- ‘छायावाद’ हिन्दी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की काव्यधारा है। जिसका समय लगभग 1918 – 1936 ई० तक चला।
- इस काव्यधरा के प्रतिनिधि कवि जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा को माना जाता है।
- छायावाद के नामकरण का श्रेय मुकुटधर पांडेय को जाता है।
- ‘छायावाद’ ने हिन्दी में ‘खड़ीबोली’ कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया।
- इसे साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्ण युग कहा जाता है।
डॉ नगेन्द्र के अनुसार– छायावाद का समय 1918–1938 ई० तक माना है। इसके दो कारण थे। (1918 ई० में ‘झरना’ का प्रकाशन हुआ और 1937 ई० में जयशंकर प्रसाद का निधन)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- छायावाद का समय 1918-1936 ई० माना है। 1918 ई० में ‘झरना’ का प्रकाशन हुआ था। 1936 ई० में पंत की ‘युगांत’ रचना का प्रकाशन हुआ था। उन्होंने कहा था, कि मैं छायावाद के युग की अंत की घोषणा करता हूँ। पंत ने इसकी भूमिका में लिखा था।
1936 ई० में प्रगतिशील लेखक संघ की प्रथम अधिवेशन मुंशी प्रेमचंद के अध्यक्षता में हुई थी। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी भी यही समय मानती है।
1918 – 1936 ई० (सर्वमान्य है)
छायावाद का नामकरण:
छायावाद का नामकरण मुकुटधर पांडेय ने (प्रथम प्रयुक्ता) व्यंग्य के रूप में किया था। 1920 ई० में इन्होने ‘श्री शारदा पत्रिका’ में एक लेख लिखा था ‘हिन्दी छायावाद’
मुकुटधर पांडेय ने इस निबंध में लिखा था- “मेरी समझ में नई शैली की कविताओं में भाव में नहीं अपितु भावों की छाया मात्र प्रतीत होती है, जिन्हें पकड़कर पाठक को हृदयंगम करने में कठिनाई होती है। अतः मैने नई शैली की कविता के लिए ‘छायावाद’ शब्द का प्रयोग के लिए किया है।”
सुशील कुमार (दूसरे प्रयुक्ता) – इन्होने ‘हिन्दी में छायावाद’ निबंध (1921 ई०) लिखा जो ‘भारत पत्रिक में प्रकाशित हुआ था। “ छायावाद एक अस्पष्टतावाद है, जिसमे भाव या सर क्या? अपितु इसकी छाया भी नहीं है।”
छायावाद की परिभाषा विभिन्न विद्वानों के अनुसार:
डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में- “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है वर्णन की विशिष्ट भावनात्मक पद्धति है तथा जीवन के प्रति विशिष्ट भावात्मक दृष्टिकोण है।”
डॉ रामकुमार वर्मा के शब्दों में– “जब आत्मा की छाया परमात्मा पर तथा परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है तब छायावाद की सृष्टि होती है।”
जयशंकर प्रसाद के शब्दों में– “जब साहत्य में वेदन के आधार पर स्वानुभूति अभिव्यक्त होने लगती है तो हिन्दी में इसे छायावाद के नाम से अभिहित (संबोधित) किया गया।”
जयशंकर प्रसाद के शब्दों में– “भावों को स्पष्ट रूप में सार्वाधिक न कर छाया रूप में प्रस्तुत करना ही छायावाद है।”
सूर्यकांत निराला के शब्दों में- “छायावाद कोई विचारधारा नहीं है अपितु वास्तविक अनुभूति को रहस्य के रूप में प्रकट करने की एक कला है”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “छायावाद शब्द को दो अर्थों में समझना चाहिए। एक रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा वर्णन की शैली के विशेष आधार पर। यहाँ भाव स्पष्ट रूप में न होकर रहस्य युक्त में थे तथा उनके वर्णन में प्रतीकात्मकशैली को अपनाया गया है”
नंददुलारे वाजपेयी के शब्दों में- “छ्यावाद एक शैली विशिष्ट है जिसमे नया कुछ भी नहीं है बस परम्पराओं को तिदकर तथा बने बनाये साँचे में रचनाएँ न कर नीजी अनुभूति को वक्त किया गया है जो दिवेदी युग में दबकर रह गयी।”
महादेवी वर्मा के शब्दों में- “छायावाद तत्वतः प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीत है, जिसका मूल सर्वात्मवाद है।”
बाबु गुलाबराय के शब्दों में- “इन्होने छायावाद और रहस्यवाद में कोई भेद नहीं मानते हुए कहा है “छायावाद और रहस्यवाद दोनों ही मानव और प्रकृति का एक आध्यात्मिक आधार बताकर एकात्मवाद की पुष्टि किया है।”
आचार्य गणपति चंद्र गुप्त के शब्दों में– इन्होने 1946 ई० में एक निबंध लिखा “ छायावाद और उसके रचनाकार” और परिभाषा दिया- “छायावाद यथार्त के विरुद्ध, कल्पना बुद्धि के विरुद्ध भावात्मक, वैयक्तिकता के विरुद्ध सर्वात्मवाद का आंदोलन है।”
छायावाद के प्रवर्तक:
