रचना – मुर्दहिया, (1910 ई.),
दूसरा भाग- मणिकर्णिका (2014 ई.)
रचनाकार – तुलसीराम (दलित आत्मकथा)
* संभवतः यह हिंदी की पहली आत्मकथा है, जिसमें केवल दलित ही नहीं अपितु गाँव का संपूर्ण लोक जीवन ही केंद्र में है।
* ‘मुर्दहिया’ दलित समाज की त्रासदी और भारतीय समाज की विडंबना का सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आख्यान है।
* अंधविश्वास हिंदू सांस्कृतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए रचे गए है- ‘मुर्दहिया’ इसका पर्दाफ़ाश करती है।
* 184 पृष्ठों की इस आत्मकथा में उन्होंने अपनी आरंभिक पढ़ाई से लेकर मैट्रिक तक की पढ़ाई का चित्रण किया है।
* डॉ. तुलसीराम ने अपनी इस आत्मकथा को सात उप-शीर्षकों के माध्यम से अपने जीवन की एक-एक पड़ाव को पाठकों के सामने रख दिया है।
‘मुर्दहिया’ आत्मकथा के सात उप-शीर्षक निम्नलिखित है:
1. भुतही पारिवारिक पृष्ठभूमि
2. मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन
3. अकाल में अंधविश्वास
4. मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन
5. भूतनिया नागिन
6. चले बुद्ध की रह
7. आजमगढ़ में फाकाकशी
उल्लेखनीय यह है कि लेखक केंद्र में नहीं है। केंद्र में है दलित जीवन, उनकी अंधश्रधाएँ, कर्मकांड, भूतों के प्रति भय, सवर्णों का जीवन, दलितों का संघर्ष, आपसी होड़, दरिद्रता, रोजी रोटी की तलाश, त्योहार, पूजा-पाठ, लोकगीत, गाँव में बसे कुछ विक्षिप्त परंतु शिक्षा की घोर अवहेलना उससे संबंधित जानबूझकर फैलाई गई अफवाहें दलित संघर्ष आदि।
तुलसी की आत्मकथा के दोनों भाग – मुर्दहिया और मणिकर्णिका मृत्यु और मुर्दों से ही जुड़ी हुई घटनाएँ है।
मुर्दहिया के द्वितीय अंक में एक दिन तुलसीराम अपने मुन्नर चाचा को यह कहते हुए सुनते हैं कि – “अब भारत में समोही खेती होई, और सब कमाई सब खाई, नेहरू जी करखन्न खोलिहीं आ पाँच साल में योजना बनइही। पहले हकबट होई पिफर चकबट।”
तुलसीराम इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि – “सारी बातें तो मुझे समझ में नहीं आई, किन्तु ‘हकबत’ तथा ‘चकबट’ और सब कमाई सब खाई मुझे अच्छी तरह समझ में आया था तथा यह भी कि यह वर्तमान रूस की देन है।”
इस आत्मकथा की एक बड़ी विशेषता है कि इसमें आत्मकथा का नीजी अनुभव के साथ गाँव के लोग भी हैं।
मुर्दहिया के पात्र:
धीरज – लेखक की माँ, साधारण ग्रामीण और गृहिणी
जूठन – लेखक के दादाजी जिन्हें अंधविश्वास के अनुसार भूतों ने पीट-पीटकर मार डाला
मुसरीया – शतायु अवस्था में जीवित लेखक की दादी
सोम्मर – लेखक के पिता के बड़े भाई जो 112 गांवों के चमारों के चौधरी थे
मुन्नेसर काका – लेखक के पिता के दूसरे नंबर के भाई ‘शिवनारायण पंथी’ धर्मगुरु
नग्गर काका – लेखक के पिता के तीसरे भाई स्वभावतः गुस्सैल और हिंसक स्वभाव के। ये भी ‘शिवनारायण पंथी’ धर्मगुरु है।
मुन्नार काका – लेखक के पिता के सबसे छोटे भाई। ये सहज और सामंजस्यवादी तथा पुरे संयुक्त परिवार के मुखिया थे।
मुंशी रामसूरत – लेखक के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक कट्टर जातिवादी थे।
परशुराम सिंह – प्रधानाध्यापक (हेडमास्टर)
संकठा सिंह – प्राथमिक विद्यालय में लेखक का घनिष्ट मित्र।
करपात्री महाराज – हिन्दू कोड बिल के विरोधी और रामराज्य पार्टी के नेता
सुग्रीव सिंह – लेखक के शिक्षक जो स्वयं गोरखपुर विश्वविद्यालय से पढ़कर आए थे। हिंदी के शिक्षक जो लेखक को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करते थे।
रामधन – आजमगढ़ के दलित नेता
तपसीराम – लेखक को उच्च शिक्षा के लिए BHU के लिए सलाह देते थे
अरुण सिंह – आजमगढ़ के कम्युनिष्ट नेता
जेदी काका – अंग्रेजों ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इन्हें जबरन युद्ध के लिए उठा ले गए थे।
देवराज सिंह – बस्ती जनपद का युवक जो आजमगढ़ में लेखक के साथ पढ़ता और मित्र भी था। परंतु लेखक की छात्रवृति आने पर वह चाक़ू के बल पर आधा रुपये ले लेता था।
किसुनी भौजी तथा सुभगीया – गाँव कि नवविवाहित स्त्रियाँ जो अपने घर तथा वैवाहिक जीवन के दुखों को चिट्ठी के द्वारा दूसरे प्रदेशों में अपने पतियों को भेजती थी। चिठ्टी लेखन का काम लेखक अथार्त बालक तुलसीराम का था।
मुर्दहिया की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ:
* “हमारे गाँव में ‘जियो-पोलिटिक्स’ यानी भू राजनीती में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी।”
* “तमाम दलित लड़कों को रावन की सेना में विभिन्न राक्षसों की भूमिका दी जाती थी। हम राक्षस बनकर रोज रामलीला में मरते थे।”
* “मुर्दहिया आजमगढ़ में स्थित लेखक के गाँव के श्मशान घाट का नाम है यह दलित जीवन की कर्मस्थली है।”
* “मुर्दहिया हमारे गाँव धर्मपुर (आजमगढ़) की बहुदेशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते यहाँ से ही होकर गुजरते हैं।”
* “मुर्दहिया की भूमिका में डॉ तुलसीराम ने यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि – “मेरे भीतर से मुर्दहिया को खोद-खोदकर निकालने का काम ‘तद्भव’ पत्रिका के संपादक अखिलेश ने किया है। अथार्त मुर्दहिया लिखने की प्रेरणा और उर्जा उन्हें लेखक/संपादक अखिलेश के निवेदन से मिली।”
* “पढ़ाई के दृष्टिकोण से हेडमास्टर परशुराम सिंह मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे वे हमेशा कक्षा में मेरी प्रशंसा करते और जब वे खुश होते तो कहते- ई चमरा एक दिन हमरे स्कूल के इज्जत बढ़ाई।”