विक्रमादित्य के नवरत्न

विश्वविजेता चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे। वे अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। विक्रमादित्य के काल को ‘कला और साहित्य का स्वर्णयुग’ कहा जाता था। राजा विक्रमादित्य का नाम- ‘विक्रम’ और ‘आदित्य‘ के समास से बना है जिसका अर्थ होता है- ‘सूर्य के समान पराक्रमी’। ‘भविष्य पुराण’ व ‘आईने अकबरी’ के अनुसार विक्रमादित्य पंवार वंश के सम्राट थे जिनकी राजधानी उज्जयनी थी। उज्जैन भारत के मध्यप्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे वसा हुआ है। यह एक अत्यंत प्राचीन शहर है। यह विश्वविजेता चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे महाकवि कालिदास के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है।   

भारत के इतिहास के पन्नों में अकबर के नवरत्नों से इतिहास भर दिया गया है लेकिन महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों की चर्चा किसी भी पाठ्यपुस्तकों में नहीं किया गया है। जबकि सत्य यह है कि अकबर को महान बनाने के लिए महाराज विक्रमादित्य की नक़ल करके कुछ धूर्तों ने इतिहास में लिख दिया कि अकबर के भी नवरत्न थे। सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में जो नवरत्न मौजूद थे वे उच्चकोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित थे। जिनकी योग्यता का डंका भारत में ही नहीं विदेशों में भी बजता था। मध्य प्रदेश में स्थित उज्जैन महानगर के महाकाल मंदिर के पास ही विक्रमादित्य का टीला है। वहीँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में इन नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई है।

विक्रमादित्य के नवरत्नों के नाम इस प्रकार है- धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि है। इन नवरत्नों में उच्च कोटि के विद्वान, श्रेष्ठ कवि, गणित के प्रकांड विद्वान और विज्ञान के विशेषज्ञ आदि सम्मिलित थे।

 

धन्वंतरि– हमारे साहित्य में तीन धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है। दैविक, वैदिक और ऐतिहासिक। दैविक धन्वंतरि के विषय में कहा गया है कि वे रोग पीड़ित देवताओं की चिकित्सा करते थे। उनसे संबंधित अनेक कथाएं प्राप्त होती हैं। आयुर्वेद साहित्य में प्रथम धन्वंतरि वैद्य माने जाते हैं। इतिहास में दो धन्वंतरियों का वर्णन आता है। प्रथम वाराणसी के क्षत्रिय ‘राजा दिवोदास’ और द्वितीय वैद्य परिवार के ‘धन्वंतरि’। दोनों ने ही प्रजा को अपनी वैद्यक चिकित्सा से लाभा‍न्वित किया। भावमिश्र का कथन है कि सुश्रुत के शिक्षक ‘धन्वंतरि’ शल्य चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत गुप्तकाल से संबंधित थे। अत: स्पष्ट है कि विक्रमयुगीन धन्वंतरि अन्य व्यक्ति थे। इतना अवश्य है कि प्राचीनकाल में वैद्यों को धन्वंतरि कहा जाता होगा। इसी कारण दैविक से लेकर ऐतिहासिक युग तक अनेक धन्वंतरियों का उल्लेख मिलता है। शल्य तंत्र के प्रवर्तक को धन्वंतरि कहा जाता था। इसी कारण शल्य चि‍कित्सकों का संप्रदाय धन्वंतरि कहलाता था। शल्य चि‍कित्सा में निपुण वैद्य धन्वंतरि उपाधि धारण करते होंगे। विक्रमादित्य के धन्वंतरि भी शल्य चिकित्सक थे। वे विक्रमादित्य की सेना में मौजूद थे। उनका कार्य सेना में घायल हुए सैनिकों को ठीक करना था। धन्वंतरि द्वारा लिखित ग्रंथों के ये नाम  हैं- ‘रोग निदान’, ‘वैद्य चिंतामणि’, ‘विद्याप्रकाश चिकित्सा’, ‘धन्वंतरि निघण्टु, वैद्यक भास्करोदय’ तथा ‘चिकित्सा सार संग्रह’। आज भी किसी वैध की प्रशंसा करनी हो तो उसे ‘धन्वन्तरि’ उपमा दी जाती है।


