माधव राव सप्रे कृत ‘एक टोकरी भर मिट्टी’
कहानी की समीक्षा व सम्पूर्ण अध्ययन
माधव राव सप्रे का जीवन परिचय- (19 जून 1871 – 23 अप्रैल 1926)
पंडित माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून 1871 ई० में पथरिया, दमोह, मध्यप्रदेश में हुआ था। सप्रे जी एक कहानीकार निबंधकार, समीक्षक, अनुवादक और संपादक के रूप में जाने जाते हैं। सन् 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब इन्होने बिलासपुर ज़िले के एक गाँव पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नाम का एक मासिक पत्रिका निकाली। यह पत्रिका सिर्फ तीन वर्ष ही चला। इन्होंने गीता रहस्य, हिन्दी दासबोध और महाभारत का अनुवाद किया।
रचनाएँ-
1. स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट
2. यूरोप के इतिहास से सिखने योग्य बातें
3. हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार
4. माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादक देवीप्रसाद वर्मा)
5. ‘हिन्दी केसरी’ और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका का संपादन किया।
6. इनकी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी का प्रकाशन ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में 1901ई० में प्रकाशित हुआ था।
7. ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की चर्चा हिंदी में 1968 में सारिका पत्रिका के फ़रवरी अंक, पृष्ठ संख्या-19 में शुरू होती है।
8. इस कहानी को बहुत सारे आधुनिक समीक्षकों ने हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास उनके योगदान, उनकी राष्ट्रीय चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी जी ने 11 सितंबर 1926 के ‘कर्मवीर’ पत्रिका में लिखा था- “पिछले पच्चीस वर्षों तक पं० माधवराव स्प्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीती की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमे राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम-घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरुरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बन कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बानाने वाले थे।”
सप्रे जी के कुछ अनमोल कथन
(क) “मैं मराठी हूँ पर हिन्दी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना कि किसी हिन्दी भाषी को हो सकता है।”
(ख) “जिस शिक्षा से स्वाभिमान की वृति जागृत नहीं होती है वह शिक्षा किसी काम की नहीं है।”
(ग) “विदेशी भाषा में शिक्षा होने के कारण हमारी बुद्धि भी विदेशी हो गई है।”
‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी का मुख्य बिंदु, समीक्षा और सारांश
- यह एक बहुत ही छोटी और कर्तव्य श्रेष्ठ कहानी है।
- यह कहानी आज के यथार्थ से जुड़ी हुई है।
- यह कहानी वर्ग भेद पर आधारित है। इसमें एक गरीब के शोषण का चित्रण है।
- इस कहानी में अहंकार और स्वार्थ का चित्रण जमींदार के रूप में किया गया है।
- एक गरीब बुजुर्ग महिला द्वारा जमींदार का हृदय परिवर्तन होना दिखाया गया है।
डॉ० गोपाल राय ने इस कहानी को “संवेदना के क्षण की अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी की पहली कहानी के रूप में मान्यता देते हुए इसकी भाषा को ठेठ देशी हिन्दी भाषा बताया है।”
डॉ० सत्यकाम इसे प्रतीकात्मक कहानी मानते है– “उपरी तौर पर यह एक जमींदार के जुल्म की कहानी लगती है, किंतु असल में यह मातृभूमि से लागाव की प्रति कहानी है। यह एक टोकरी भर मिट्टी पूरे देश की मिट्टी बन गई।”
कहानी में सिर्फ दो पात्र है- जमींदार और अनाथ विधवा
गौण पात्र- जमींदार का वकील और विधवा की पोती
कहानी का सारांश : यह कहानी वर्ग भेद पर आधारित कहानी है। संपन्न वर्ग के लोग हमेशा से गरीबों और अनाथों का शोषण करते रहे हैं। इस कहानी में जमींदार भी अपने महल को बढ़ाने के लिए अनाथ विधवा के झोपड़ी पर कब्ज़ा करता है। पर अनाथ विधवा का मार्मिक कथन जमींदार की आँखें खोल देती है। जमींदार का हृदय परिवर्तित हो जाता है। और वह अपने कर्म पर पश्चाताप करते हुए, विधवा को झोपड़ी वापस कर देता है।
जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपडी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। जमींदार ने विधवा से बहुत बार कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले पर वह तो कई जमाने से वहीँ बसी थी।
उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही पोती उसकी वृद्धकाल में एकमात्र सहारा थी। जब कभी भी उसे अपनी पहले की स्थिति याद आ जाती तब वह मारे दुःख से फूट-फूट कर रोने लग जाती थी। जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी का हाल सूना है, तब से वह मृत सी हो गई थी। उस झोपड़ी से उसे इतना लगाव था कि वह वहाँ से निकलना नहीं चाहती थी। जमींदार की इच्छा को सुनकर उसकी अवस्था मृतक सी हो गई थी। पर वह झोपड़ी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। जमींदार के सभी प्रयत्न विफल हो गए। तब जमींदार ने अदालत का सहारा लिया। और झोपड़ी पर कब्जा कर विधवा को वहाँ से निकलवा दिया। झोपड़ी छोड़ने के बाद बुढ़िया वही पड़ोस में ही रहने लगी।
एक दिन जमींदार मजदूरों को लेकर झोपड़ी के पास कुछ काम करवा रहा था। उसी समय अनाथ विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुँचती है। जमींदार उसे देखते ही नौकरों को हटाने के लिए कहा। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, महाराज, अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करे तो एक विनती है। जमींदार साहब के सर हिलाने पर उसने कहा, “जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने उसे बहुत समझाया पर वह एक नहीं मानती है। वह कहा करती है कि मुझे अपने घर ले चलो, वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकड़ी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। यह कहने से भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिये तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।” श्रीमान ने आज्ञा दे दिया।
विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातें याद आने लगी और उसके आँखों से आँसू की धारा बहने लगा। अपने आतंरिक दुःख को किसी तरह संभालकर टोकरी में मिट्टी भर ली। टोकरी बहुत भारी हो गया था। जिसे वह उठा नहीं पा रही थी। बुढ़िया श्रीमान से हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी। “महाराज, कृपा करके इस टोकरी को हाथ लगाइए जिससे कि मैं अपने सिर पर धर लूँ” जमींदार इच्छा के विरुद्ध टोकरी उठाने लगता है। पर टोकरी हाथ भर भी ऊपर नहीं उठती है। यह देखकर अनाथ विधवा कहती है, “महाराज नाराज न हो आपसे तो एक टोकरी मिट्टी नहीं उठाई जाती है और इस झोपडी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी हैं। उसका भार आप जन्म भर कैसे उठा सकेंगे? आप ही इस पर विचार कीजिएगा।” अनाथ विधवा का यह कथन बहुत सहज है पर तत्कालीन समय में वह जमींदार की वृति के खिलाफ विद्रोह ही करती है।
‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी का कथानक बहुत सरल और सहज है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने यथार्थ और आदर्श को बड़े ही सहजता से पाठकों के सामने रखा है। कहानी में अनाथ विधवा द्वारा सामाजिक संवेदना को वाणी भी दिया गया है। मनुष्य को अपनी जरूरतों से अधिक लालसा होने लगा है, जिसके फलस्वरूप वह अपने पथ से भ्रष्ट हो जाता है। अतः लेखक ने बड़ी ही कुशलता से इस छोटे से कथानक को प्रभावी बना दिया है। यही मजबूत पक्ष इस कहानी को हिन्दी के आरंभिक कहानियों में स्थान दिया है।