- ‘भ्रमरगीत सार’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित महाकवि सूरदास के पदों का संग्रह है।
- उन्होंने सूरदास के भ्रमरगीत से लगभग 400 पदों को छांटकर भ्रमरगीतसार के रूप में प्रकाशित किया था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद दिवेदी और श्यामसुन्दरदास के अनुसार-
सूरदास का जन्म: 1474 ई० ‘रुनकता’ नामक गाँव में हुआ था। डॉ नगेन्द्र, डॉ गंपतिचंद्र गुप्त, 252 वैष्णवन की वार्ता और 84 वैष्णवन की वार्ता साहित्य के अनुसार- उनका जन्म ‘सीही’ में हुआ था। 252 और 84 वैष्णव की वार्ता (सर्वमान्य है)
निधन- सूरदास का निधन 1583 ई० गोवर्धन के निकट पारसौली (मथुरा) में हुआ था। सूरदास और तुलसी जी कि यहीं पर भेंट हुई थी।
गुरु- वल्लभाचार्य 1509-10 में ‘पुष्टिमार्ग’ की दीक्षा ली थी।
सूरदास के उपनाम:
- ‘पुष्टिमार्ग का जहाज’ विट्टलनाथ ने कहा
- ‘भक्ति का समुंद्र’ वल्लभाचार्य और नाभादास दोनों ने कहा
- ‘खंजन नयन’ अमृतलाल नागर ने कहा
- ‘वात्सल्य रस का सम्राट’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा
- ‘जिवनोत्सव का कवि’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कह,
- ‘हिन्दी साहित्य के आकाश का सूर्य’ भिखारीदास ने कहा। भिखारीदास ने एक दोहा लिखा-
- “सुर-सुर तुलसी शशि उड़गन केशवदास,
अबके कवि खद्योत सम, जंह तंह करत प्रकाश।”
कुछ विद्वानों के अनुसार- सूरदास जन्मांध थे, तो कुछ के अनुसार वे बाद में अंधे हुए।
जन्मांध मानने वाले विद्वान: ‘वार्ता साहित्य’ (लेखक गोकुलनाथ) 252 और 84 वैष्णवण की वार्ता, मिश्रबंधु, भक्तमाल नाभादास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ राम विलास शर्मा।
जन्म के बाद में अंधा मानने वाले विद्वान: आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी, डॉ नामवर सिंह, प्रियादास (इन्होने ‘भक्तमाल’ का टीका लिखा था), मोतीलाल मेनारिया, नंददुलारे वाजपेयी आदि।
सूरदास की रचनाएँ:
- नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के अनुसार: इनकी 24 रचनाएँ है।
- पीतांबर दत्त बडथ्वाल के अनुसार रचनाओं की संख्या 12 है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनकी रचनाओं की संख्या 9 है।
- आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी के अनुसार रचनाओं की संख्या 7 है।
- वर्तमान में इनकी उपलब्ध रचनाएँ 3 है।
- पंडित दीनदयाल गुप्त ने इनकी रचनाओं की संख्या 25 मानी है। पंडित दीनदयाल गुप्त की रचना ‘कृष्णभक्ति सागर’ है। इसमें 116 कृष्ण भक्त कवियों का उल्लेख है।
- सूरदास की प्रामाणिक रचना 3 है। ‘सूरसागर’, ‘सूरसारावली’ और ‘साहित्य लहरी’।
सूरसागर: सूरसागर की रचना ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ के आधार पर हुई है। इसमें पदों की संख्या नाभादास ने ‘सवालाख’ मानी है। ‘वार्ता साहित्य’ में भी पदों की संख्या ‘सवालाख’ मानी गई है। वर्तमान में सूरसागर में 4936 (लगभग 5000) मानी है।
‘सूरसागर’ का संपादन: श्यामसुंदर दास ने किया और इसे नागरी प्रचारिणी सभा-काशी से 1922 ई० में प्रकाशित करवाया था। इसमें पदों की संख्या 4936 है। कुछ विद्वान पदों की संख्या (6000) भी मानते हैं। सूरसागर में कूल 12 अध्याय हैं। जिन्हें ‘स्कंध’ कहा गया है।
1 से 8 तक के स्कंधों में पौराणिक कथाएँ हैं।
9 वें स्कंध में हल्का-फुल्का राम कथा का भी चित्रण है।
10 वां स्कंध सबसे बड़ा है। इसमें ‘बाललीला’ और ‘रासलीला’ का चित्रण है।
11 वें और 12 वें स्कंदों में ‘भ्रमरगीत’ का उल्लेख है।
भ्रमरगीत: सूरदास जी ने भ्रमरगीत नाम की कोई पुस्तक नहीं लिखी है। श्रीमद्भागवत पुराण के 46, 47, 63, 67 वें स्कंधों में एक प्रसंग आता है। श्रीकृष्ण के मित्र उद्धव को ज्ञान और योग का अहंकार हो जाता है। तभी श्री कृष्ण उद्धव को गोपियों के पास भेजते हैं जहाँ पहुँचकर उनका भ्रम दूर होता है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरसागर से 416 पद लेकर 1908 ई० में ‘भ्रमरगीत सार’ (नागरी प्रचारणी सभा-काशी) प्रकाशित करवाया।
