आलोचना का अर्थ, परिभाषा, स्वरुप तथा साहित्य और आलोचना के अंतः संबंध

‘आलोचना’ शब्द ‘लोच्’ धातु से बना है, लोच् का अर्थ है देखना। अतः आलोचना का अर्थ है ‘देखना’। किसी वस्तु या कृति की सम्यक् व्याख्या, उसका मूल्याङ्कन आदि करना आलोचना ही आलोचना है।  

      साहित्य के विश्व प्रसिद्ध आलोचक ‘रोमन याकोब्सन’ ने कहा था- “अगर मनुष्य ना होता, तब भी यह दुनिया होती। इसी तरह आलोचना के नहीं होने पर भी साहित्य होता, लेकिन मनुष्य के होने से यह दुनिया सुंदर और बेहतर बनी है। इसी प्रकार आलोचना के होने से ही साहित्य विकासशील, सामयिक और वैविध्यपूर्ण बना है।” आलोचना साहित्य के स्वरुप में यथोचित परिवर्तन लाकर उसे उस योग्य बनाती है जहाँ उसे होना चाहिए।

आलोचना का अर्थ – देखना, व्याख्या करना और मूल्यांकन करना।

अंग्रेजी में भी आलोचना के लिए तीन शब्द प्रचलित है- ‘क्रिटिसिज्म ‘(Criticism), ‘रिभ्यु’ (Review), और ‘ओपिनियन’ (Opinion) इन तीनों शब्दों के समानार्थी रूप में ‘आलोचना’ का व्यवहार होता है। 

      संस्कृत में प्रचलित ‘टीका-व्याख्या’ और ‘काव्य-सिद्धान्त निरूपण’ के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग किया जाता है। 

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना।

भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार आलोचना की परिभाषाएँ- 

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “साहित्य जीवन की व्याख्या है और आलोचना साहित्य की व्याख्या है।”

      डॉ. श्यामसुंदर के शब्दों में- “यदि साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते हैं तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना होगा।”

      बाबू गुलाबराय के शब्दों में- “साहित्य और साहित्यकार के रहस्य को उद्घाटित करना आलोचना है।”

      मिडिल्टन मरे के शब्दों में- “कला जीवन की सजगता है तथा आलोचना कला की सजगता है

      वार्सफिल्ड के शब्दों में- “आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापन है।”

      इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार- “आलोचना का अर्थ वस्तुओं के गुण-दोषों की परख करना, चाहे वह परख साहित्यिक क्षेत्र की हो अथवा ललित कला के क्षेत्र की।”

      डॉ. श्यामसुन्दर दास के शब्दों में- “साहित्य क्षेत्र में ग्रंथ को पढ़कर, उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके संबंध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है। यह आलोचना काव्य, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि सभी की हो सकती है।”

      हिंदी की विभिन्न विधाओं की तरह आलोचना का विकास भी आधुनिक काल की ही देन है। आलोचना का कर्तव्य साहित्यिक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या करना है। साहित्यकार जीवन और अनुभव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य की रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों की विश्लेषण करता है। साहित्य में जहाँ राग तत्व की प्रधानता होती है, वहीं आलोचना में बुद्धि तत्व की प्रधानता होती है। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रूचि के आधार पर किसी कृति की निंदा या प्रशंसा करना आलोचना नहीं कहलाता है। किसी भी रचना, कृति को व्याख्या या विश्लेषण करने के लिए आलोचना के पद्धति और प्रणाली का महत्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रूचि-अरुचि से तभी बच सकता है। आलोचक जब आलोचना पद्धति का अनुसरण करेगा तभी वह वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से आचार्य रामचंद्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।

      आलोचना को रचनाकार और कृति दोनों के गुण-दोषों की परख करने वाला शास्त्र माना जाता है। आलोचना कृति की उपादेय पर प्रकाश डालती है। आलोचना का कार्य सिर्फ कृति के गुण और दोष की विवेचन करना आज के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं है। आज कृति के विश्लेषण और उसकी व्याख्या को आलोचना का प्रमुख क्षेत्र माना जाता है। रचना को विश्लेषण और व्याख्या के माध्यम से उसकी आतंरिक संवेदना अथवा सौंदर्य को उद्घाटित करना आलोचना का प्रमुख कार्य है। इसीलिए आलोचना का उद्देश्य साहित्य के प्रति पाठक को संस्कारित करना माना गया है। पाठक को रचना के विषय में गहरी अंतर्दृष्टि के साथ कृति में प्रवेश करना आवश्यक है। आज आलोचना को सर्वश्रेष्ठ स्वरुप माना जाता है यदि आलोचना ऐसा नहीं करती है तो उसके स्वरुप में दोष माना जाएगा। समालोचना पूर्वाग्रह से मुक्त होनी चाहिए।

