‘पर्दा’ अरबी भाषा से आया हुआ शब्द है। जिसका अर्थ होता है, ‘ढकना’। ‘बुर्का’ भी एक तरह से घूँघट ही है, जिसे मुस्लिम समुदाय की महिलाएँ और लडकियाँ पुरुषों के गलत निगाह से बचने के लिए पहनती हैं। भारत में घूँघट प्रथा भी इस्लामों की देन है। इस्लामी आक्रमणकारियों और लुच्चे-लफंगों से अपनी बचाव के लिए हिन्दू स्त्रियाँ भी पर्दा करने लगी। यह प्रथा मुग़ल शासकों के दौरान अपनी जड़े जमा ली।
घूँघट प्रथा की शुरुआत भारत में 11वीं शताब्दी से मानी जाती है। यह प्रथा अधिकतर राजस्थान के राजपूतों में प्रचलित थी। भारत के संदर्भ में ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व ‘निरुक्त’ में भी इस तरह के प्रथा का कोई वर्णन नहीं मिलता है। प्राचीन संहिताओं में भी पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार- ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के समय में कहीं पर भी स्त्रियाँ पर्दा या घूँघट का प्रयोग नहीं करती थीं। अजंता एलोरा और साँची की कलाकृतियों में भी स्त्रियों को बिना घूँघट के ही दिखाया गया है। मनु और यज्ञावलक्य ने भी स्त्रियों के जीवन शैली के संबंध में कई नियम बनाए हैं, परन्तु यह कहीं नहीं लिखा गया है कि स्त्रियों को पर्दे या घूँघट में रहना चाहिए। यहाँ तक कि दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ समय तक भारतीय राजपरिवारों की स्त्रियाँ सभा तथा बाहर घूमने जाया करती थीं। कहीं भी पर्दा का वर्णन नहीं है। इसका वर्णन एक अरब यात्री अबूजैद ने अपनी लेख में किया था। अतः यह तो स्पष्ट है कि भारत में पर्दा प्रथा नहीं थी।
कारण जो भी हो जब हमारे पूर्वजों ने इस प्रथा को स्वीकार कर लिया है, तो इसका पालन करना हमारा कर्तव्य बनता है। ढके हुए किसी भी वस्तु को देखने की चाहत बढ़ती है। खुले हुए वस्तु की तरफ हमारी नजर नहीं जाती है। हम अपने घर, मकान, आदि की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए पर्दे का प्रयोग करते हैं। नारी भी पर्दा में सुन्दर और संस्कारी दिखाई देती हैं। आज भी कई सांसद महिलाएँ हैं जो लोक सभा में सर पर आँचल रखकर बैठती हैं। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगता है। इससे उनकी सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं। सर पर पल्लू रखने से स्त्री की गरिमा बढ़ती है।
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