‘छंद’ शब्द की व्युत्पति छद् (धातु) + अशुन् (प्रत्यय) से हुआ है, जिसका अर्थ होता है, अच्छादित करना, या नियमों से बंधी हुई रचना।
- छंद का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है।
- छंदों की सबसे पहले व्यवस्थित विवेचना ‘पिंगलाचार्य’ के द्वारा की गई थी।
- पिंगलाचार्य की रचना ‘छंद सूत्र’ है।
- इसका समय लगभग 200 ई०पू० माना जाता है।
- इसे ‘छंद शास्त्र’ का आदि ग्रंथ माना जाता है।
- ‘छंदशास्त्र’ को ‘पिंगला शास्त्र’ भी कहा जाता है।
- छंद को वेदों का चरण माना जाता है।
परिभाषा:
सामान्य परिभाषा: जिन काव्य पंक्तियों में गति, यति, लय, तुक, चरण मात्रा या वर्ण की संख्या आदि का ध्यान रखकर शब्द की रचना की जाती है, उस काव्य पंक्ति को छंद कहते हैं।”
कात्यायन के शब्दों में- “यद् अक्षर परिमाण तच्छंद:” अथार्त जहाँ अक्षरों के परिमाण का ध्यान रखा जाए वह काव्य पंक्ति छंद है।
हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार- “छंद अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा गणना, गति यति आदि से संबंधित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना है।”
सुनित्रानंदन पंत के अनुसार– “कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छंद हृत्कम्पन। कविता का स्वभाव ही छंद में लयमान होना है।”
छंद के तत्व:
छंद के निम्नलिखित आठ तत्व है- गति, यति, लय, तुक, चरण, मात्रा, वर्ण और गण।
1.गति- गति अथार्त लय किसी काव्य की पंक्ति को एक श्वास में लय के साथ पढ़ना गति कहलाता है।
2.यति- अथार्त विराम, काव्य पंक्ति को पढ़ते समय रुकने के लिए जिस चिह्न का प्रयोग करते है, उसे यति कहते हैं।
यति के निम्नलिखित तीन भेद होते हैं –
अर्द्ध यति- (,) अर्द्ध यति का प्रयोग हमेशा विषम चरणों के अंत में किया जाता है।
पूर्ण यति- (।) पूर्ण यति का प्रयोग हमेशा सम चरणों के अंत में किया जाता है।
परिपूर्ण यति- (।।) परिपूर्ण यति का प्रयोग छंद की समाप्ति होने पर इसका प्रयोग किया जाता है।
उदाहरण: रहिनम धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटलाय (।) पूर्णयति
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परिजाय (।।) परिपूर्ण यति
3. लय- स्वरों के आरोह अवरोह को लय कहते हैं। ‘मुक्तछंद’ के लिए लय अधिक आवश्यक होता है। (मुक्तछंद का प्रयोग निराला ने सबसे पहले ‘जूही की कली’ कविता में किया था।)
4. चरण या पाद- किसी भी छंद का चतुर्थ हिस्सा चरण या पाद कहलाता है। पहले और तीसरे चरण को ‘विषम’ तथा दूसरे और चौथे चरण को ‘सम’ चरण कहते हैं। किसी भी छंद में न्यूनतम चार चरण अनिवार्य है।
5. तुक- चरणों के अंत में एक समान मात्रा एवं वर्णों की आवृति आना तुक कहलाता है। साधारणतः पाँच मात्राओं का तुक उत्तम माना जाता है।
उदाहरण:
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
(तुक से ही छंद में लय उत्पन्न होता है)
6. वर्ण- लिखित ध्वनि चिह्न वर्ण कहलाते है जैसे- ‘क’ ‘अ’ वर्ण है।
7. मात्रा- वर्णों के उच्चारण में लगने वाला समय मात्रा कहलाता है। मात्रा के आधार पर वर्ण के निम्नलिखित दो भेद है।
लघु (।) और गुरु (s)
अ, इ, उ, ऋ, स्वर युक्त वर्ण ‘लघु’ होते है।
क, कि, कु, कृ, लघु है
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर युक्त वर्ण ‘गुरु’ होते है।
का, की, के गुरु हैं।
अनुस्वार युक्त वर्ण एवं विसर्ग से पहले का वर्ण गुरु माने जाते हैं।
जैसे- कं, पुनः जिसपर अनुस्वार होगा वह गुरु होगा।
चंद्रबिंदु (ँ) अनुनाशिकता से मात्रा पर कोई भी फर्क नहीं पड़ता है।