      आधुनिक युग में आलोचना को कृति-संधान का एक शास्त्र मानते हुए उस पर अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। दशकों पहले तक साहित्य में निर्णयात्मक आलोचना का प्रभाव था। इस दृष्टि के आलोचक अपने दृष्टिकोण, अपनी पसंद, अपनी रूचि के अनुसार किसी रचना के अथवा रचनाकार के अच्छा या बुरा होने का निर्णय दे देते थे। निर्णयात्मक आलोचना के कारण ही कवियों के प्रकार निर्धारित किये गए। जो कवि या काव्य आलोचक की रूचि के कोटि का नहीं होता था उसे निकृष्ट और जो है उसे श्रेष्ठ घोषित कर दिया जाता था। निर्णयात्मक आलोचना के विरोध में ही वह आलोचना आई जो साहित्य के विश्लेषण को प्रमुखता देती है।

आलोचना के स्वरुप-

      आलोचना के स्वरुप के संदर्भ में यह मान्यता है कि आलोचक काव्य का विश्लेषण करते हैं। उसके गुण-दोष का विवेचन नहीं करते। आगे चलकर इसमें परिवर्तन होता गया। परिवर्तन के साथ साहित्य का कोई भी मान निरंतर नहीं चलता है। अथार्त समाज, साहित्य और विचारधारा में परिवर्तन होता रहता है। अतः साहित्य का कोई आदर्श मान निर्धारित करना अंतिम नहीं है। यह जरुर है कि निर्धारित मानदंड के विवेचन के आधार पर आनेवाले समय में साहित्य समीक्षा के नए मान स्वीकार किए जाने लगे। आलोचना में मानों में बदलाव देखने के लिए हिंदी में दो पुस्तकें उल्लेखनीय हैं- डॉ. शिवकुमार मिश्र कृत आलोचना के मान तथा नामवर सिंह कृत कविता के नये प्रतिमान।

      यह सत्य है कि मनुष्य का मन हजारों अनुकूल और प्रतिकूल धाराओं के संघर्ष से अनुभव और संवेदना ग्रहण करता है। अगर इस सत्य को स्वीकार कर लिया जाए तो साहित्य के मूल्य निर्धारण का कोई एक सामान्य मानदंड नहीं हो सकता है क्योंकि साहित्य मनुष्य की इन्हीं बहूरूपी संवेदनाओं और अनुभूतियों का व्यक्त रूप है। जब आलोचक अपनी रूचि को प्रमुखता देते हुए साहित्य का मान निर्धारण करता है तब समस्या उत्पन्न होती है। दूसरे आलोचक एक ही कवि या कृति को अपनी रूचि के आधार पर उत्कृष्ट या निकृष्ट घोषित कर देता है। अतः यह कहा जा सकता है कि अपनी-अपनी रूचि और अपने-अपने सिद्धांत को लेकर साहित्य का यथार्थ निर्णय नही हो सकता है। अतः ऐसे प्रतिमानों की आवश्यकता होती है जो कम से कम आलोचना का एक आदर्श ढाँचा खड़ा करते हैं। चाहे वह परिवर्तनशील ही क्यों न हो। इस प्रकार आलोचना के निर्णयात्मक स्वरुप को आधुनिक आलोचना ने अस्वीकार कर दिया।

      निर्णयात्मक आलोचना को प्रभावशाली आलोचना भी कहा गया है। अथार्त रचना का अपने ऊपर पड़ने वाला प्रभाव ही जब आलोचना के लिए प्रमुख हो जाता है और वह आलोचना के सामान्य मापदंडों की भी अवहेलना करने लगता है। ऐसी स्थिति में की गई नई आलोचना को प्रभाववादी आलोचना कहा जाता है।

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रभाववादी के संबंध में यह मत व्यक्त किया है, “प्रभावभिव्यंजक समालोचना कार्य ठीक ठिकाने की वस्तु नहीं है। न ज्ञान के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य है न भाव के क्षेत्र में। उसे समीक्षा या आलोचना कहना ही व्यर्थ है।”