- 1916 ई० में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमे 120 पद शामिल थे।
‘सूरसागर’ के विशेष तथ्य:
- सूरसागर मुक्तक व गेय रचना है।
- इसमें 68 तरह के रागों का प्रयोग किया गया है।
- डॉ नगेन्द्र ने इसे ‘संगीत कोष’ कहा है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘उपालंभ’ (उलाहना) काव्य कहा है।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इसे स्त्रियों का विशाल काव्य कहा है।
- सूरदास के माध्यम से सगुण भक्ति का मंडन और निर्गुण भक्ति का खण्डन किया गया है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन- “सूरसागर पहले से चली आ रही किसी गीति काव्य पंरम्परा का चाहे वह मौखिक ही क्यों नहीं रही हो विकास सा प्रतीत होता है।”
- सूरसागर में कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा गमन तक की कथा का चित्रण है।
सूरसारावली:
- सूरसारावली में पदों की संख्या 1103 है।
- ‘गुरु परसाद होत यह दरसन सरस (सरसठ) बरस प्रवीण’ सूरसारावली में इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने अपनी अवस्था 67 वर्ष बताया है।
- वर्ण्य विषय: इस रचना में ‘सूरसागर’ का सार प्रस्तुत किया है।
- टिपण्णी: डॉ मुंशी वर्मा जी इसे सूरदास की रचना नहीं मानते हैं क्योंकि सूरसारावली तथा सूरसागर में वर्णित घटनाओं में वैषम्य मिलता है। इसमें सूरसागर की अनुक्रमणिका भी है।
साहित्यलहरी:
- इसमें पदों की संख्या 118 है। (नगरी प्रचारणी सभा काशी)
- कुछ रचनाकार मूलरूप से इसमें 288 पद मानते है।
- साहित्य लहरी की रचना सूरदास जी ने नंददास जी को काव्यशास्त्र की शिक्षा देने के लिए किया था।
- इसमें सूरदास जी ने ‘दृष्टकूट’ पदों का संकलन है।
- साहित्यलहरी में सूरदास जी ने अपने वंश का संकेत करते हुए, स्वयं को चंदरबरदाई का वंशज माना है।
- रचनाकाल विक्रम संवत 1627 माना जाता है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पदों की संख्या 1607 माना है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस साहित्य का ‘क्रीडा स्थल’ माना है।
- सूरदास की यह सर्वाधिक विवादास्पद रचना मानी जाती है।
21. राग केदार
गोकुल सबै गोपाल-उपासी।
जोग-अंग साधत जे उधो ते सब बसत ईसपुर कासी।।
यध्दपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासो।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यध्दपि है ससि राहु-गरासी।।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहनि माँ गति मुक्ति तजे गुनरासी ?||
22. राग धनाश्री
जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी को।।
नयनन मूंदी-मूंदी किन देखौ बंध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुंदर स्याम मनोहर और जगत सब फीको।।
सुनौ जोग को कालै कीजै जहाँ ज्यान है जी को ?
खाटी मही नहीं रूचि मानै सूर खबैया घी को।।
23. राग काफी
आयो घोष बड़ो व्योपारी।
लादी खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।।
फाटक दैकर हाटक माँगत भौरे निपट सुधारि।
धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारि।।
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?
अपनों दूध छाँड़ि को पीवै खार कूप को पानी।।
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ।
मुँहमाँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ।।
24. जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
यह व्योपार तिहारो ऊधो! ऐसोई फिरि जैहै।।
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छाँड़ि कै कटुक निम्बौरी को अपने मुख खैहै ?
