परिभाषा: काव्य के वे तत्व जो रस के अस्वादन में बाधा उत्पन्न करे अथवा रस का अपकर्ष करे उसे ‘काव्य दोष’ कहते हैं।
- काव्य दोषों का उल्लेख सबसे पहले भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में मिलता है।
- काव्य दोषों की सबसे पहले ‘व्यवस्थित विवेचन’ मम्मट ने किया था।
काव्य दोषों की परिभाषाएँ विभिन्न आचार्यों के अनुसार:
वामन के शब्दों में- “विपर्यतामनो दोषः” अथार्त गुणों का अभाव ही दोष है।
मम्मट के शब्दों में- “मुख्यार्थ हतिदोर्शः” अथार्त मुख्य अर्थ में पहुँचाने वाले तत्व दोष है।
विश्वनाथ के शब्दों में– “रसास्यायकर्षका दोषाः” अथार्त रस का अपकर्ष करनेवाले तत्व दोष है।
अग्निपुराणकार के शब्दों में- “काव्य में उद्वेग उत्पन्न करने वाले तत्व दोष कहलाते हैं।
काव्य दोषों की संख्या:
भरतमुनि ने काव्य दोषों की संख्या निम्नलिखित दस (10) माने हैं।
1.अगूढ़ 2. अर्थान्तर 3. अर्थहीन 4. भिन्नार्थ 5. एकार्थ
6. अभिलुप्तार्थ 7. न्यायावेत 8. विषम 9 .विसंधि और 10. शब्द्च्युति।
भामह ने काव्य दोषों की संख्या निम्न तीन माने हैं –
1.सामान्य दोष 2. वाणी दोष 3. अन्य दोष। इन्होने उपभेद सहित काव्य के 25 दोष माने हैं।
रुद्रट ने काव्य दोषों की संख्या कूल 26 माने हैं और उन्हें चार भागों में बाँटा है-
1.पद दोष 2.वाक्य दोष 3. अर्ह दोष 4. पद वाक्य दोष।
अग्निपुराणकर ने काव्य दोषों की संख्या तीन माने हैं।
1.शब्द दोष 2. अर्थ दोष 3. रस दोष।
दण्डी ने काव्य दोषों की संख्या 11 माने हैं। (वर्तमान में यही मान्य है)
वामन ने काव्य दोषों की संख्या दो माने हैं।
1.शब्द दोष 2. पदार्थ दोष। इन्होने 20 उपभेदों में बाँटा है।
वामन ने काव्य दोषों की संख्या 3 माने हैं।
1.शब्द दोष 2. अर्थ दोष 3. रस दोष। इन्होने इसे 70 उपभेदों में बाँटा है इसमें 37 शब्द दोष, 23 अर्थ दोष और 10 रस दोष माने है।
सोमनाथ ने निम्न चार काव्य दोष माने हैं।
1.शब्द दोष 2. अर्थ दोष 3. रस दोष 4. वृत दोष (इसे छंद दोष कह सकते है)
काव्य दोषों के विशेष तथ्य:
अनंदवर्द्धन ने ‘काव्यदोष’ के स्थान पर ‘अनौचित्य’ शब्द का प्रयोग किया है।
बाबु गुलाबराय ने काव्य दोषों को निम्नलिखित 7 भागों में विभक्त किया है।
अप्रचलित शब्दों का प्रयोग, अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, न्यूनाधिक प्रयोग, अवांछनीय प्रयोग व्याकरण विरुद्ध प्रयोग, अनुचित प्रयोग, अनिश्चितात्मक प्रयोग।
रामदहिन मिश्र ने दो भागों में बाँटा है।
1. नित्य काव्य दोष 2. अनित्य काव्य दोष
भारतीय काव्यशास्त्र में मम्मट व अग्निपुराण के द्वारा किए गए वर्गीकरण को सर्वसम्मति से स्वीकार किया है।
जो निम्न तीन प्रकार के हैं- 1.शब्द दोष 2. अर्थ दोष 3. रस दोष
1.शब्द दोष या पद दोष:
परिभाषा: जहाँ काव्य में अनुचित पदों का प्रयोग किया जाए, वहाँ शब्द या पद दोष होता है। ये निम्नलिखित 16 हैं।
श्रुतिकतुत्व, च्युत्संस्कृति, अप्रयुक्त्व, असमर्थत्व, निहितार्थ, अनुचितार्थत्व, अप्रतितार्थत्व, क्लिष्टत्व, अश्लीलत्व, ग्राम्यत्व, नेयार्थत्व, अक्रमत्व, दुष्क्रमत्व, न्यूनपदत्व, अधिकपदत्व, पुनरुक्ति दोष आदि शब्द दोष है।
श्रुतिकतुत्व दोष: (शब्द दोष )