      शुक्ल जी का यह कथन इसलिए अधिक विचारणीय है क्योंकि आलोचना का कार्य कवि के लक्ष्य को और कृति के भाव को ठीक-ठीक समझने में सहायता करना है, जबकि प्रभाववादी आलोचक रचना के द्वारा अपना रंजन करते हुए उसे सार्वजनिक बनाने का यत्न करता है। प्रभाववादी आलोचना में आलोचक अपने भावावेग को दूसरों पर थोपना चाहता है। शुक्ल जी ने कहा है कि- ” काव्य का चरम लक्ष्य सर्वभूत को आत्मभूत कराके अनुभव करता है।”

      निर्णयात्मक और प्रभाववादी आलोचक रचना पर अपना पूर्ण आधिकार मान लेता था क्योंकि वह अपने आपको ही काव्य का सर्वोच्च रसिक समझता था। साहित्य से संबंधित अन्य बातों की ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती थी। इसके विपरीत आधुनिक आलोचना सबसे पहले साहित्य में निहित समस्याओं को केंद्र में रखना चाहती है। वह मानती है कि सामाजिक आर्थिक तथा  अन्य प्रकार की मानव जीवन से संबंधित समस्याओं को समझने-सुलझाने में साहित्य सहायक का काम करता है। अतः आलोचना को सामाजिक संदर्भो से जुड़ा होना चाहिए।

      नई आलोचना यह भी मानती है कि साहित्य रचना केवल, सजीले पद विन्यास, माधुर्य और अलंकार युक्त साहित्य तक ही सीमित नहीं रहती है। वह मानती है कि आलोचना को बौद्धिक विलास से आगे मानकर, मनुष्य की भावनाओं और अनुभूतियों का विश्लेषण होना चाहिए। उसे कृति के उन पक्षों पर भी प्रकाश डालना चाहिए जिनके कारण उसमे साहित्यिकता का समावेश हुआ है। हिंदी में कई ऐसे निबंध लिखे गए हैं जो सामजिक समालोचना के इसी पक्ष पर केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए- रामचंद्र शुक्ल के निबंध ‘कविता क्या है?’ (चिंतामणि, भाग-1) में साधारणीकरण, लोकमंगल की साधनावस्था को देखा जा सकता है।  

      नवीन आलोचना के परिप्रेक्ष्य में आलोचना में आलोचक की दृष्टि संतुलित होना चाहिए। इसका एक आशय यह है कि आलोचना भावावेग और पक्षपात मुक्त हो और दूसरा यह है कि वह संतुलित दृष्टि रखते हुए रचना को एकांगी रूप में नहीं देखकर संपूर्णता से देखे। संतुलन के माध्यम से ही कृति के अनजान पहलुओं को आलोचक सामने ला सकता है, जिनकी ओर सामान्य पाठक का ध्यान नहीं जा पाता है। अतः आज की आलोचना में साहित्य निम्नलिखित कार्य करता है। जिन्हें आलोचक को ध्यान में रखना अनिवार्य होता है-

      1. साहित्य सामाजिक जीवन की बहुविध परख करता है।

      2. साहित्य में प्रकट उद्गार भाषाबद्ध होते हैं।

      3. साहित्य दुराग्रही मूल्यों की आलोचना करता है तथा मुक्त मूल्यों का समर्थन          करता है।

