‘बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!’ कविता निराला जी के ‘अर्चना’ कविता संग्रह में संकलित है। ‘अर्चना’ का प्रकाशन 1950 में हुआ था। ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु!’ कविता में कवि ‘डलमऊ’ के पक्के घाट पर गुंबद के नीचे बैठकर अपनी पत्नी को याद करके यह कविता लिखते हैं। कवि नाविक को अपनी नाव उस जगह पर बाँधने के लिए मना करते हैं। जिस घाट पर उनकी पत्नी नहाती थी। जिसे देखकर उनकी आँखें टिकी रह जाती थी।
भावार्थ- कविता में कवि अपनी प्रेम कहानी को प्रकट करते हैं। कविता में नायक के भावनाओं का चित्रण किया गया है। कवि नायिका के सौंदर्य को याद करते हुए नाविक से कहते हैं। हे! बंधु तुम अपनी नाव को इस ठाँव यानी इस जगह पर मत बांधों। अगर तुम अपनी नाव को इस जगह पर बांधोंगे तो सारा गाँव तुमसे तरह-तरह के प्रश्न पूछेगा। इसलिए तुम अपनी नाँव को इस ठाँव मत बांधों। यह वही घाट है, जिस घाट पर मेरी प्रियतमा नहाया करती थी। मेरी आँखें उसे नहाते हुए निहारती रहती थी। हम दोनों यहीं मिला करते थे। वह हँसते-हँसते बहुत कुछ कह देती थी लेकिन अपने में ही वह रहती थी। वह सभी की सुनती थी लेकिन किसी को कुछ नहीं कहती थी। वह सभी का अत्याचार भी सहती थी और वह सबको मौका भी देती थी। हे बंधू! हे भाई! तुम इस ठाँव अपनी नाव मत बांधों।
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! (कविता)
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थी फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
बाँधो न नाव इस ठांव बंधु