काव्य को सुनने में कठोर लगने वाले शब्दों का जहाँ अधिक प्रयोग होता है। जो सुनने में अच्छे नहीं लगते हैं उसे श्रुतिकतुत्व दोष कहते हैं। जैसे- ‘ट’ वर्ग वाले शब्द, संयुक्ताक्षर आने पर, लम्बे सामासिक पद या महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग हो वहाँ श्रुतिकतुत्व होता है।
उदाहरण:
1.“कवि के कठिन कर्म की हम करते नहीं धृष्टता
पर क्या विष्योतकृष्टता करती नहीं विचारोत्कृष्टता।
इस उदाहरण में प्रयुक्त शब्द- ‘विष्योतकृष्टता’ और ‘विचारोत्कृष्टता’ सुनने में कठोर लगते हैं अतः यहाँ श्रुतिकतुत्व दोष है।
2. “कात्यार्थी तब होहुँगी जब प्रिय मिलिहै आय।”
इस उदहारण में प्रयुक्त शब्द- ‘कात्यार्थी’ कठोर लगता है। अतः यहाँ श्रुतिकतुत्व दोष है।
3. “कटर-कटर तण्डुल चबात हरि हँसि हँसि के।”
इस उदहारण में प्रयुक्त शब्द- ‘कटर-कटर’ कठोर शब्द है। अतः यहाँ श्रुतिकतुत्व दोष है।
च्युत्संस्कृति दोष: (शब्द दोष)
काव्य में जहाँ व्याकरण विरोधी शब्दों का प्रयोग होता है उसे च्युत्संस्कृति काव्य दोष कहते हैं।
उदाहरण:
1.‘मरम वचन जब सीता बोला’ इस उदाहरण में ‘बोला’ के जगह पर ‘बोली’ होना चाहिए। अतः यहाँ व्याकरणिक दोष है।
2. ‘राजे विराजे मख (यज्ञ) भूमि में थे’ इस उदाहरण में भी ‘राजे’ के जगह ‘राजा’ शब्द होना चाहिए था। अतः यहाँ व्याकरणिक दोष है।
3. ‘फूलों की लावण्यता देती है आनंद’ इस उदाहरण में ‘लावण्यता’ शब्द नहीं होकर ‘लावण्य’ होना चाहिए था। अतः यहाँ व्याकरणिक दोष है।
4. ‘अरे अमरता के चमकीले पुतलों ‘तेरे’ वे जयनाद’ (कामायनी की पंक्तियाँ) इस उदाहरण में ‘तेरे’ के जगह ‘तुम्हारे’ आना चाहिए था। अतः अतः यहाँ व्याकरणिक दोष है।
ग्राम्यत्व काव्य दोष: (शब्द दोष)
जिस काव्य में कवि अपनी काव्य भाषा में गँवारू या ग्रामीण असभ्य शब्दों का प्रयोग करे वहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष होता है।
उदाहरण:
1. ‘मुड़’ पे मुकुट धरे सोहत गोपाल है।’ यहाँ ‘मस्तिष्क’ की जगह ‘मुड़’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जो गँवारू शब्द है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
2. ‘टूटी खाट पर टपकत टटिया टूटी।’ यहाँ ‘टटिया’ ग्रामीण शब्द है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
3. ‘मच्चक मच्चक मत चलों।’ यहाँ ‘मच्चक मच्चक’ ग्रामीण शब्द है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
4. ‘कैसे इस दुआर से चली जाऊँ’? यहाँ ‘द्वार’ के जगह पर ‘दुआर’ ग्रामीण शब्द आया है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
5. ‘पड़े झटोले में रहे, नींद न आई रात।’ इस उदाहरण में ‘चारपाई’ की जगह ‘झटोले’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो ग्रामीण शब्द है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व काव्य दोष है।
अश्लीलत्व काव्य दोष: (शब्द दोष)
काव्य में जहाँ अश्लील, लज्जा, घृणा आदि सूचक शब्दों का होता है। वहाँ अश्लीलत्व काव्य दोष होता है।
उदाहरण:
1. “लगे थूककर चाटने अभी-अभी श्रीमान” इस उदाहरण में ‘थूककर चाटना’ लज्जा जनक शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ अश्लीलत्व काव्य दोष है।
2. “लहु में तैर-तैर के नहा रहीं जवानियाँ” इस उदाहरण में ‘नहा रही जवानियाँ’ लज्जा जनक शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ अश्लीलत्व काव्य दोष है।