      4. साहित्य में युग सत्य प्रवाहित होता है और समय के साथ वह बदलता भी है।

      5. साहित्य का मूल्य लक्ष्य है मनुष्य की आतंरिक भावनाओं को प्रस्तुत करना।

      साहित्य की इन सभी विशेषताओं को समेटते हुए ही प्रगतिशील/प्रगतिवादी साहित्य की स्थापना की गई थी। साहित्य में बंधे हुए अनुभवों, सत्यों और विचारों को परखने के लिए प्रगतिशील आलोचना सामने आया। यह आलोचना मनुष्य को सर्वाधिक महत्व देती है और मनुष्य को बाँटने वाली शक्तियों की निंदा करती है। आलोचना दृष्टि के अनुसार साहित्य वर्गहीन समाज की स्थापना का एक साधन है। अतः आलोचक को प्रगतिशीलता के तत्वों पर ध्यान देते हुए चलना चाहिए। प्रगतिशील साहित्यकार इसी मार्ग पर चलता है। आलोचक अपनी प्रगतिशील दृष्टि से इस प्रकार के साहित्य की आलोचना करता है। तभी समाज की प्रतिगामी प्रगतिशील शक्तियों का विवेचन संभव हो पाता है और साहित्य को समाज की आदर्श-संरचना के निर्माण में सहयोगी बनाने का संकल्प आलोचक लेता है। आलोचना का स्वरुप काल और कालगत परिस्थितियों और प्रवृतियों के कारण बदलता रहता है। हर प्राचीन साहित्य त्याग, तप, दया, बलिदान आदि मूल्यों को लेकर रचा गया था। मोक्ष, स्वर्ग और अध्यात्म इसके मूल में थे। अतः इसकी आलोचना व्याख्यात्मक होकर ही समाप्त हो जाती थी। इसके बाद के साहित्य का एक ढाँचा जिसमे कला और शिल्प विधान की रीतियाँ निर्धारित की गई। अब रचना के प्रारंभ में ‘नांदी सूत्र’ होना चाहिए और मंगलाचरण होना चाहिए। अंत में भरत वाक्य तथा काव्य को महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत होना चाहिए जैसी धारणाएँ बन गई। किसी कवि ने इन रीतियों का प्रयोग किया या नहीं किया, और किया है तो कितनी, ये बातें इस आलोचना का आधार बनी। इसके बाद साहित्य पूरी तरह यथार्थ जीवन पर आधारित हो गया। साहित्य से आध्यात्मिक मूल्य दूर होते गए। साहित्य का एक मात्र लक्ष्य व्यक्ति और समाज की साधारण को असाधारण बनाकर अभिव्यक्ति करना हो गया। साहित्य की इस आधुनिकता ने आलोचना से भी नव्य बनने की माँग की क्योंकि पुराने साहित्य आलोचनात्मक मापदंडों पर साहित्य की परख नहीं की जा सकती थी। यहीं से आलोचन की आधुनिक दृष्टि ने जन्म लिया, जिनकी चर्चा विस्तार से की गई है। समाजशास्त्रीय आलोचना और मनोवैज्ञानिक आलोचना में नौ आलोचना दृष्टियों पर विचार किया गया है। वे सभी आधुनिक आलोचना की स्वीकार्य और विकसित आलोचना दृष्टियाँ हैं, जिन्हें आलोचना के प्रकार या क्षेत्र कह सकते हैं।

      हिंदी साहित्य के इतिहास में साहियाकारों ने एकाध निबंध अवश्य ही अपने समय की आलोचना दृष्टि से लिखा होगा। कई रचनाकारों ने अलग से भी आलोचना ग्रंथ लिखें हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में निबंधों का ऐसा भंडार है जो आलोचना प्र केंद्रित है। यदि इन्हें देखा जाए तो आलोचना के नये पुराने संदर्भों का परिचय मिल सकता है। साहित्य कोई भी उसकी आलोचना ही उसे सर्वांगीण देख पाती है।

साहिय के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कथन है- “भाव और शैली आदि में कितने भी परिवर्तन क्यों न होते रहें जो साहित्य हमें एकत्व की अनुभूति की ओर उन्मुख करेगा, हमें पाशविक मनोवृतियों से ऊपर उठाकर प्रेम और मंगलमय मनुष्य धर्म में प्रतिष्ठित करेगा, वही वस्तुतः साहित्य कहलाने का अधिकारी होगा।”    

आलोचना के दो प्रकार हैं- सैद्धान्तिक आलोचना तथा व्यवहारिक आलोचना

      1. सैद्धांतिक आलोचना– साहित्य संबंधी सामान्य सिद्धांतों पर विचार किया जाता है। ये सिद्धांत शास्त्रीय भी हो सकते हैं और ऐतिहासिक भी, शास्त्रीय सिद्धांतों का स्वरूप स्थिर और अपरिवर्तनशील होता है, जबकि ऐतिहासिक सिद्धांतों का स्वरूप परिवर्तनशील और विकासात्मक होता है।

      2. व्यावहारिक आलोचना– जब सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाय, तो उसे व्यावहारिक आलोचना कहा जाता है। व्यावहारिक आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है।

