बर्बरीक महाभारत का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और एक महान योद्धा थे। वे घटोत्कच और मौवती/ मऊवती (माऊ की पुत्री, यादवों के राजा) के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर थे। उन्होंने युद्ध-कला अपनी माँ से सीखी थी। उन्होंने माँ ‘आदिशक्ति’ की घोर तपस्या करके, उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये। इसीलिए वे ‘तीन बाणधारी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। ईशापुर्तिक वाल्मीकि ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था। महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ ने वचन लिया कि हारे हुए पक्ष का ही साथ देना।
युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमो के मध्य एक पीपल वृक्ष के नीचे खड़े थे। उन्होंने घोषणा किया कि जो पक्ष हार रहा होगा, मैं उसी पक्ष के तरफ से युद्ध करूंगा। बर्बरीक की इस घोषणा से भगवान श्रीकृष्ण चिंतित हो उठे। भीम के पौत्र बर्बरीक के सामने, अर्जुन तथा भगवान श्री कृष्ण उनकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए। बर्बरीक ने अपनी वीरता का एक छोटा सा नमूना दिखाया था। कृष्ण ने बर्बरीक से कहा, बर्बरीक तुम इस वृक्ष के सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो, मैं तुम्हें मान जाऊँगा की तुम महान योद्धा हो। भगवान से आज्ञा और आशिर्वाद लेकर बर्बरीक ने तीर वृक्ष की तरफ छोड़ दिया। तीर एक-एक करके सभी पत्तों को छेदता जा रहा था। उसी समय एक पता टूटकर निचे गिर पड़ा। कृष्ण जी ने उस पत्ते को अपने पैर के नीचे छुपा लिया, जिससे कि वह पत्ता छेद होने से बच जाए लेकिन बर्बरीक के द्वरा चलाया गया वह तीर सब पत्तो को छेदता हुआ कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा प्रभु! आपके पैर के निचे एक पत्ता दबा हुआ है। कृपया पैर हटा लीजिये क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्ता छेदने की आज्ञा दिया है, आपका पैर छेदने के लिए नहीं। बर्बरीक के इस चमत्कार को देखकर कृष्ण चिंतित हो गए। भगवान श्री कृष्ण को मालूम था कि प्रतिज्ञा वश बर्बरीक हारने वालों का ही साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो पांडव के लिए संकट खड़ा हो जाएगा।
दूसरे दिन भगवान श्री कृष्ण ब्राहमण का भेष बदलकर बर्बरीक के शिविर के द्वार पर दान माँगने पहुँच गए। तब बर्बरीक ने कहा, मांगो ब्राह्मण! तुम्हें क्या चाहिए? ब्राह्मण भेष में कृष्ण बोले, मैं जो मागूंगा वह तुम नहीं दे सकोगे, लेकिन बर्बरीक अब कृष्ण के बातों में फंस गया था। कृष्ण ने बर्बरीक से उनका शीश मांग लिया। श्री कृष्ण द्वारा शीश का दान माँगने पर बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और श्रीकृष्ण के बारे में सुनकर बर्बरीक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है, इसलिए उनका शीश दान में मांगा था। भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्रीकृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
बर्बरीक ने अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीश दान कर दिया था। बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात् श्री कृष्ण ने बर्बरीक को कलयुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया था। आज बर्बरीक को ‘खाटूश्याम जी’ के नाम से पूजा जाता है। जहाँ कृष्ण ने उनका शीश रखा था, उस स्थान का नाम खाटू था।
युद्ध के उपरांत पांडवों में इस बात को लेकर चर्चा हो रही थी कि युद्ध में किसने अधिक पराक्रम दिखाया। वे सभी इस प्रश्न का उत्तर पूछने श्री कृष्ण के पास गए। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर वही दे सकता है जिसने यह पूरा युद्ध अपनी आँखों से देखा हो। तब पांडवों ने कहा, इस पूरे युद्ध को किसने देखा होगा? श्री कृष्ण ने कहा बर्बरीक ने इस पुरे युद्ध को अपनी आँखों से देखा है। वही बता सकता है। तब सभी इस प्रश्न का उत्तर पूछने बर्बरीक के पास गए। जब सबने इस प्रश्न का जबाब पूछा तो बर्बरीक ने कहा, इस पूरे युद्ध में मुझे श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र ही घूमता हुआ दिखाई दे रहा था, जो शत्रु सेना को काट रहा था। इस प्रश्न का उत्तर सुनकर सभी पांडवों का सिर श्री कृष्ण के सामने श्रद्धा से झुक गया।