जैसे- हँसना (। । s ), चाँद (। । ), काँप (s । )
संयुक्ताक्षर से पूर्व आने वाले वर्ण को गुरु माना जाता है। ( क्ष, त्र, ज्ञ, श्र )
जैसे- रक्षा – (क + ष + आ ) पुत्र- (त + र )
आधे से पहले वाले वर्ण को गुरु माना जाता है।
जैसे- राजस्थान (शब्द एक ही शिरोरेखा के अन्दर होना चाहिए अलग शब्द नहीं)
‘न्ह’ ‘म्ह’ और ल्ह, से पहले आने वाला वर्ण में लघु होगा।
जैसे – उन्होंने (। s s ) तुम्हारा ( । s s)
गण- तीन वर्णों का समूह गण कहलाता है। गण के निम्नलिखित आठ भेद हैं। जिन्हें निम्नलिखित सूत्र के माध्यम से ज्ञात किया जा सकता है।
गणों को ज्ञात करने वाला सूत्र: ‘यामाताराजभानस(लगा- दग्धाक्षर है।)
क्र० सं | गण का नाम | मात्राओं का क्रम | उदाहरण |
1. | यगण | । s s | यमाता (हमेशा) |
2. | मगण | s s s | मातारा (पाँचाली) |
3. | तगण | s s । | ताराज (राजेंद्र) |
4. | रगण | s । s | राजभा (वासना) |
5. | जगण | । s । | जभान (नरेश) |
6. | भगण | s । । | भानस (भारत) |
7. | नगण | । । । | नसल (भरम) |
8. | सगण | । । s | सलगा (प्रभुता) |
छंद के भेद: छंद के मुख्य तीन भेद है: मात्रिक छंद, वार्णिक छंद और मुक्त छंद।
मात्रिक छंद
चरणों में मात्राओं की संख्या के आधार पर तीन भेद हैं –
1.सम 2. अर्द्धसम 3. विषम
एक पंक्ति में मात्राओं के संख्या के आधार पर:
1.साधारण (28 तक) 2. दंडक (28 से अधिक)
वार्णिक छंद:
चरणों में वर्णों की संख्या के आधार पर 3 भेद हैं
1. सम 2. अर्द्धसम 3. विषम
पंक्ति में वर्णों की संख्या के आधार पर 2 भेद हैं
1.साधारण (26 तक) 2. दंडक (26 से अधिक)
गणों के क्रम के आधार पर 2 भेद हैं
1.गणबद्ध 2.गणमुक्त
तुक के आधार पर 2 भेद होते हैं
1.तुकांत 2.अतुकांत
1. मात्रिक छंद:
परिभाषा: वह काव्य पंक्ति जिसमे मात्राओं की संख्या को ध्यान में रखकर शब्द योजना की जाती है, उसे मात्रिक छंद कहते हैं।
जैसे- चौपाई, दोहा, रोला, उल्लाला, सोरठा, छप्पय, बरवै आदि।
मात्रिक छंद के भेद:
सम छंद- जिसके सभी चरणों में मात्राओं की संख्या एक समान हो उसे सम छंद कहते है।
जैसे- जय हनुमान ज्ञान गुण सागर
जय कपीस तिहूँ लोक उजागर
अर्द्ध सम- जिसके सम और विषम चरणों में मात्राओं की संख्या अलग-अलग हो उसे अर्द्ध सम छंद कहते है।
जैसे- सबै सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपक देत बुझाय।
विषम छंद- वह मात्रिक छंद जो दो अलग-अलग मात्रिक छंदों के योग से बनता है उसे विषम मात्रिक छंद कहते है।
जैसे- छप्पय- रोला (24) + उल्लला (28)
इसमें पहले चार चरण रोला के और दो चरण उल्लाला के हैं।
कुण्डली – दोहा + रोला
उदाहरण:
नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है
सूर्य चंद्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है
नदियाँ प्रेम प्रवाह है फूल तारे मंडल है
बंदी जन खग वृंद शेष फन सिंहासन है
करते अभिषेक पयोद है बलिहारी उस वेश की
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की
एक पंक्ति में मात्राओं के संख्या के आधार पर:
साधारण मात्रिक छंद- जहाँ एक पंक्ति मात्राओं की संख्या 28 से अधिक नहीं हो उसे साधारण मात्रिक छंद कहते हैं। जैसे- दोहा चौपाई रोला
दंडक मात्रिक छंद- जहाँ एक पंक्ति में मात्राओं की संख्या 28 हो तो उसे ‘ताटक’ छंद कहते हैं।
2. वार्णिक छंद- वह काव्य पंक्ति जिसमे वर्णों की संख्या का ध्यान रखकर शब्द योजना की जाती है उसे वार्णिक छंद कहते है। जैसे- द्रुतविलंबित, मंदाक्रांता, सवैया, कवित्त।
वार्णिक छंद के भेद:
चरणों में वर्णों की संख्या के आधार पर 3 भेद हैं –
सम वार्णिक छंद, अर्द्ध सम वार्णिक छंद और विषम वार्णिक छंद।