आलोचना की निम्नलिखित दृष्टियाँ-

      रसवादी आलोचना- किसी रचना या रचनाकार का मूल्यांकन करते समय रस को सर्वाधिक महत्व देना रसवादी आलोचना कहलाता है। रसवादी चिंतन का भारतीय परिप्रेक्ष्य अत्यंत व्यापक और विवेचनीय है। प्रमुख रूप से आनंदवर्धन (ध्वन्यालोक) और अभिनवगुप्त (अभिनव भारती) को रस सिद्धांत के निरुपम का आचार्य माना जाता है। इन दोनों के पहले और बाद में भी रस सिद्धांत पर विमर्श हुए हैं लेकिन इन दोनों का विवेचन विस्तृत और वैज्ञानिक है। सिद्धांत के स्तर पर रस के संबंध में तीन बातें मानी गई है-

      1. रस की स्थिति 2. उसकी प्रक्रिया क्या है 3. उसका स्वरुप क्या है। 

      ऐतिहासिक आलोचना- जब किसी रचना की आलोचना युगीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में की जाती है तो उसे ऐतिहासिक आलोचना कहा जाता है। इसके अंतर्गत वे आलोचनाएँ आती हैं, जिसमे किसी रचना का मूल्यांकन रचनाकार के ‘जाति’, ‘वर्ग’ और ‘समाज’ के आधार पर किया जाता है। इस आलोचना पद्धति का आरंभ प्रसिद्ध इतिहासकार ‘तेन’ ने किया था। यह हिंदी आलोचना की अमूल्य निधि है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर’ और ‘नाथपंथियों’ का मूल्यांकन इसी आलोचना पद्धति से किया है।

      समाजशास्त्रीय आलोचना- समाजशास्त्रीय आलोचना एक व्यापक दृष्टिकोण से संबंधित आलोचना पद्धति हैइसका महत्व इस बात से है कि साहित्य से संबंधित सभी प्रभावी व्यक्तित्व समाज से ही संबंधित रहते हैं। चाहे वह स्वयं रचनाकार, पाठक हो या विभिन्न वर्गों और समुदाय से संबंधित पात्र हों। साहित्य को सामाजिक कला भी कहा जा सकता है क्योंकि सामाजिक जीवन और सामाजिकता के विविध आयामों से होकर ही साहित्य का सृजन होता है। समाजशास्त्रीय आलोचना दोनों का विश्लेषण करती है कि साहित्य में सामाजिक कार्य कैसे और समाज में साहित्य कैसे कार्य करता है।     

      मार्क्सवादी आलोचना- आधुनिक हिंदी आलोचना की प्रगतिशील धारा ने मार्क्सवादी विचार धारा और दर्शन से अपना आधार ग्रहण किया है। हिंदी आलोचना को स्वछंदतावादी आलोचना की परिधि से निकालकर मार्क्सवाद और यथार्थवाद ने उसका संबंध फिर से बाह्य जगत और मानवीय एवं सामाजिक सरोकारों से जोड़ा तथा वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की।

      मनोविश्लेषणवादी आलोचना- साहित्य मानव जीवन की आलोचना और मानव सभ्यता के विकास का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज है। बाह्य परिस्थितियों की आतंरिक भावनाओं पर होनेवाली प्रतिक्रिया का विश्लेषण करना मनोवैज्ञानिक आलोचना कहलाता है। इस प्रकार की रचना की परख आलोचना करने से पहले रचनाकारों के मनःस्थिति का अध्ययन करना भी आवश्यक होता है।

      रूपवादी आलोचना- रूपवादी विचारधारा में प्रमुखतः किसी भी साहित्यिक रचना को उसके रूपगठन के आधार पर विश्लेषित करने अथवा उसकी आलोचना करने पर बल दिया जाता है। रुपवादी आलोचना का प्रारंभिक स्वरुप है प्राग-स्कूल (चोकोस्लोवाकिया) के चिंतन में मिलता है। इसकी यह मान्यता है कि किसी भी भाषिक इकाई की संरचना उस इकाई के भीतर पाए जाने वाले संबंधों की व्यवस्था है। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा का रूप विधान उसकी संरचनागत इकाइयों के सटीक संयोजक और उपयुक्त सहसंबंधों के आधार पर नहीं बनता तो भाषा या तो निरर्थक हो जायेगी अथवा उसका अर्थ विधान दोषपूर्ण बन जाएगा।       

