श्वास (प्राण-वायु) की मात्रा के आधार पर वर्ण-भेद:
स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ (11)
अयोगवाह- अं और आ: दो अयोगवाह है।
व्यंजन-
‘क’ वर्ग- क, ख, ग, घ, ङ
‘च’ वर्ग- च, छ, ज, झ, ञ
‘ट’ वर्ग- ट, ठ, ड, ढ, ण
‘त’ वर्ग- त, थ, द, ध, न
‘प’ वर्ग- प, फ, ब, भ, म
य, र, ल, व, ष, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ
प्रयत्न- वर्णों के उच्चारण में होने वाले वागिन्द्रिय (जिह्वा) के यत्न को ‘प्रयत्न’ कहते हैं।
प्रयत्न के दो प्रकार हैं- आभ्यन्तर प्रयत्न और बाह्य प्रयत्न।
1 आभ्यन्तर प्रयत्न- यह वर्णों के उच्चारण से पहले आरम्भ होता है। आभ्यन्तर प्रयत्न के चार भेद होते हैं-
(क) विवृत- विवृत का अर्थ होता है ‘खुला हुआ’ इसके उच्चारण करने पर मुख पूर्ण रूप से खुला हुआ होता है। ‘अ’ से ‘औ’ तक सभी स्वर विवृत कहलाते है।
(ख) स्पृष्ट- स्पृष्ट का अर्थ होता है ‘छुना’ या ‘स्पर्श’ करना। ‘क’ से लेकर ‘म’ तक यानि सभी (25) स्पर्श वर्ण स्पृष्ट कहलाते हैं, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जिह्वा मुख के भिन्न-भिन्न भागों को स्पर्श करती है।
(ग) ईषत्स्पृष्ट – इसका अर्थ होता है थोड़ा स्पर्श करना । श, ष, स, ह इनके उच्चरण के समय जिह्वा का उच्चारण-स्थान थोडा स्पर्श करता है।
(घ) ईषद्विवृत- इसका अर्थ होता है थोड़ा खुला हुआ। इन वर्णों य, र, ल, व इनके उच्चारण में मुख थोडा खुला होता है।
बाह्य प्रयत्न- वर्णों के समाप्ति पर होने वाले यत्न को बाह्य प्रयत्न कहते है।
बाह्य प्रयत्न के दो भेद होते है- घोष का अर्थ ‘नाद’ या ‘गूँज’ होता है। वर्णों के उच्चारण में होने वाली ध्वनि की गूँज के आधार पर वर्णों के दो भेद हैं- घोष या सघोष और अघोष।
(क) घोष या सघोस- घोष या सघोष व्यंजन- नाद की दृष्टि से जिस व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष व्यंजन कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो जिस वर्णों के उच्चारण में गले के कम्पन से गूँज-सी होती है, उसे घोष या सघोष कहते हैं। जैसे- वर्णों के अंतिम तीन (3) वर्ण-
ग, घ, ङ
ज, झ, ञ
ड, ढ, ण
द, ध, न
ब, भ, म तथा
अंतस्थ व्यंजन य, र, ल, व सभी स्वर घोष या सघोष हैं। घोष ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियाँ आपस में मिल जाती हैं और वायु से धक्का देते ही बाहर निकलती हैं और स्वर-तंत्रियों को झंकृत करती हैं।
(ख) अघोष व्यंजन- नाद की दृष्टि से जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर तंत्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, उसे अघोष व्यंजन कहते हैं। दूसरे शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में कम्पन नहीं होता हैं, उन्हें अधोष व्यंजन कहते हैं। जैसे- वर्णों के पहले वाले दो (2) वर्ण-
क, ख
च, छ
ट, ठ
त, थ
प, फ तथा
श, ष, स अघोष व्यंजन हैं। अघोष वर्णों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियाँ परस्पर नहीं मिलती हैं। इसलिए वायु आसानी से बाहर निकल जाती है।
2. बाह्य प्रयत्न: वर्णों के उच्चारण में होने वाले प्रयत्न को बाह्य प्रयत्न कहते हैं –
श्वास के आधार पर बाह्य प्रयत्न के दो भेद होते है- अल्पप्राण / महाप्राण
(क) अल्पप्राण व्यंजन- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा सामान्य रहती है और हकार जैसी ध्वनि बहुत ही कम होती है उसे अल्पप्राण कहते हैं। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय हमारे मुख से कम हवा निकलती है उसे अल्पप्राण कहते हैं।
व्यंजन के प्रत्येक वर्ग का तीसरा (3) और पाँचवा (5) वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं। जैसे-
क वर्ण का- ग और ङ
च वर्ग का- ज और ञ
ट वर्ग का- ड और ण
त वर्ग का- द और न
प वर्ग का- ब और म
य, र, ल, व, ये चारों अंतस्थ व्यंजन भी अल्पप्राण ही हैं।
(ख) महाप्राण व्यंजन- जिन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास-वायु अल्पप्राण की तुलना में कुछ अधिक निकलती है और ध्वनि ‘ह’ जैसी होती है, उसे महाप्राण व्यंजन कहते है। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से अधिक वायु निकलती है, उसे महाप्राण व्यंजन कहते हैं। व्यंजन के प्रत्येक वर्ग का दूसरा (2) और चौथा (4) वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण व्यंजन हैं। जैसे-
क वर्ग का- ख और घ
च वर्ग का- छ और झ
ट वर्ग का- ठ और ढ
त वर्ग का- थ और ध
प वर्ग का- फ और भ
श, ष, स, ह ये सभी ऊष्ण वर्ण महाप्राण हैं। अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राण में प्राणवायु का उपयोग अधिक होता है।