‘उषा’ बाणासुर की पुत्री थी और ‘अनिरुद्ध’ श्री कृष्ण भगवान के पौत्र। बाणासुर की पुत्री उषा परम सुंदरी थी। अनिरुद्ध भी कामदेव से सामान सुन्दर थे। उषा ने अनिरुद्ध के सुन्दरता और बल की चर्चा सुनी थी, लेकिन देखा नहीं था। एक दिन उषा गहरी नींद में सो रही थी। सपने में एक सुन्दर राजकुमार को देखकर उसपर मोहित हो गई। उषा सपने में ही उस राजकुमार से बातें करते हुए बोली- आप मुझे छोड़कर मत जाइए कुमार- मत जाइए- मैं आपके बहुत प्रेम करती हूँ, मैं आपके बिना नहीं रह सकती हूँ। मत जाइए कुमार- मत जाइए।” राजकुमारी उषा के कांपते हुए होठों से निकला और फिर वह एक झटके के साथ उठकर बिस्तर पर बैठ गई। राजकुमारी उषा नींद में बड़बड़ा रही थी। जिसे सुनकर पलंग के आस-पास नींद में सोई हुई उनकी सभी दासियाँ उठकर खड़ी हो गई। राजकुमारी उषा ने अपनी आँखें खोलकर चारो तरफ देखा। उस विशाल शयनकक्ष में राजकुमारी उषा और उनके दासियों के सिवा और कोई भी नहीं था। “कहाँ गए वे? राजकुमारी उषा ने सपने में डूबी आवाज़ में कहा। तभी झट से दासियों ने पास आकर पूछा- “कौन राजकुमारी”? दसियों ने कहा यहाँ तो हमारे और आपके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। राजकुमारी उषा ने कहा “नहीं, वे तो अभी-अभी यही पर थे- मेरे साथ ही मेरे पलंग पर थे- ये देखो दासी उनके देह की गंध अभी भी मेरे तन-मन में और मेरी सांसों में समाया हुआ है,” राजकुमारी उषा ने अपनी बाँहों को सूंघते हुए कहा, नहीं वे मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। उन्होंने मुझे वचन दिया है- तुम सब मिलकर उन्हें ढूंढ़ों, वे यही कहीं होंगे। दसियों ने कहा- “लगता है आपने कोई स्वप्न देखा है, राजकुमारी!” राजकुमारी की एक मुँह लगी दासी थी, वह हँसती हुई बोली, मुझे बताइए राजकुमारी वह कौन था जिसने मेरी राजकुमारी के साथ पलंग पर लेटकर प्यार करने की धृष्टता की? उसे अवश्य सजा मिलेगी। तभी राजकुमारी कुछ सोचकर बोली हाँ- शायद मैंने सपना ही देखा था”। राजकुमारी उषा एक लम्बी साँस लेते हुए बोली – “लेकिन वह सपना नहीं था, वास्तविकता थी। उनके आलिंगन को मैं महसूस कर रही हूँ, जिससे मुझे मीठी-मीठी पीर हो रही है। मेरा तन-मन सिहर रहा है”। दासी मजाक करते हुए बोली, सपने में ही सही, मेरी राजकुमारी जी का मन का मीत मिल गया। हमें तो बहुत खुशी हो रही है। हम सब अभी जाकर राजमाता को यह शुभ समाचार सुना देते है, जो आपके योग्य वर की तलाश वर्षों से कर रही हैं। वह योग्य वर राजकुमारी जी को सपने में मिल गया है।
राजकुमारी उषा बोली- “नहीं चंदा, अभी तुम राजमाता को कुछ भी नहीं बताना। राजकुमारी ने चंदा को रोकते हुए कहा, चंदा तुम सुबह होते ही महामंत्री कुम्मांड के घर चली जाना और उनकी पुत्री चित्रलेखा को बुला कर लाना। वे मेरी प्रिय सहेली होने के साथ-साथ योग विधा में पारंगत और महान चित्रकार भी है। वे बिना व्यक्ति को देखे ही केवल हुलिया बता देने से ही उस व्यक्ति का चित्र बना देती है। चित्रलेखा अपनी योग शक्ति से उस व्यक्ति का उम्र और नाम भी बता सकती है। दासी ने कहा ठीक है, राजकुमारी जी मैं सुबह होते ही चित्रलेखा को बुलाकर ले आउंगी। दासी ने राजकुमारी से कहा अब आप अराम से सो जाइए अभी एक पहर की रात बाकी है। यह कहते हुए दासी ने राजकुमारी उषा को पकड़कर उन्हें उनके बिस्तर पर लिटा दिया।