      मिथकीय आलोचना- हिंदी में मिथक शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के ‘मिथ’ के रूप में किया जाता है। मिथक से ऐसी काल्पनिक घटनाओं का अर्थ लगाया जाता है जो अलौकिक और अद्भुत होती है। आदिमानव प्रवृतियों में मिथक का अपना विशेष स्थान है। मिथकों के आधार पर साहित्य का मूल्यांकन किया जाता है। इस आलोचना में मनोविज्ञान का प्रभाव लक्षित होता है। इसके अंतर्गत साहित्य का मूल मानव वृतियों के साथ सहजात संबंध स्थापित करते हुए उसे एक व्यापक पीठिका पर प्रतिष्ठित किया जाता है। इसका अध्ययन मानव चेतना की अन्य अभिव्यक्तियों जैसे- जीवविज्ञान, नृतत्वशास्त्र, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान आदि के परिप्रेक्ष्य में ही संभव है।   

      सौंदर्यशास्त्रीय आलोचना- सौंदर्यशास्त्र कोई आलोचना दृष्टि नहीं है। यह साहित्य सृजन और साहित्य अध्ययन को सूक्ष्म दिशा देने वाली एक प्राविधि है, जिसके माध्यम से साहित्यिक कृति का अनेक धरातलों पर अध्ययन विवेचन किया जा सकता है। भारतीय संदर्भ में सौंदर्यशास्त्र की पृष्ठभूमि नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र में दिखाई पड़ती है। डॉ. नगेंद्र का यह मानना है कि “सौंदर्यशास्त्र भारतीय वाड्मय के लिए एक नया शब्द है।” हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में इस शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के ‘एस्थेटिक्स’ के पर्याय के रूप में हुआ है। ‘एस्थेटिक्स’ पाश्चात्य काव्यशास्त्र का शब्द है जिसका अर्थ है- ‘ऐंद्रिय संवेदन का शास्त्र’ विचारकों की दृष्टि में सौंदर्य मूलतः एक प्रकार का ऐन्द्रिय संवेदन ही है।    

      शैलीवैज्ञानिक आलोचना- यह माना जाता है कि शैली विज्ञान आलोचना का सिद्धांत ही नहीं, बल्कि साहित्यिक कृतियों के अध्ययन की प्रणाली और तकनीक भी है। यही कारण है कि शैली विज्ञान की प्रकृति एक ओर सैद्धांतिक है तो दूसरी ओर संक्रियात्मक भी है। इसीलिए शैली विज्ञान आलोचना में सिद्धांतों और इन सिद्धांतों के आधार पर वास्तव में किये गए पाठ विश्लेषण दोनों को समान महत्व दिया जाता है। यह आलोचना भाषिक संरचना पर विशेष बल देने के कारण शैली वैज्ञानिक आलोचना के रूप में प्रतिष्ठित हुई है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नागेन्द्र, भोलानाथ तिवारी और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रमुख शैली वैज्ञानिक आलोचक हैं।

साहित्य और आलोचना के अंतः संबंध

      सामाजिक जीवन मनुष्य के साथ अटूट ढंग से जुड़ा हुआ है। इस जुड़ाव के परिणाम स्वरुप ही मनुष्य और समाज के बीच सुनिश्चित और अपरिहार्य संबंध स्थापित होते हैं। सामाजिक जीवन मनुष्य के लिए निर्माण का आधार होता है। मनुष्य के निर्माण में उसकी दो क्षमताएँ सहायक होती हैं- ‘बौद्धिक क्षमता’ तथा ‘संवेदनात्मक क्षमता’ साहित्य मनुष्य की संवेदनात्मक क्षमता का परिणाम है। मनुष्य के अनुभव अनुभूति और संवेदना का विस्तार सामाजिक अवस्था में ही होती है। अथार्त किसी भी कला के सृजन का प्रत्यक्ष या परोक्ष आधार समाज ही होता है। साहित्य और समाज अथवा साहित्य और सामाजिक जीवन के इस अटूट और पारस्परिक संबंध का मूल कारण मनुष्य का सामाजिक होना है। साहित्य आलोचना की परंपरा में चाहे वह भारतीय हो या पाश्चात्य यह स्पष्ट दिखाई देता है कि सब में साहित्य और समाज के संबंधों का गहराई से विवेचना किया गया है। साहित्य की आलोचना में सामाजिक जीवन की व्याख्या हमेशा अंतर्निहित होती है। साहित्य की रचना के पीछे प्रमुखतः सामाजिक दबाव होते हैं। इसीलिए आलोचना दृष्टि चाहे कोई भी हो उसमे साहित्य और समाज के संबंधों की अनिवार्यता का कोई विवाद नहीं है। साहित्य एक सामाजिक घटना है जिसके निर्माण में सामाजिक परिस्थितियाँ ही कारण बनती हैं।