क्षपणक– राजा विक्रमादित्य के दूसरे नवरत्न क्षपणक थे। इनके नाम से ही प्रतीत होता है कि ये बौद्ध सन्यासी थे। हिन्दू लोग जैन साधुओं के लिए ‘क्षपणक’ नाम का प्रयोग करते थे। दिगम्बर जैन के साधु ‘नग्न क्षपणक’ नाम से जाने जाते थे। विशाखदत्त ने अपने संस्कृत नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में भी क्षपणक के वेश में गुप्तचरों की स्‍थिति का उल्लेख मिलता है। ‘महा क्षपणक’ और ‘क्षपणक’ नामक लेख में श्री परशुराम कृष्ण गोड़े जी ने ‘अनेकार्थध्वनिमंजरी’ नामक कोश के रचयिता को क्षपणक माना है। इस ग्रंथ का समय 800 से 900 ई० माना जाता है।

शंकु– राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में शंकु का नाम उल्लेखनीय है। शंकु का पूरा नाम ‘शङ्कुक’ था। शङ्कुक को संस्कृत का विद्वान, ज्योतिष शास्त्री माना जाता था। प्रकीर्ण पद्यों में शंकु का उल्लेख शबर स्वामी के पुत्र के रूप में हुआ है। शबर स्वामी जी की चार पत्नियाँ थी। उनकी पहली पत्नी से वराह मिहिर, दूसरी पत्नी से भर्तृहरि और विक्रमादित्य, तीसरी पत्नी से हरीशचन्द्र, वैद्य और शंकु तथा चौथी पत्नी से अमरसिंह का जन्म हुआ। शबर स्वामी ‘शबरभाष्य’ के र‍चयिता थे।

शंकु को कुछ विद्वान मंत्रवादिन, कुछ विद्वान रसाचार्य और कुछ विद्वान ज्योतिषी मानते थे। वास्तव में शंकु क्या थे, यह बताना अभी असंभव है। ‘ज्योतिर्विदाभरण’ के एक श्लोक में इन्हेंकवि के रूप में चित्रित किया गया है। किंवदंतियों में इनका चित्रण स्त्री रूप में हुआ है। विक्रम की सभा के रत्न होने के कारण इनकी साहित्यिक विद्वता का परिचय अवश्य मिलता है।

 

वेतालभट्ट– विक्रमादित्य के रत्नों में वेतालभट्ट के नामोल्लेख से आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति का नाम वेतालभट्ट अर्थात भूत-प्रेत का पंडित कैसे हो गया? इनका यथार्थ नाम यही था या अन्य कुछ विदित नहीं हो पाया है। भूत-प्रेतादि की रोमांचक कथाओं के मध्य वेतालभट्ट की ऐतिहासिकता प्रच्छन्न (छिप) हो गई। विक्रमादित्य और वेताल से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं।

प्राचीनकाल में भट्ट अथवा भट्टारक, उपाधि पंडितों की होती थी। वेतालभट्ट से तात्पर्य है भूत-प्रेत-पिशाच साधना में प्रवीण व्यक्ति। प्रो. भट्टाचार्य के मत से संभवत: वेतालभट्ट ही ‘वेताल पञ्चविंशतिका’ नामक ग्रंथ के कर्ता रहे होंगे। वेतालभट्ट उज्जयिनी के श्मशान और विक्रमादित्य के साहसिक कृत्यों से परिचित थे। संभवत: इसलिए उन्होंने ‘वेताल पञ्चविंशतिका’ नामक कथा ग्रंथ की रचना की होगी। वेताल कथाओं के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयत्न से अग्निवेताल को वश में कर लिया था। वह अदृश्य रूप से उनके (राजा के) अद्भुत कार्यों को संपन्न करने में सहायता देता था। वेताल भट्ट साहित्यिक होते हुए भी भूत-प्रेत-पिशाचादि की साधना में प्रवीण  तथा तंत्र शास्त्र के ज्ञाता होंगे। यह भी संभव है कि वेताल भट्ट अग्नेय अस्त्रों एवं विद्युत शक्ति में पारंगत होंगे तथा कापालिकों एवं तांत्रिकों के प्रतिनिधि रहे होंगे। इनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता होगा। विक्रमादित्य ने वेताल की सहायता से असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया होगा।