मूरी के पातन के केना को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहि छाँड़ि कै को निर्गुन निरबैहै ?।।
25. राग नट
आये जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथि पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांडे।।
हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते राँडें।
कहौ, मधुप, कैसे समायँगे एक म्यान दो खाँडे।।
कहु षटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाड़े।
काहे जो झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े।।
सूरदास तीनों नहिं उपजत धनिया, धान कुम्हाड़े।।
26. राग बिलावल
ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवन निर्गुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति-ज्योति करि ध्यावत।
सुंदर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलै।
अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख फूलै।।
लोककानि कुल को भ्र्म प्रभु मिलि-मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सुर खवावन आए जोग जहर की बेली।।
27. राग मलार
हमरे कौन जोग व्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म अधारी, जटा को को इतनौ अवराधै ?
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए , अगम , अपार , अगाधै।
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै ?।।
28. राग धनाश्री
हम तो दुहूँ भॉँति फल पायो।
को ब्रजनाथ मिलै तो नीको , नातरु जग जस गायो।।
कहँ बै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ बै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँती।।
निगमध्यान मुनिञान अगोचर , ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौ मुक्ति कौन की दासी ?
जोग-कथा, पा लोगों ऊधो , ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार।।
29. राग कान्हरो
पूरनता इन नयनन पूरी।
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये यही दुख मरति बिसूरी।।
हरि अन्तर्यामी सब जानत बुद्धि विचारत बचन समूरी।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी।।
रहु रे कुटिल , चपल , मधु , लम्पट , कितब सँदेस कहत कटु कूरी।
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती ! कैसे जाट कुलिस करि चूरी।।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर, सीतल सुभग स्वाद रूचि रूरी।
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित्त लागत सब झूरी।।
30. राग धनाश्री
हमतें हरि कबहूँ न उदास।
राति खवाय पिवाय अधरस क्यों बिसरत सो ब्रज को बास।।
तुमसों प्रेम कथा को कहिबो मनहुं काटिबो घास।
बहिरो तान-स्वाद कहँ जानै, गूंगो-बात-मिठास।
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध बिलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास।।
31. तेरो बुरो न कोऊ मानै।
रस की बात मधुप नीरस, सुनु, रसिक होत सो जाने।।
दादुर बसै निकट कमलन के जन्म रस पहिंचानै।
अलि अनुराग उड़न मन बाँध्यो कहें सुनत नहिं कानै।।
सरिता चलै सागर को कूल मूल द्रुम भानै।
कायर बकै, लोह तें भाजै, लरै जो सूर बखानै।।
32. घर ही बाढ़े रावरे।
नाहिन मीत बियोगबस परे अनवउगे अलि बावरे!
भुखमरि जाए चरै नहिं तिनका सिंह को यहै स्वभाव रे।
स्त्रवन सुधा-मुरली के पोषे जोग-जहर न खवाव, रे!
ऊधो हमहि सीख का दैहो? हरि बिनु अनत न ठाँव रे!
सूरदास कहा लै कीजै थाही-नदिया नाव, रे!
33. राग मलार
श्याममुख देखे ही परतीति।
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति।।
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानै।
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में अनै।।
यह मन एक-एक वह मूरति, भृंगकीट सम माने।
सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह ब्रज लोग सयाने।।
34. राग धनाश्री
लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहाँ कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अंतरगति यों लूटत।।
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुनि गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह बिनोद गृह बन तें आवत।।
चरणकमल की सपत करती हौं यह सँदेस मोहिं बिष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन सुरति सोवत जागत।।
35. राग सोरठ
अटपटी बात तिहारी ऊधो सुनै सो ऐसी को है?
हम अहीरि अबला सठ, मधुकर! तिन्है जोग कैसे सोहै?
बुचिहि खुभी आँधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि।
मुंडली पाटी पारन चाह, कोढ़ी अंगहि केसरि।।
बहिरी सों पति मतों करै सो उतर कौन पै पावै?
ऐसो न्याव है ताको ऊधो जो हमैं जोग सिखावै।।
जो तुम हमको लाए कृपा करि सिर चढ़ाय हम लीन्ह।
सूरदास नरियर जो बिष को करहिं बन्दना कीन्ह।।
36. राग विहागरो
बरु वै कुब्जा भलो कियो।
सुनी सुनी समाचार ऊधो मो कछुक सिरात हियो।।
जाको गुण, गति, नाम, रूप हरि, हारयो फिरि न दियो।
तिन अपनों मन हरत न जान्यो हँसि हाँसि लोग जियो।।
सूर तनक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति बस्य कियो।
और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो।।
37. राग सारंग
हरि काहे के अंतर्यामी?