साहित्य और समाज के संबंधों के प्रमुख तीन कारण है-

      1. साहित्य सर्जन की मूल्य अनुभूति निश्चित ही वैयक्तिक, निराली और निजी होती है लेकिन अंततः वह सामाजिक प्राणी है। अतः उसकी रचना सामाजिक ही होगी।

      2. प्रत्येक रचना, कला के स्तर पर, रचनाकार के व्यक्तित्व की छाप लिए हुए होती है। अतः वह रचना समाज के अन्य सदस्यों के बीच एक संपर्क सेतु होती है। साहित्य यह सेतु समाज में आबद्ध होकर ही बना पाता है।

      3. प्रत्येक रचना कला के स्तर पर पाठक को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है। तब पाठक रचना की संवेदना और उसमे व्यक्त विचारों की अभिव्यक्ति परक शक्ति से प्रभावित होते हुए उस पर विचार करता है। इन सभी में एक प्रकार की सामाजिक शक्ति निहित रहती है, क्योंकि रचनाकार की संवेदना, विचार और भाषा पर समाज का गहरा प्रभाव होता है। जब ये प्रभाव रचना में रूपांतरित होता है, तब वे जनमानस को प्रेरित करता है।

      इस प्रकार साहित्य और समाज के बीच का संबंध अनिवार्य संबंध है। कोई भी कला समाज के प्रभाव से मुक्त या निरपेक्ष नहीं रह सकती। कला का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य अथार्त समाज का।

साहित्य और समाज के बीच संबंधों की जटिलता के निम्नलिखित कारण है-

      1. रचनाकार तथा समाज का दृष्टिकोण एक दूसरे के प्रति बदलता रहता है।

      2. साहित्य और समाज के संबंध का इतिहास भी बदलता रहता है।

      3. साहित्य और समाज के परस्पर संबंध के अनेक रूप होते हैं क्योंकि इनमे रचना के प्रकारों की विभिन्नता होती है।

      4. साहित्य में समाज की प्रमुखता एक प्रकार के सृजन को प्रोत्साहित करती है तो साहित्य की सामाजिक प्रयोजनीयता दूसरे प्रकार के साहित्य को। दोनों में साहित्य और समाज का संबंध होता है लेकिन इसकी दिशा बदल जाती है।

निष्कर्ष- किसी भी साहित्य की आलोचना अपने समय और समाज की सापेक्षता और प्रसंगानुकूलता में संभव होती है। तभी आलोचना की सार्थकता और साथ ही साथ रचना की मूल्यवत्ता प्रमाणित होती है। इस प्रसंगानुकूलता और सापेक्षता की तलाश में आलोचना की सामाजिकता या सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रश्न उठता है। अतः आलोचना साहित्य का शास्त्र नहीं बल्कि साहित्य का जीवन है, जो बदलते हुए सामाजिक संदर्भों में बार-बार रचा जाता है। आलोचना परखे हुए को बार-बार परखती है और जीवन-संबंधों के विकल्प की तलाश में साहित्य और आलोचना की सह-यात्री बनी रहती है। आलोचना का संबंध एक साथ इतिहास और सामाजिक विमर्श दोनों से होता है। इस प्रकार हम देखते है कि हिंदी आलोचना आरंभ से ही सामाजिक सरोकारों में गहरे स्तर पर जुड़ी हुई है। युगीन हलचलों, वैचारिक द्वंदों सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक राष्ट्रीय चिंताओं के सापेक्ष आलोचना के स्वरुप में भी व्यापक बदलाव हुआ है। सबसे अहम् यह है कि हिंदी आलोचना रचनात्मक साहित्य के नवीन सृजन, नवीन विचारधाराओं और नवीन सामाजिक सरोकार से टकराते हुए विविध दृष्टियों, प्रतिमानों और प्रवृतियों से युक्त होती है। आलोचना के महत्व को मनुष्य के जातीय जीवन और उसकी संस्कृति से जोड़कर साहित्य का विश्लेषण करने की प्रक्रिया से ही किसी भी साहित्य की आलोचना अपने समय और समाज की सापेक्षता और प्रसंगानुकूलता में संभव होती है। इसी में आलोचना की सार्थकता और मूल्यवत्ता प्रमाणित होगी।

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