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने- मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पांडेय को ‘छायावाद’ का प्रवर्तक माना है।
प्रभाकर माचवे और विनयमोहन शर्मा ने- माखनलाल चतुर्वेदी को ‘छायावाद’ का प्रवर्तक माना है।
नंददुलारे वाजपेयी ने- सुमित्रानंदन पंत को ‘छायावाद’ का प्रवर्तक माना है
इलाचंद्र जोशी और गंपतिचंद्र गुप्त ने- जयशंकर प्रसाद को छ्यावाद का प्रवर्तक माना है। (यह सर्वमान्य मत है)
छायावाद को विभिन्न अर्थों में विद्वानों के द्वारा दिए गए नाम:
- मुकुटधर पांडेय- ‘रहस्यवाद’
- आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी- ‘अन्योक्तिवाद’ / अन्योक्ति पद्धति
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल- रहस्यवाद, मधुचर्या, शैली वैचित्र्य, चित्रभाषाशैली अभिव्यंजना का विलायती संस्करण।
- आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी- ‘व्यंग्यार्थ’ प्रधान शैली
- सुशील कुमार- ‘अस्पष्टतावाद’
- डॉ बच्चन सिंह, गंपतिचंद्र गुप्त- ‘स्वच्छंदतावाद’
- सुमित्रानंदन पंत- ‘सौंदर्य की छाया’
- जयशंकर प्रसाद- कांति
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला- ‘विशेषभावाभिव्यक्ति’
- महादेवी वर्मा- ‘स्वानुभूति’ का चित्रण
- छायावाद के वृहद्त्रयी और लघुत्रयी:
- वृहद्त्रयी- नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार- (इसमें तीन बड़े कवि) प्रसाद, पंत और निराला।
- लघुत्रयी- (इसमें तीन छोटे कवि) डॉ० रामकुमार वर्मा, महादेवी वर्मा और भगवतीचरण वर्मा। गणपति चंद्र वर्मा और सुमन ने माखनलाल चतुर्वेदी को लघुत्रयी में शामिल किया गया।
छायावाद के आधार स्तंभ:
डॉ० कृष्णदेव झारीभाव के अनुसार– “हिन्दी की नई भावधारा” उन्होंने प्रसाद को ब्रहमा, पंत को विष्णु, निराला को महेश और महादेवी को शक्ति कहा है।”
प्रसाद (ब्रहमा) प्रत्यभिज्ञावाद, आनंदवाद, समरसता वाद
पंत (विष्णु) मानवतावादी, अरविंद दर्शन
निराला (महेश) अद्वैतवादी
महादेवी (शक्ति) बौद्धदर्शन
हिन्दी में छायावाद का आगमन कैसे हुआ:
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचर्य रामचन्द्र शुल्क, गंपतिचंद्र गुप्त, सुमन राजे, डॉ बच्चन सिंह ने बांग्ला भाषा के रविन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं से प्रभावित बताया है। 1798 ई० में कॉलरिज, वर्ड्सवर्थ ने लिरिकल बैलेड्स लिखे इसे पाश्चात्य साहित्य में रोमांटिसिज्म से हिन्दी में छायावाद का आगमन बताया है।
छायावाद के विशेष तथ्य:
- सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद को ‘पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म’ से प्रभावित है
- ‘जागरण’ पत्रिका को छायावाद का घोर समर्थक पत्र माना है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद का संबंध ईसाइयों के फैंटमास (छायाभास) से जोड़ा है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘झरना’ (1918 ई०) को ‘छायावाद’ की प्रयोगशाला का प्रथम आविष्कार माना जाता है।
- आचार्य शांतिप्रिय द्विवेदी ने ‘कामायनी’ (1936 ई०) को छायावाद का ‘उपनिषद’ माना है ।
- डॉ० नगेन्द्र ने ‘कामायनी’ को मानव चेतना के विकास का महाकाव्य कहा है।
- गजानन माधव मुक्तिबोध कामायनी को फैंटसी माना है।
- रामधारी सिंह दिनकर ने कामायनी के संदर्भ में दोषरहित- दूषणसहित’ नामक निबंध लिखा है
- पंत द्वारा रचित ‘पल्लव’ की भूमिका को छायावाद का ‘मेनिफेस्टो’ (घोषणापत्र) कहा जाता है।
- पंत की युगांत (1936 ई०) को छायावाद को मृत्यु का ‘घोषणापत्र’ कहा जाता है।
छायावाद के प्रतिनिधि कवि (मुख्य कवि)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल– सुमित्रानंदन पंत को मानते हैं।
अज्ञेय- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को मानते हैं।
गंपतिचंद्र गुप्त– जयशंकर प्रसाद को मानते हैं।
डॉ बच्चन सिंह– महादेवी वर्मा को मानते हैं।
शिवकुमार शर्मा- हरिवंशराय बच्चन को मानते हैं।
छायावाद के प्रमुख रचनाकार:
जयशंकर प्रसाद (1889 – 1937 ई०)
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (1896 – 1961 ई०)
मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ (1899 – 1990 ई०)
सुमित्रानंदन पंत (1900 – 1977 ई०)
जनार्दन प्रसाद झा द्विज (1904 – 1964 ई०)