सम वार्णिक छंद- वह वार्णिक छंद जिसके सभी चरणों में वर्णों की संख्या एक सामान हो
जैसे- द्रुतविलंबित। द्रुतविलंबित के सभी चरणों में 12-12 वर्ण होते हैं।
उदाहरण:
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित ही चला
तरुशिखा पर थी अवाराजती
कमलिनी कूल पल्लव की प्रभा
(इसके सभी चरणों में 12-12 वर्ण है)
अर्द्ध सम वार्णिक छंद- वह वार्णिक छंद जिसके सम और विषम चरणों में वर्णों की संख्या अलग-अलग हो उसे अर्द्ध सम वार्णिक छंद कहते है। जैसे: ‘मनहर कवित्त’ इसमें आठ चरण होते हैं। इसके विषम चरण में 16-16 और सम चरण में 15-15 संख्या होते हैं।
उदाहरण:
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बविज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीधमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौ “कहाँ जाइ, का करी”।
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
साकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥
विषम वार्णिक छंद- दो अलग-अलग वार्णिक छंदों के योग से बनने वाला वार्णिक छंद विषम वार्णिक छंद कहलाता है। हिन्दी में इसका कोई उदाहरण नहीं मिलता है।
एक पंक्ति में संख्या के आधार पर वर्गीकरण-
1.साधारण 2.दंडक
साधारण- यदि एक पंक्ति में 26 तक वर्ण हो तो वह द्रुतविलंबित, सवैया होगा
दंडक- यदि एक पंक्ति में 26 से अधिक वर्ण हो तो वह कवित्त होगा
गणों के क्रम के आधार पर वर्गीकरण- 1.गणबद्ध 2. गणमुक्त
गणबद्ध- जहाँ गणों के क्रम निश्चित हो वहाँ द्रुतविलंबित, सवैया, मंदाक्रांता, बसंततिलका। इन सभी में गणों का क्रम निश्चित होता है।
उदाहरण:
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित ही चला
गणमुक्त- जहाँ गणों का क्रम निश्चित नहीं हो जैसे- कवित्त में नहीं होता है।
उदाहरण:
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बविज न चाकर को चाकरी।
चौथा वर्गीकरण ‘तुक’ के आधार पर –
1.तुकांत 2. अतुकांत
तुकांत- जहाँ तुक मिले वहा तुकांत होगा जैसे- सवैया, कवित्त
अतुकांत- जहाँ तुक नहीं मिलता वहा अतुकांत है जैसे- अनुष्टुप
1.चौपाई छंद- चौपाई छंद में चार चरण होते है। (यह सम, साधारण, मात्रिक छंद होता है।)
लक्षण- इसके प्रत्येक चरणों में 16-16 मात्राएँ होती है। चरणों के अंतिम दोनों वर्ण में या तो ‘लघु’(।।) होगा या ‘गुरु’(ss) होगा।
चौपाई छंद के अंत में ‘जगण’ या ‘तगण’ नहीं आना चाहिए।
डॉ० भागीरथ मिश्र ने चौपाई छंद के आरम्भ में ‘जगण’ के प्रयोग को अशुभ माना है।
उदहारण:1
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीस तिहु लोक उजागर।।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
(इसके 16-16 मात्राएँ है। दोनों के अंत में 2 लघु(।।) और 2 गुरु (ss) है)
उदाहरण:2
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
यही भाँति चलेउ हनुमाना।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।
(इसमें 16-16 मात्राएँ है और दोनों के अंत में गुरु है।
उदाहरण:3
बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा।
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरन चारु।
समन सकल भव निज परिवारु।।
2. दोहा छंद- दोहा छंद (यह अर्द्ध सम, साधारण, मात्रिक छंद है।)
लक्षण: इसके विषम चरणों में 13 – 13 और सम चरणों में 11 – 11 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंतिम दो वर्ण क्रमशः ‘गुरु’ एवं ‘लघु’ होते हैं। दोहा छंद के आरम्भ में ‘तगण’ अथवा ‘जगण’ नहीं आना चाहिए।
उदाहरण:1
सबै सहायक सबल के, कोऊ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग को, दीपक देत बुझाय।।