जौ हरि मिलत नहीं यहि औसर, अवधी बतावत लामी।।
अपनी चोप जाए उठि बैठे और निरस बेकामी?
सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी।।
आई उघरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी।
सूर इते पर अनख मरति हैं, ऊधो पीवत मामी।।
38. बिलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे अवाहिं ते कारे।।
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भँवारे।
तिनके संग अधिक छबि उपजत कमलनैन मनिआरे।।
मानहु नील माट तें काढ़े लै जमुना ज्यों पाखरे।
ता गुण स्याम भई कालिंदी सूर स्याम-गुण न्यारे।।
39. राग सारंग
अपने स्वारथ को सब कोऊ।
चुप करि रहौ, मधुप रस लंपट! तुम देखे अरु वोऊ।।
औरौ कछू सँदेस कहाँ को कहि पठायो किन सोऊ।
लीन्हे फिरत जिग जुबतिन को बड़े सयाने दोऊ।।
तब कत मोहन रस खिलाई जो पै ज्ञान हुतोऊ?
अब हमरे जिय बैठो यह पद ‘होनी होउ सो होऊ’।।
मिटि गयो मान परेखो ऊधो हिरदय हतो सो होऊ।
सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित-चिंता अब खोऊ।।
40. तुन जो कहत संदेसो आनि।
कहा करौ वा नंदनंदन सों होत नहीं हितहानि।।
जोग-जुगुति किहि काज हमारे जदपि महा सुखखानि?
सने सनेह स्यामसुंदर के हिलि मिलि कै मन मानि।।
सोलह लोह परसि पारस ज्यों सुबरन बारह बानि।
पुनि वह चोप कहाँ चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि।।
रूपरहित निरासा निरगुन निगमहु परम न जानि।
सूरदास कौन बिधि तासों अब कीजै पहिचानि?।।
41. राग धनाश्री
हम तौ कान्ह केलि की भूखी।
कैसे निरगुन सुनहिं तिहारो बिरहिनीबिरह-बिदूखी?
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग के जोग।
पा लागों तुमहीं सों, वा पुर बसत बावरे लोग।।
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेकु आप तान कीजै।
दंड, कमंडल, भस्म, अधारी जौ जुवतिन को दीजै।।
सूर देखी दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो।
कहै ‘कृपानिधि हो कृपाल हो! प्रेमै पढ़त पठायो’।।
42. अँखिया हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रुखी।।
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झुखी।
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी।।
बारक वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत पतूखी।
सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता हैं सुखी।।
43. राग सारंग
जाय कहौ बूझी कुसलात।
जाके ज्ञान न होए सो मानै कही तिहारी बात।।
कारो नाम, रूप पुनि कारो, कारे अंग सखा सब गात।
जौ पै भले होत कहुँ कारे तौ कत बदलि सुता लै जात।।
हमको जोग, भोग कुबजा को काके हिये समात?
सूरदास सेए सो पति कै पाले जिन्ह तेही पछितात।।
44. कहाँ लौं कीजै बहित बड़ाई।
अतिहि अगाध अपार अगोचर मनसा तहाँ न जाई।।
जल बिनु तरँग, भीति बिनु चित्रन, बिन चित ही चतुराई।
अब ब्रज में अनरीति कछू यह ऊधो आनि चलाई।।
रूप न रेख, बदन, बपु जाके संग न सखा सहाई।
ता निर्गुण सों प्रीति निरंतर क्यों निबहै, री माई?
मन चुभी रही माधुरी मूरति रोम-रोम अरुझाई।
हौं बलि गई सूर प्रभु ताके जाके स्याम सदा सुखदाई।।
45. राग मलार
काहे को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
सपने की पहिंचानी जानि कै हमहिं कलंक लगावत।
जो पै स्याम कूबरी रीझे सो किन नाम धारावत?
ज्यों गजराज काज के औसर औरै दसन दिखावत।
कहाँ सुनन को हम हैं ऊधो सूर अंत बिरमावत।।
46. अब कत सुरति होति है, राजन?
