैं –
1. प्रथम भाग में परंपरा की व्याख्या है।
2. द्वितीय भाग में ईमानदार आलोचना तथा संवेदनशील प्रशंसा का वर्णन है।
3. तृतीय भाग सारांश के रूप में है।
परंपरा की परिभाषाएँ:
इलियट के अनुसार – “परंपरा एक वृहत्तर प्रयोग की वस्तु है। इसमें सबसे पहले इतिहास बोध शामिल होता है, इतिहास में एक दृष्टि निहित होती है जिसके माध्यम से वर्तमान को सुखद बनाया जा सकता है।”
श्यामाचरण दूबे के अनुसार – “परंपरा संस्कृति का वह भाग है जिसमे भूतकाल से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य तक निरंतरता बनी रहती है।”
परंपरा की उपयोगिता:
> परंपरा से इतिहास का बोध होता है।
> परंपरा से अतीत की सांस्कृतिक विकास की रूपरेखा को समझा जा सकता है।
> परंपरा हमारे ह्रदय में जाति, समाज, देश, साहित्य के प्रति लगाव की भावना उत्पन्न करती है।
इलियट की परंपरा विषयक मान्यताएँ:
> कोई भी रचनाकार या कलाकार अपनी परंपरा से अलग हटकर रचना नहीं कर सकता है।
> परंपरा रचनाकार की सोच को प्रभावित करती है।
> प्रत्येक युग का साहित्य अपनी परंपराओं से प्रभावित रहता है।
> परंपरा मूल्यांकन में तुलनात्मक दृष्टिकोण का सृजन निर्माण करती है।
> किसी भी कलाकृति या कृतिकार का मूल्यांकन केवल रचनाकार या कृति के स्तर पर नहीं किया जा सकता है। परंपरा का सहारा उसे लेना ही पड़ता है।
> कवि को अतीत अथार्त परंपरा का ज्ञान होना चाहिए। उसे परंपरा के भार से आक्रांत नहीं होना चाहिए।
> आलोचना परंपरा को जाने बिना असंभव है।
> कलकार अपनी प्रतिभा से परंपरा को प्रभावित कर नवीन रूप देने में सक्षम रहत है।
> परंपरा के द्वारा उसे यह पता चलता है, कि क्या करना और क्या नहीं करना है।
> इलियट का स्पष्ट कहना है कि कवि की मौलिकता इस बात से है कि वह अतीत को वर्तमान के संदर्भ में देखे। कवि कला और काव्य की प्रमुख धारा का निर्वाह करे, क्योंकि पूर्ववर्ती काव्यधाराओं से परिचित होने के कारण कवि का ज्ञान विस्तृत होता है।
कथन:
इलियट के अनुसार- “आलोचना साँस की तरह अनिवार्य एवं नैसर्गिक क्रिया है”
इलियट के अनुसार – “कविता कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से पलायन है।”