(इस दोहे के दोनों चरण में 13-11 मात्राएँ हैं। अंतिम में गुरु और लघु भी है, किन्तु पहले चरण में ‘जगण’ आया है। अतः पहले चरण में अशुद्धि है।
उदाहरण:2
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परै, श्याम हरित दुति होय।।
इसके प्रथम चरण में ‘तगण’ आया हुआ है। अतः यह अशुद्ध माना जाएगा)
उदाहरण:3
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय।
टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परिजाय।।
यह दोहा छंद का सही उदाहरण है।
3. सोरठा छंद- सोरठा छंद यह अर्द्ध सम, साधारण और मात्रिक छंद है। यह दोहा का विपरीत छंद है।
लक्षण: सोरठा के विषम चरणों में 11 – 11 तथा सम चरणों के अंत में 13 – 13 मात्राएँ होती है। ‘तुक’ विषम चरणो के अंत में मिलती है। पहले और तीसरे के अंत में मिलती है।
उदाहरण:
सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहँसे करुणा ऐन, चितइ लखन जानकी तन।।
सुनत सुमंगल बैन, मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन, तुलसी भरे सनेह जल।।
4. उल्लाला छंद – उल्लाला यह अर्द्ध सम, साधारण, मात्रिक छंद है।
लक्षण: इसके विषम चरणों में 15 – 15 तथा सम चरणों में 13 – 13 मात्राएँ है। इसमें 15 और 13 मात्राओं पर ‘यति’ होती है।
उदाहरण:1
करते अभिषेक पयोध हैं, बलिहारी उस वेश की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।।
उदाहरण:2
उसकी विचार धारा धरा, के धर्मो में है वही।
जब सर्वर्भौम सिद्धांत का, आदि प्रवर्तक है वही।।
5. छप्पय छंद – यह छह चरण वाला विषम, साधारण मात्रिक छंद है।
लक्षण: इसके प्रथम चार चरण ‘रोला’ छंद के और अंतिम दो चरण ‘उल्लाला’ छंद की होते है।
रोला के 24 – 24 और अंतिम दो पंक्तियाँ उल्लाला के 28 – 28
उदाहरण:
नीलांबर परिधान, हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।
6. गीतिका छंद- यह अर्द्ध सम, साधारण मात्रिक छंद है।
लक्षण: इसके विषम चरणों में 14 -14 और सम चरणों में 12 – 12 मात्राएँ होती है। सम चरणों में अंतिम दो वर्ण क्रमशः ‘लघु’ और ‘गुरु’ होना अनिवार्य है। पहले लघु बाद में गुरु होगा।
उदाहरण:
हे प्रभु! आनंद-दाता, ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हमसे कीजिए ।।
7. हरिगीतिका छंद- यह चार चरणों वाला सम, साधारण, मात्रिक छंद है।
लक्षण: इसके प्रत्येक चरण में 28 – 28 मात्राएँ होती है। इसके 16 तथा 12 मात्राओं पर यति होती है चरणों के अंत में लघु और गुरु आना अनिवार्य है। पहले लघु और बाद में गुरु होता है।
उदाहरण:
मन जाहि राच्यो मिलहि सो वर, सहज सुन्दर सांवरो।
करुणानिधान, सुजान शील, सनेह जानत रावरो॥
8. कुंडलिया छंद– यह भी छह चरण वाला विषम, साधारण, मात्रिक छंद है।
लक्षण: इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है। इसकी प्रथम दो पंक्तियाँ ‘दोहा’ छंद के और अंतिम चार पंक्तियाँ ‘रोला’ छंद की होती है। यह एक दूसरे से गुँथे हुए रहते है। कुंडलिनी छंद जिस शब्द से शुरू होता है, उसी शब्द से समाप्त होता है।
उदाहरण:
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारे अपनों, जग में होत हँसाय।।
जग में हँसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान- पान सम्मान, राग रंग मनहि न भावै।।
कह गिरिधर कविराय, दुःख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय माहि, कियो जो बिना-बिचारे।।
वार्णिक छंद- द्रुतविलंबित, मंदाक्रांता और कवित्त
कवित्त के दो भेद होते हैं- 1.मनहरण 2.घनाक्षरी
‘घनाक्षरी’ के दो भेद होते हैं- 1. रुप घनाक्षरी 2. देव घनाक्षरी