3. “रहे जुटे में मजदूर” इस उदाहरण में ‘रहे जुटे में मजदूर’ लज्जा जनक शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ अश्लीलत्व काव्य दोष है।
क्लिष्टत्व काव्य दोष ( शब्द दोष )
जहाँ काव्य में ऐसे दुरूह शब्दों का प्रयोग किया जाए। जिनका अर्थ बोध होने में कठिनाई हो उसे क्लिष्टत्व काव्य दोष कहते है।
उदहारण:
1.“अजा सहेली तासु रिपु ता जननी भरतार।
तासु सुत के मित्त को भजिये बरम्बार।।”
इस तरह के दोहों का अर्थ निकालने में बहुत ही कठिनाई होती है। अतः यहाँ क्लिष्टत्व काव्य दोष कहते हैं।
2. “लंका पुरी पति को जो भ्राता तासु प्रिया न आवती।”
इस तरह के दोहों का अर्थ निकालने में बहुत ही कठिनाई होती है। अतः यहाँ क्लिष्टत्व काव्य दोष कहते हैं।
3. “मंदिर अरध हरि बदी गए हरि आहार चलि जात।
ग्रह नखत वेद जोरी तासु अरध करि हम खाट।।”
इस तरह के दोहों का अर्थ निकालने में बहुत ही कठिनाई होती है। अतः यहाँ क्लिष्टत्व काव्य दोष कहते हैं।
4. “अहि-रिपु-पति-पिय सदन है मुख तेरो रमनिय” इस उदाहारण में कवि नायिका के मुख को ‘कमल’ के सामान रमणीय कहना चाहता है, किन्तु ‘कमल’ का अर्थ तक पहुँचने में बड़ी कठिनाई है। जैसे अहि=सर्प, उसका रिपु = गरुड़, गरुड़ के पति = विष्णु, विष्णु की प्रिया= लक्ष्मी, लक्ष्मी का सदन=कमल। अतः बहुत कठिनाई और घुमाफिरा कर अर्थ की प्राप्ति होती है। अतः यहाँ क्लिष्टत्व काव्य दोष कहते हैं।
न्यूनपदत्व काव्य दोष (शब्द दोष)
जिस काव्य रचना में किसी ‘शब्द’ या ‘पद’ की कमी रह जाए वहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है।
उदाहरण:
1. “राजन् तुम्हारे खड़क से यश पुष्प विकसित हुआ” इस उदाहरण में ‘खड़ग’ के साथ ‘लता’ शब्द प्रयोग करने से और भी सुंदर अर्थ निकलता। यहा ‘लता’ शब्द की कमी महसुस हो रही है। अतः यहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है।
2. “कृपा दृष्टि हो जाए यदि बन जाएँ सब काम” इस उदाहरण में ‘आपकी’ शब्द की कमी महसूस रही है। अतः यहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है।
3. “दुर्योधन मन में वर्षों से वह पल रही जो इस युद्ध में प्रकट हुई” इस उदाहरण में दुर्योधन के मन क्या प्रकट हो रही थी? उस शब्द की यहाँ कमी महसूस रही है। अतः यहाँ न्यूनपदत्व दोष होता है।
अधिकपदत्व काव्य दोष (शब्द दोष)
जहाँ काव्य में आवश्यकता से अधिक पदों का प्रयोग किया जाता है। वहाँ अधिकपदत्व काव्य दोष माना जाता है।
उदाहरण:
1.“पुष्प पराग में रंग कर भ्रमर गुजरता है” इस उदाहरण में ‘पुष्प’ शब्द की अधिक है। अतः वहाँ अधिकपदत्व काव्य दोष माना जाता है।
2. “वह विंध्यांचल पर्वत पर गया” इस उदाहरण में ‘पर्वत’ शब्द की अधिक है। अतः वहाँ अधिकपदत्व काव्य दोष माना जाता है।
3. “लपटी पुहुँप-पराग-पट, सानी स्वेद मकरंद।
आवनी नारि नवोढ़ लौं, सुखद वायु गति मंद।।”
इस उदाहरण में ‘पुहुँप’ शब्द अनावश्यक है क्योंकि पराग कहने से ही पुष्पराज का बोध हो जाता। अतः वहाँ अधिकपदत्व काव्य दोष माना जाता है।
अक्रमत्व काव्य दोष: (शब्द दोष)
जहाँ व्याकरण की दृष्टि से पदों का क्रम सही नहीं हो। वहाँ अक्रमत्व काव्य दोष होता है।
उदाहरण:
1.“अमानुषी भूमि अवानरी करौं”
इस उदाहरण में ‘भूमि’ शब्द पहले आना चाहिए था। अतः यहाँ अक्रमत्व काव्य दोष होता है।