डॉ० रामकुमार वर्मा (1905 – 1990 ई०)
महादेवी वर्मा (1907 – 1987 ई०)
आर सी प्रसाद सिंह (1911 – 1996 ई०)
जानकी वल्लभ शास्त्री (1916 – 2011 ई०)
उदयशंकर भट्ट (1918 – 1966 ई०)
छायावाद की विशेषताएँ:
सौंदर्यभावना- छायावादी कविता की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति उसकी सौंदर्यानुभूति है। सौंदर्य के संबंध प्रसाद जी ने कहा है-
“उज्जवल वरदान चेतना का सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।”
प्रकृति सौंदर्य- मानव के आतंरिक सौंदर्य का उद्घाटन छायावाद में प्रकृति के माध्यम से किया गया है। पंत जी ने कहा है-“प्रकृति को मैने अपने से अलग, सजीव सत्ता रखनेवाले नारी के रूप में देखा है।” उस फैली हरियाली में कौन अकेली खेल रही, माँ
प्रेम की भावना- प्रेम छायावादी काव्य का प्रधान तत्व है। के पंत ने प्रकृति माया-जाल को किसी बाला के बालजाल से बढ़कर माना है-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया तोड़ प्रकृति से भी माया
बाल तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन
भूल अभी से इस जग को।
नारी प्रेम- छायावादी कवियों के अनुसार नारी प्रेम की मूर्ति है, वह श्रद्धारूपणी है। निराला ने प्रेयसी में प्रेम का आदर्श स्थापित करते हुए लिखा है-
“दोनों हम भिन्न वर्ण, भिन्न जाती, भिन्न रूप
भिन्न धर्म भाव, पर केवल अपनाव से, प्राणों से, एक थे।”(अनामिका) में
छायावादी काव्य में पहली बार नारी के प्रति प्रेम भावना में वासना का कालुष्य दर्शित नहीं होता है-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजतनगपगतल में
तुम पियूष स्त्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।”
मानवतावादी दृष्टिकोण- छायावादी कवियों में रविन्द्रनाथ और अरविंद की मानवतावादी दृष्टि का विकास हुआ है। पंत जी ने नारी को मुक्त करने की इस प्रकार चेतावनी दी है-
“मुक्त करो नारी को मानव चिरबंदनी नारी को
युग-युग की निर्मम कारा से भगिनी, सखी, प्यारी को।”
जीवन की बदलते मूल्यों की अभिव्यक्ति- कामायनी में प्रसाद ने सवेऽपि सुखिन: सन्तु का संदेश दिया है-
“औरों को हँसते देखों मनु हँसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओं।”
रहस्यवादिता- आत्मा और परमात्मा के अद्वैत तत्व को कामायनी में प्रसाद ने व्यक्त किया है-
“नीचे जल था, ऊपर हिम था एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन।”
आत्माभिव्यक्ति- प्रसाद का आँसू आत्माभिव्यक्तिपरक काव्य है। कवि की घनीभूत पीड़ा इसमें साकार हुई है-
“जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई
दुर्दिन में आँसूं बनकर वह आज बरसने आई।”
निराला ने अपने दुःख को इस इस प्रकार व्यक्त किया है-
“दुःख ही जीवन की कथा रही क्या कहूँ आज जो नहीं कही।”
वेदना की अभिव्यक्ति- छायावादी कवियों में वेदना विविध रूपों में प्रकट हुई है। वेदना का साम्राज्य महादेवी के लिए निरापदशरण स्थली है-
“पर शेष नहीं होगी यह मेरे प्राणों की व्रीडा
तुमको पीड़ा में ढूँढा, तुममे ढूँढूँगी पीड़ा।”
विज्ञान का प्रभाव- प्रसाद जी ने कामायनी में शक्ति के संचार का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है और मानवता की विजय की कामना की है-
“शक्ति में विद्दुत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं,
हो निरुपाय समन्वय उसका करे समस्त विजयनी मानवता हो जाए।”
दिनकर के ‘कुरुक्षेत्र’ काव्य में इसी समस्या तथा युद्ध की विभीषिका पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
“सावधान मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार तो उसे फ़ेंक
तजकर मोह स्मृति के पार।”
देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना- व्यक्तिवादी होते हुए भी छायावादी कवि अपने देश की समसामयिक स्थिति से विमुख या उदासीन नहीं थे। उन्होंने भी भारत के स्वर्णिम अतीत और अपनी अनुपम ऐतिहासिक धरोहर को सगर्व स्मरण किया है-
“कहाँ आज वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल भूतियों का दिगंत छवि जाल ज्योति-चुंबित जगती का जाल।” मैं शैली, मुक्तछंद का प्रयोग, प्रतीकों का भरपूर प्रयोग, कोमलकांत पदावली का प्रयोग, छायावाद में भावातिरेक आदि का भी भरपूर प्रयोग किया गया है।
छायावाद पर नोट्स मिल गया 😊👌
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