दिन दस प्रीति करी स्वारथ-हित रहत आपने काजन।।
सबै अयानि भईं सुनि मरली ठगी कपट की छाजन।
अब मन भयो सिंधु के खग ज्यों फिरि-फिरि सरत जहाजन।।
वह नातो टूटो ता दिन तें सुफलकसुत-सँग भाजन।
गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत हौ लाजन।।
47. राग सोरठ
लिखि आई ब्रजनाथ की छाप।
बाँधे फिरत सीस ऊधो देखत आवै ताप।।
नूतन रीति नंदनंदन की घरघर दीजत थाप।
हरि आगे कुब्जा अधिकारी, तातें है यह दाप।।
आये कहन जोग अवराधो अबिगत-कथा की जाप।
सूर सँदेसो सुनि नहिं लागै कहौ कौन को पाप?
48. राग सारंग
फिरि-फिरि कहा सिखावत बात?
प्रातकाल उठि देखत, ऊधो, घर घर माखन खात।।
जाकी बात कहत हौ हमसों सो है हमसों दूरि।
हूऊँ है निकट जसोदानंदन प्राण-सजीवनमूरि।
बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत डोलत।
सूर सीस सुनि चौंकत नावहिं अब काहे न मुख बोलत?
49. राग धनाश्री
अपने सगुन गोपालै, माई! यहि बिधि काहे देत?
ऊधो की यह निरगुन बातै मीठी कैसे लेत।
धर्म, अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्ति समेत।।
काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै मधुप तिहार हेत?
50. राग सारंग
हमको हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञानकथा हो, ऊधो! मथुरा ही लै गाव।।
नागरि नारि भले बूझैंगी अपने वचन सुभाव।
पा लागों, इन बातनि, रे अलि! उनहीं जाय रिझाव।।
सुनि, प्रियसखा स्यामसमंदर के जो पै जिय सति भाव।
हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक बहुरि दिखाव।।
जो कोऊ कोटि जतन करै, मधुकर, बिरहिनी और सुहाव?
सूरदास मीन को जल बिनु नाहिंन और उपाव।।
51. राग कान्हरो
अलि हो! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।
52. राग सारंग
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ करि पकरी।।
जागत, सोवत, सपने ‘सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि ! ज्यों करुई ककरी।।
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।।
53. फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ?
दुसह बचन अति यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर ! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।।
54. राग जैतश्री
प्रेमरहित यह जोग कौन काज गायो ?
दीनन सों निठुर बचन कहे कहा पायो ?
नयनन निज कमलनयन सुंदर मुख हेरो।
मूँदन ते नयन कहत कौन ज्ञान तेरो ?
तामें कहु मधुकर ! हम कहाँ लैन जाहीं।
जामें प्रिय प्राणनाथ नंदनंदन नाहीं ?
जिनके तुम सखा साधु बातें कहु तिनकी।
जीवैं सुनि स्यामकथा दासी हम जिनकी।।
निरगुन अविनासी गुन आनि भाखौ।
सूरदास जिय कै जिय कहाँ कान्ह राखौ ?।
55. राग केदारो
जनि चालो, अलि, बात पराई।
ना कोउ कहै सुनै या ब्रज में नइ कीरति सब जाति हिंराई।।
बूझैं समाचार मुख ऊधो कुल की सब आरति बिसराई।
भले संग बसि भई भली मति, भले मेल पहिचान कराई।।
सुंदर कथा कटुक सी लागति उपजल उर उपदेश खराई।
उलटी नाव सूर के प्रभु को बहे जात माँगत उतराई।।
56. राग मलार
याकी सीख सुनै ब्रज को, रे ?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे।।
आपुन पद-मकरंद सुधारस, हृदय रहत नित बोर।
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे।।
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे।
सूर दो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे।।
57. निरख अंक स्यामसुंदर के बारबार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मिसि मिलि कै है गई स्याम स्याम की पाती।।
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुँ बयारि लगी नहिं ताती।
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती।।
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।
प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती।।
58. राग मारू
मोहिं अलि दुहूँ भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली अब भई कूबरी सौत।।
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अंग।
इत बिरहिन मैं कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग।
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।।
यहाँ तरल तरिवन कहैं देखे अरु तनसुख की सारी।।
परम् बियोगिन रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तों चलो बेगि मधुबन को जहाँ-जहाँ जोग को ज्ञान।
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर-घर डोली, लेहु लेहु धरि सूप।।
59. राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमारी बात।
डरपति बचन कठोर कहति, मति बिनु पति यों उठि जात।।
जो कोउ कहत जरे अपने कछु फिरि पाछे पछितात।
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात।।
मनु जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिन-रात।
‘सूर-स्याम तें जोग अधिक’ केहि-केहि आयत यह बात ?।।
60. अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन।
कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन।।
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियां कछु और चलावत।
बहुत भांति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत।।
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका खग ज्यों फिरि फिरि फेर वहै गुन गावत।।
जे बासना न बिदरत अंतर तेइ-तेइ अधिक अनूअर दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यों है चाहत।।
61. राग धनाश्री
रहु रे, मधुकर ! मधुमतवारे !
कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
लोटत नीच परागपंग में पचत, न आपु सम्हारे।
बारंबार सरक मदिरा की अपरस कहा उघारे।।
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे।।
सुन्दरस्याम को सर्बवस अप्र्यो अब कापै हम लेहिं उधारे।।
62. राग बिलावल
काहे को रोकत मारग सूधो ?
सुनहु मधुप ! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुधो ?
कै तुम सिखै पाठए कुब्जा, कै कही स्मामधन जू धौं ?
बेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ घौं ?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेररत ऊधौ।।
63. राग मलार
बातन सब कोऊ समुझावै।
जेद्वि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न बतावै।।
जधदपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै।
तद्धपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै।।
बासर-निसा प्रानबल्ल्भ तजि रसना और न देखे भावै।।
सूरदास प्रभू प्रेमहिं, लगि करि कहिए जो कहि आबै।।
64. राग सारंग
निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर ! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि , को दासी ?
कैसो बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे ! कहैगो गाँसी।
सुनत मौन है रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।।
65. राग केदारो
नाहिंन रह्यो मन में ठौर।
नंदनंदन अछत कैसे आनिए उर और ?
चलत, चितवन, दिबस, जागत,सपन सोवत राति।
हृदय ते वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति।।
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय।
कहा करौं तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय।।
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास।
सूर ऐसे रूप कारन मरत लोचने प्यास।।
66. राग मलार
ब्रजजन सकल स्याम-ब्रतधारी।
बिन गोपाल और नहिं जानत आन कहैं व्यभिचारी।।
जोग मोट सिर बोझ आनि कैं, कत तुम घोष उतारी ?
इतनी दूरी जाहु चलि कासी जहाँ बिकति है प्यारी।।
यह संदेश नहिं सुनै तिहारो है मंडली अनन्य हमारी।
जो रसरीति करी हरि हमसौं सो कत जात बिसारी ?
महामुक्ति कोऊ नहिं बूझै, जदपि पदारथ चारी।
सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी।।
67. राग धनाश्री
कहति कहा ऊधो सों बौरी।
जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री !
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत ?
कहा कहत री ! मैं पत्यात री नहीं सुनी कहनावत ?
करनी भली भलेई जानै, कपट कुटिल की खानि।
हरि को सखा नहीं री माई ! यह मन निसचय जानि।।
कहाँ रास-रस कहाँ जोग-जप ? इतना अंतर भाखत।
सूर सबै तुम कत भईं बौरी याकी पति जो राखत।।
68. राग रामकली
ऐसेई जन दूत कहावत !
मोको एक अचंभी आवत यामें ये कह पावत ?
बचन कठोर कहत, कहि दाहत, अपनी महत्त गवावत।
ऐसी परकृति परति छांह की जुबतिन ज्ञान बुझावत।।
आनुप निजल रहत नखसिख लौं एते पर पुनि गावत।
सूर करत परसंसा अपनी, हारेहु जीति कहावत।।
69. राग धनाश्री
प्रकृति जोई जाके अंग परी।
स्थान-पूँछ कोटिक जा लागै सूधि न काहु करी।।
जैसे काग भच्छ नहिं छाड़ै जनमत जौन धरी।
धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी ?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं तैसे हैं एउ री।
70. राग रामकली
तौ हम मानैं बात तुम्हारी। अपनो ब्रम्ह दिखावहु ऊधो मुकुट-पितांबरधारी।।
भजि हैं तब ताको सब गोपी सहि रहि हैं बरु गारी।
भूत समान बतावत हमको जारहु स्याम बिसारो।।
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं ते विष क्यों अधिकारी।
सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रही ब्रजनारी।