2. “सीता जू रघुनाथ को अमल-कमल की माल पहराई”
जनु सबन की हृदयावलि भूपाल”
इस उदाहरण में क्रम सही नहीं है। अतः यहाँ अक्रमत्व काव्य दोष होता है।
4. ‘विश्व मिलते नहीं है वीर भीम सामान के ”
इस उदाहरण में व्याकरण की दृष्टि से क्रम सही नहीं है। अतः यहाँ अक्रमत्व काव्य दोष होता है।
दुष्क्रमत्व काव्य दोष:
जहाँ शास्त्र अथवा लोक मान्यता के अनुसार दो का क्रम नहीं हो वहाँ दुष्क्रमत्व काव्य दोष होता है।
उदाहरण:
1.‘नृप मोको हय दीजिए अथवा मत्त गजेन्द्र” इस उदाहरण में मांगने वाला राजा से पहले हाथी मांगता है बाद में घोड़ा। लोकमान्यता के अनुसार यह सही नहीं है। अतः यहाँ दुष्क्रमत्व काव्य दोष होता है।
2. ‘रुपये दे दो 100 नहीं तो 1000 दे दो’
इस उदाहरण में अर्थ करने से ज्ञात होता है कि मांगने वाला को पहले क्या और कितना मांगना चाहिए। अतः यहाँ दुष्क्रमत्व काव्य दोष होता है।
3. उखारि लियो पहार तेहि काल, तनिक विलंब न लायो।
मारुत नंदन मारुत को मन को खगराज को वेग लजायो।।”
इस उदाहरण में क्रम सही नहीं है। अतः यहाँ दुष्क्रमत्व काव्य दोष होता है।
2. अर्थ दोष या (पदार्थ दोष)
कवि जिस भाव को व्यक्त करना चाहता है। उसका विपरीत या अन्य भाव प्रकट होने पर अर्थ दोष होता है। इसकी संख्या 26 मानी गई है।
पुनरुक्त दोष, दुष्क्रमत्व दोष, अपुष्टत्व दोष, ग्राम्यत्व दोष, संदिग्ध दोष, कष्टार्थ दोष, नियमपरिवृत दोष, प्रसिद्धिविरुद्ध दोष, विद्याविरुद्ध दोष, सांकाक्ष्य दोष, सहचर भिन्न दोष।
पुनरुक्त काव्य दोष- (अर्थ दोष)
जहाँ अर्थ की पुरुक्ति हो अथार्त एक ही बात को दो अलग-अलग शब्दों के माध्यम से कहा जाए वहाँ पुनरुक्ति अर्थ काव्य दोष होता है।
“एक बार कहिए कछु, बहुरि जु कहिये सोइ।
अर्थ होए कै शब्द अब, सुनु पुनरुक्ति सुहोय।।”
उदहारण:
1.मघवा घन आरूढ़, इन्द्र अजु अति सोहियो।
ब्रज पर कोप्यो मूढ़, मेध दसौ दिसि देखिये।”
इस उदाहरण मघवा तथा इंद्र, मेध तथा घन की पुरुक्ति हुई है। अतः यहाँ पुनरुक्ति अर्थ काव्य दोष होता है।
प्रसिद्धि-विरुद्ध काव्य दोष (अर्थ दोष)
काव्य में जहाँ लोक या शास्त्र विरुद्ध वर्णन हो, वहाँ प्रसिद्धि-विरुद्ध अर्थ काव्य दोष होता है।
उदाहरण:
1.“उदयगिरि पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला”
इस पंक्ति में पिनाकी (शिव) का संबंध उदयगिरि से है। जो लोक और शास्त्र के विरुद्ध है। पिनाकी का संबंध कैलास पर्वत से है। जिसकी धनुष की टंकार कैलास पर सुनाई देगी उदयगिरि पर नहीं। अतः यहाँ प्रसिद्धि-विरुद्ध अर्थ दोष है
ग्राम्यत्व दोष (अर्थ दोष)
काव्य में ग्रामीण बोली के ऐसे शब्द जो शिष्ट साहित्य में प्रचलित नहीं है। ऐसे शब्द का काव्य में प्रयोग किये जाते है तो उसे ग्राम्यत्व दोष कहते हैं।
उदाहरण:
“धनु है यह ‘गैरमरदाइन’ नहीं” (केशवदास)
इसमें ‘गैरमरदाइन’ शब्द का प्रयोग इन्द्रधनुष के जगह पर किया गया है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व अर्थ दोष कहते है।
3. रस दोष:
काव्य के रसास्वादन में जिन कारणों से बाधा उत्पन्न होती है। उन्हें रस-दोष कहते हैं। जहाँ रस के नाम अनुभाव, विभाव, संचारीभाव आदि का सीधा उल्लेख हो अथवा एक रस में परस्पर विरोधी रस के अनुभाव आदि का वर्णन हो वहाँ रस दोष होता है।