द्रुतविलंबित छंद- यह छंद सम, साधारण, गण बद्ध, तुकांत, अतुकांत और वार्णिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में नगण, भगण, भगण, रगण के क्रम से कूल वर्ण 12 – 12 वर्ण होते है इसमें कूल चार- चार चरण होते हैं।
तुकांत का उदाहरण:
प्रबल जो तुम में पुरुषार्थ हो
सुलभ कौन तुन्हें न पदार्थ हो
प्रगति के पथ में विचारों उठो
भुवन में सुख शान्ति भरो उठो
अतुकांत के उदाहरण:
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित ही चला
तरुशिखा पर थी अवाराजती
कमलिनी कूल पल्लव की प्रभा
मंदाक्रांता छंद- यह सम, साधारण, गण बद्ध, वार्णिक छंद है। यह तुकांत और अतुकांत दोनों हो सकता है।
लक्षण: इसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण, तगण, तगण + दो गुरु वर्णों में योग से कूल 17 – 17 वर्ण होते हैं। इसके चौथे, छठवें, सातवें वर्ण पर यति होता है। मंद गति के कारण इसे मंदाक्रांता कहते हैं।
उदाहरण:
तारे डूबे, तम टल गया, छा गई व्योम लाली
पंक्षी बोले, तमचुर जगे, ज्योति फैली दिशा में
शाखा डोली, सकल तरु की, कंज फूलों सरों में
धीरे-धीरे दिनकर कढ़े, तम सी रात बीती
उदाहरण:
जो मै कोई, विहग उड़ता, देखती व्योम में हूँ
तो उत्कंठावश, विवश हो चित्त में सोचती हूँ।
होते मेरे, निबल तन में, पक्ष जो पक्षियों से,
तो यों ही मैं, समुद उड़ती, श्याम के पास जाती।
कवित्त छंद- यह दंडक, वार्णिक, गणमुक्त छंद है।
इसके दो भेद है- 1.मनहरण कवित्त (इसमें 16 – 15 = 31 वर्ण होते है)
2. घनाक्षरी कवित्त
घनाक्षरी कवित्त के दो भेद है- 1.रूप घाक्षारी इसमें (16 – 16 = 32 वर्ण होते हैं)
देव घनाक्षरी (इसमें 16 – 17 = 33 वर्ण होते हैं)
मनहरण कवित्त छंद- इसमें दंडक, अर्द्ध सम, गणमुक्त वार्णिक होते हैं।
लक्षण: इसमें कूल आठ चरण होते है। इसके विषम चरणों में 16 – 16 वर्ण तथा सम चरणों में 15 – 15 वर्ण होते है। सम चरणों के अंतिम दो वर्ण क्रमशः ‘लघु’ एवं ‘गुरु’ होते हैं।
उदाहरण:
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बविज न चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग सीधमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौ “कहाँ जाइ, का करी”।
बेद हूँ पुरान कही, लोकहू बिलोकियत,
साकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥
रूप घनाक्षरी छंद– इसमें सम, दंडक, गण मुक्त, वार्णिक छंद है।
लक्षण: इसके प्रत्येक चरण में 16 – 16 वर्ण होते है।
उदाहरण:
तेरो कहयो करि करि जीव रहयो जरी जरी
हारी पाय परि परि तऊ ते न की समार
देव घनाक्षरी छंद- यह अर्द्ध सम, दंडक, गणमुक्त, वार्णिक छंद है।
लक्षण: इसके विषम चरणों में 16 – 16 तथा सम चरणों में 17 – 17 वर्ण होते है सम चरणों के अंत में ‘नगण’ का आना अनिवार्य है। (16 – 17 = 33 अंत में नगण होगा।)
उदाहरण:
पाय दुःख अकुलाय रहे नित कलपत, मस्त मन मौजी रहे भाव के भरन भरन।
वाह! 👌
पूरा एक बार में पढ़ने में दिमाग चकरा गया, तो लिखने में कितना समय लगा होगा🤔
साधुवाद, ऐसी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए 🙏
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नमस्कार सर 🙏
बहुत-बहुत धन्यवाद
आपकी प्रतिक्रिया के लिए।
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आपका लेख ही ऐसा है कि दिमाग की बत्ती जलाकर पढ़ना पड़ता है। हिन्दी साहित्य और व्याकरण पर स्तरीय सामग्री की कमी इंटरनेट पर खलती है। उसी दिशा में आपका प्रयास सराहनीय है। लिखते रहिए आप और हम पढ़ते रहेंगे🤣
🙏
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