 

घटखर्पर– जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि घटखर्पर किसी व्यक्ति का नाम नही हो सकता है। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं था। घटखर्पर के विषय में भी अल्प जानकारी ही उपलब्ध है। इनका यह नाम क्यों पड़ा, यह चिंतन का विषय है। इनके विषय में एक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि कालिदास के साथ में रहने से ये कवि बन गए थे। इनकी यह प्रतिज्ञा थी कि जो कवि मुझे ‘यमक’ और ‘अनुप्रास’ रचना में पराजित कर देगा, उसके घर वे फूटे घड़े से पानी भरेंगें। बस तभी से इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया। इनके रचित दो लघुकाव्य उपलब्ध हैं। इनमें से एक पद्यों का सुंदर काव्य है, जो संयोग श्रृंगार से ओत-प्रोत है। उसकी शैली, मधुरता, शब्द विन्यास आदि पाठक के हृदय पर विक्रम युग की छाप छोड़ते हैं। यह काव्य ‘घटखर्पर’ काव्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह दूत-काव्य है। इसमें मेघ के द्वारा संदेश भेजा गया है। घटखर्पर रचित दूसरा काव्य ‘नीतिसार’ माना जाता है। इसमें 21 श्लोकों में नीति का सुंदर विवेचन किया गया है। इनके प्रथम काव्य पर अभिनव गुप्त, भरतमल्लिका, शंकर गोवर्धन, कमलाकर, वैद्यनाथ आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे थे।

 

वररुचि– वररुचि कात्यायन पाणीनिय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार थे। वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ नामक काव्य की रचना की। ‘पत्रकौमुदी’ काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ काव्य की रचना की थी। वररुचि ने ‘विद्यासुंदर’ नामक एक अन्य काव्य भी लिखा था। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से किया था। ‘प्रबंधचिंतामणि’ में वररुचि को विक्रमादित्य की पुत्री का गुरु कहा गया है। ‘वासवदत्ता’ के लेखक ‘सुबंधु’ को वररुचि का भगिनेय कहा गया है, परंतु यह संबंध उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। ‘कथासरित्सागर’ के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम ‘कात्यायन’ था। इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था। जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे। एक समय ‘व्याडि’ और ‘इन्द्रदत्त’ नामक विद्वान इनके यहां आए। व्याडि ने प्रातिशाख्य का पाठ किया। इन्होंने इसे वैसे का वैसा ही दुहरा दिया। व्याडि इनसे बहुत प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहां इन्होंने शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार की परीक्षा उत्तीर्ण किया।

 

