दुष्यंत और शकुंतला (कहानी)

प्रेम ना बारी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय,

राजा प्रजा जेहि रुचै, शीश देयी ले जाए।

कबीरदास जी कहते है कि प्रेम ना तो खेत में पैदा होता है और ना ही बाजार में बिकता है। राजा हो या प्रजा जो भी चाहे इसे (प्रेम को) अपना सिर झुका कर अथार्त घमंड को छोड़कर प्राप्त कर सकता है।

महाभारत के आदि पर्व में शकुंतला की कथा का वर्णन मिलता है। शकुंतला ऋषि विश्वामित्र और स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री थी। शकुंतला अपनी माँ की तरह ही सुन्दर थी। माता-पिता के द्वरा त्यागे जाने के बाद शकुंतला को ऋषि कण्व अपने आश्रम में ले गए और उसका पालन-पोषण किया। उसी आश्रम में पलकर शकुंतला बड़ी हुई।

एक दिन हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शिकार करते हुए ऋषि कण्व के आश्रम में पहुँचे। राजा दुष्यंत आश्रम के बाहर से ही ऋषि को पुकारे, उस समय ऋषि अपने आश्रम में नहीं थे। शकुंतला आश्रम से बाहर आई और बोली कि हे राजन! मैं ऋषि पुत्री शकुंतला हूँ। महर्षि अभी आश्रम में नहीं हैं। वे तीर्थ यात्रा के लिए गए हुए हैं। मैं आपका स्वागत करती हूँ। दुष्यंत आश्चर्य चकित हो गए और बोले महर्षि तो ब्रह्मचारी हैं तो आप उनकी पुत्री कैसे हुईं? शकुंतला ने दुष्यंत को बताया कि मैं महर्षि की गोद ली हुई कन्या हूँ। मेरे वास्तविक माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। ‘शकुंत’ नाम के पक्षी ने मेरी रक्षा की थी इसलिये महर्षि ने मेरा नाम शकुंतला रखा है। शकुंतला की सुन्दरता और मधुर वाणी सुनकर राजा बहुत प्रभावित और मोहित हो चुके थे। राजा दुष्यंत ने कहा, शकुंतले तुम मुझे बहुत पसंद हो, यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुंतला भी दुष्यंत को पसंद करने लगी और शादी के लिए हाँ कर दी। दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया और वन में ही रहने लगे। कुछ दिनों तक साथ रहने के बाद दुष्यंत ने शकुन्तला से कहा, मुझे अपने राज्य को सम्भालने के लिए जाना होगा। यह कहकर दुष्यंत ने शकुंतला को अपनी निशानी के रूप में एक अंगूठी दिया और अपने राज्य में वापस लौट गए। एक दिन शकुंतला के आश्रम में दुर्वासा ऋषि आये। उस समय शकुंतला राजा दुष्यंत के ख्यालों में खोई हुई थी। इसलिए शकुंतला ऋषि दुर्वासा को नहीं देख सकी और उनका आदर सत्कार नहीं कर सकी जिसके कारण क्रोधित होकर ऋषि दुर्वासा ने श्राप दे दिया कि जिसके ख्याल में तुम खोई हो वह तुम्हें ही भूल जाएगा। शकुंतला ने ऋषि से अनजाने में अपने किये गए इस अपराध के लिए क्षमा याचना किया तब ऋषि दुर्वासा ने शकुंतला को माफ करते हुए कहा कि जब तुम अपने प्यार की निशानी ‘अँगूठी’ को उसे दिखाओगी तब उसकी यादाश्त वापस लौट आएगी। यह कहकर उन्होंने शकुंतला को आशिर्वाद दिया और प्रस्थान कर गये। ये घटना जब घटी थी उस समय शकुंतला गर्भवती थी। कुछ समय बाद जब ऋषि कण्व तीर्थ यात्रा से लौटे तो शकुंतला ने उन्हें अपनी पूरी कहानी बताया। कण्व ऋषि ने कहा कि “पुत्री विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तुम्हारे पति का घर ही तुम्हारा  घर है”। इतना कहकर ऋषि ने शकुंतला को अपने शिष्यों के साथ उसके पति के घर हस्तिनापुर के लिए विदा कर दिया। शकुंतला अपने पति के घर जाने के लिए निकल पड़ी रास्ते में उसे एक सरोवर मिला। शकुंतला सरोवर में पानी पीने गई। उसी समय दुष्यंत की प्रेम की निशानी ‘अंगूठी’ सरोवर में गीर गया। उस अंगूठी को एक मछली निगल गई। शकुन्तला दुष्यंत के राज्य में पहुंच गई। कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुंतला को राजा दुष्यंत के पास ले जाकर कहा कि “महाराज! शकुंतला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें”। महाराज दुष्यंत ने शकुंतला को अपना पत्नी मानने से अस्वीकार कर दिया। राजा दुष्यंत दुर्वासा ऋषि के श्राप से सबकुछ भूल चुके थे। राजा दुष्यंत के द्वरा शकुंतला को अपमानित करते ही आकाश में बिजली चमकने लगी। शकुंतला की माँ मेनका आकर उसे अपने साथ ले गई और पुनः शकुंतला को कश्यप ऋषि के आश्रम में छोड़ दिया। दुसरे तरफ जिस मछली ने शकुंतला के अंगूठी को निगला था वह मछली एक मछुआरे के जाल में फंस गई थी। जब मछुआरे ने मछली को काटा तो मछुआरे को वह अंगूठी मिली। मछुआरा वह अंगूठी लेकर राजा के पास गया। राजा दुष्यंत ने जैसे ही उस अंगूठी को देखा तब उनको शकुंतला के साथ अपना बिताया गया सभी पल याद आने लगा। महाराज ने तुरंत सैनिकों को बुलाकर शकुंतला को खोजने के लिये भेज दिया लेकिन शकुंतला का कहीं भी पता नहीं चला। कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र का निमंत्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिए महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती पहुंचे। देवासुर संग्राम में विजय होने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तब रास्तें में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दिखा। महाराज कश्यप ऋषि के दर्शन के लिए वहाँ रुक गए। उन्होंने वहीं आश्रम में देखा कि एक छोटा सुन्दर सा बालक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा है। उस बालक को सिंह के साथ खेलते हुए देखकर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। महाराज जैसे ही उस बालक को उठाने के लिए आगे बढ़े वैसे ही शकुंतला की सखी जोर से चिल्ला पड़ी। सखी ने कहा “हे भद्र परुष! आप इस बालक को न छुयें नहीं तो बालक की भुजा में बंधा हुआ काला धागा साँप बनकर आपको डंस लेगा”। इतना सुनने के बावजूद भी दुष्यंत स्वयं को नहीं रोक सके और बालक को गोद में उठा लिया। शकुंतला की सखी ने तुरंत देख लिया कि बालक के हाथ में बंधा हुआ काला धागा पृथ्वी पर गीर गया था। सखी को इस बात का पता था कि जब कभी भी उसका पिता बालक को गोद में लेगा तब बालक के हाथ का धागा पृथ्वी पर गीर जायेगा। सखी बहुत प्रसन्न होकर शकुंतला के पास जाकर पूरी वृतांत सुनाई। शकुंतला खुश होकर महाराज के पास आई। महाराज दुष्यंत ने शकुंतला को पहचान लिया। उन्होंने शकुंतला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर शकुंतला को अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुर ले आये। इस बालक का नाम भरत था जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बना और उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

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