अमरसिंह– अमरसिंह प्रकांड विद्वान थे। बोद्ध गया के वर्तमान बुद्ध-मंदिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मंदिर का निर्माता कहा जाता है। राजशेखर द्वरा लिखित ‘काव्यमीमांसा’ के अनुसार अमरसिंह ने उज्जयिनी में काव्यकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। संस्कृत का सर्वप्रथम कोश अमरसिंह का ‘नामलिंगानुशासन’ है, जो अब भी उपलब्ध है तथा ‘अमरकोश’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘अमरकोश’ में कालिदास के नाम का उल्लेख आता है। मंगलाचरण में बुद्धदेव की प्रार्थना है और इस कोश में बौद्ध शब्द विशेषकर महायान संप्रदाय के हैं। अतएव यह निश्चित है कि कोश की रचना कालिदास और बुद्धकाल के बाद हुई होगी। अमरकोश पर 50 टीकाएं उपलब्ध हैं। यही उसकी महत्ता का प्रमाण है। अमरकोश से अनेक वैदिक शब्दों का अर्थ भी स्पष्ट हुआ है। डॉ. कात्रे ने इन वैदिक शब्दों की सूची अपने लेख ‘अमरकोशकार की देन’ में दी है। बोध गया के अभिलेख का उल्लेख ‘कीर्न’ महोदय ने ‘वृहज्जातक’ की भूमिका में किया है। अभिलेख में लिखा गया है कि विक्रमादित्य संसार के प्रसिद्ध राजा हैं। उनकी सभा में नव विद्वान हैं, जो नवरत्न के नाम से जाने जाते हैं। उनमें अमरदेव नाम का विद्वान राजा का सचिव है। वह बहुत बड़ा विद्वान है और राजा का प्रिय पात्र है। कालिदास ने विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में अमर का नामोल्लेख किया है। ज्योतिर्विदाभरण के 22वें अध्याय के 8वें श्लोक में अमर को कवि कहा गया है। उनका कोश संस्कृत साहित्य का अनुपम कोश है।

 

वराहमिहिर- वराहमिहिर ईसा के 5 वी 6 छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। वराहमिहिर ने ही अपने ‘पञ्चसिद्धांतिका’ में सबसे पहले बताया कि अयनांश (सूर्य की गति का विशेष भाग) का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। सूर्यनारायण व्यास के अनुसार राजा विक्रमादित्य की सभा में वराहमिहिर ज्योतिष के प्रकांड विद्वान् थे। वृद्ध वराहमिहिर के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। वृद्ध वराहमिहिर विषयक सामग्री अद्यावधि काल के गर्त में छिपी है। ‘वृहत्संहिता’, ‘वृहज्जातक’ आदि ग्रंथों के कर्ता वराहमिहिर गुप्त युग के थे। वराहमिहिर ने ज्योतिष विषयक अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। वे ग्रंथ हैं- ‘वृहत्संहिता’, ‘वृहज्जातक’, ‘समाससंहिता’, ‘लघुजातक’, ‘पञ्चसिद्धांतिका’, ‘विवाह-पटल’, ‘योगयात्रा’, ‘वृहत्यात्रा’, ‘लघुयात्रा। इनमें पञ्चसिद्धांतिका को छोड़कर प्राय: सभी ग्रंथों पर ‘भट्टोत्पल’ ने टीका ग्रंथों का प्रणयन किया। वराहमिहिर ने अपने ग्रंथों में यवनों के प्रति आदर प्रगट किया है। उन्होंने 36 ग्रीक शब्दों का प्रयोग किया है परंतु उन शब्दों का रूपांतर संस्कृत में किया है। उन्होंने यवन ज्योतिषियों के नामों का भी उल्लेख किया है अत: स्पष्ट है कि ग्रीक से यहां का व्यापारिक संबंध था इसी कारण साहित्यिक आदान-प्रदान हुआ। उनके ग्रंथों में यवनों के उल्लेख की आधारभूमि संभवत: यही है।

 

कालिदास- कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं औए दर्शन को आधार बनाकर रचनाएँ की। महाकवि कालिदास को राजा विक्रमादित्य की सभा का प्रमुख रत्न माना जाता है। कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्रानप्रिय कवि थे। कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में राजा विक्रमादित्य के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरुप निरुपित किया है। कालिदास जी की कथा भी विचित्र है। कहा जाता है कि माँ काली देवी के कृपा से उन्हें विद्या की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए इनका नाम कालीदास पड़ा। प्राय: समस्त प्राचीन मनीषियों ने कालिदास की अंत:करण से अर्चना की है। कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे ना केवल अपने समय के अप्रतिम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसे अप्रतिम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध है। ‘शकुंतला’ उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।

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