सुबह होते ही दासी चित्रलेखा को बुलाकर ले आई। चित्रलेखा अपनी सहेली से पूछी क्या बात हुई राजकुमारी उषा सुबह-सुबह क्यों बुलवाया है। क्या बात है? राजकुमारी उषा ने रात के सपने के विषय में चित्रलेखा को सारी बातें बताई। चित्रलेखा ने कहा ठीक है तुमने जिस युवक को सपने में देखा है और उसके साथ प्रेम किया था, उसका पूरा हुलिया बताओं। राजकुमारी ने चित्रलेखा को उस युवक का हुलिया बता दिया। उसका हुलिया जानने के बाद चित्रलेखा ने चित्र बनाया। चित्र को देखते ही राजकुमारी उषा तुरंत बोली हाँ, सखी यह वही है। हुबहू वैसा ही नाक-नक्श, वही रूप-रंग, वही वेशभूषा, उषा ने चित्र को अच्छी तरह देखते हुए बोला, चित्रलेखा! लेकिन यह है कौन? यह कहाँ और किस देश का राजा या राजकुमार है। चित्रलेखा बोली इसके नाक-नक्श, रूप-रंग और वेश- भूषा सभी यादवों से मिलती-जुलती है। मेरे अनुमान से यह कोई यादव वंश का होना चाहिए। हो सकता है यह श्री कृष्ण के वंश का हो, “चित्रलेखा ने कहा तुम चिंता मत करो। आज मैं अपनी योग शक्ति से द्वारिका जाउंगी और तुम्हारे इस प्रियतम को खोजने की कोशिश करुँगी”।
चित्रलेखा की बात को सुनकर राजकुमारी उषा उदास हो गई। राजकुमारी जानती थी कि उसके पिता दानवराज बाणासुर द्वारिकाधीश को अपना कट्टरशत्रु मानते हैं, क्योंकि उनकी मित्रता कृष्ण के शत्रु जरासंघ और शिशुपाल से है। हालांकि श्री कृष्ण ने कभी कोई हमारा अहित नहीं किया, लेकिन मित्र का शत्रु हमारा भी शत्रु ही होगा। इस सिद्धांत के अनुसार वे भी श्री कृष्ण को अपना शत्रु ही मानते है। यदि सपने का राजकुमार कृष्ण का वंशज हुआ तो उसके साथ विवाह होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। राजकुमारी उषा की सहेली चित्रलेखा भी इस बात को भली-भांति जानती थी। इसलिए उसने उषा को समझया कि वह अपने सपने के राजकुमार को भूल जाए लेकिन उषा ने भी ज़िद कर ली थी, कि कुछ भी हो जाए शादी तो वे अपने सपने में आने वाले राजकुमार से ही करेगी। योग की शक्ति से चित्रलेखा उसी रात द्वारिका गई। उसने द्वारिका के सभी भवनों में जाकर देखा। अचानक श्री कृष्ण के राजमहल में उसकी नजर श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध पर पड़ी। अनिरुद्ध अपने शयनकक्ष में गहरी नींद से सो रहे थे। चित्रलेखा ने अपने योग बल से अनिरुद्ध को सुप्तावस्था में ही पलंग सहित उठा लिया और उसे आकाश मार्ग से राजकुमारी उषा के शयनकक्ष में लेकर आ गई। राजकुमारी उषा अनिरुद्ध को देखते ही पहचान गई। राजकुमारी ने अनिरुद्ध को जगाया। अनिरुद्ध की जब ऑंखें खुली तब उसने अपने निकट राजकुमारी उषा को देखकर आश्चर्य चकित हो गया। उषा ने अनिरुद्ध को सारी कहानी सुना दी। राजकुमारी उषा ने अनिरुद्ध से कहा मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकती। सपने में ही सही हम दोनों ने प्रेम किया है। उषा के रूप और यौवन की सुन्दरता ने अनिरुद्ध के हृदय में भी आकर्षण पैदा कर दिया। उषा और अनिरुद्ध गंधर्व विवाह कर पति-पत्नी की तरह रहने लगते हैं। वे दोनों एक दूसरे में इतना खो जाते है कि उन्हें यह भी पता नहीं चला कि उन्हें एक साथ पति-पत्नी के रूप में रहते हुए कितने दिन बीत चुके हैं। पति-पत्नी के रूप में हमेशा साथ-साथ रहने के कारण राजकुमारी उषा का कौमार्यपण भंग हो चुका था। राजकुमारी के भवन में पुरुषों का आना वर्जित था। भवन के चारों तरफ सैनिक हर समय तैनात रहते थे। राजकुमारी के स्वभाव में आया परिवर्तन सैनिकों से छिपा नहीं था। सैनिकों को आश्चर्य हो रहा था कि राजकुमारी के भवन में कोई भी पुरुष नहीं जाता है फिर राजकुमारी में यह परिवर्तन कैसे हो रहा है?
सैनिकों ने अपनी यह शंका जब दानवराज बाणासुर को बताया तब बाणासुर को बहुत दुःख हुआ और क्रोध भी आया। यह सुनते ही वह अपनी पुत्री के भवन में पहुँचा। बाणासुर ने देखा कि उसकी पुत्री एक सुन्दर नवयुवक के साथ पाशे खेल रही है। यह देखकर बाणासुर क्रोधित हुआ और सैनिकों को आदेश दे दिया कि इस युवक को समाप्त कर दिया जाए। इसने बाणासुर के वंश के सम्मान को कलंकित किया है। अनिरुद्ध अपने आपको सैनिकों के बीच घिरा देखकर शस्त्र उठा लिया और बाणासुर के सैनिकों का संहार करना शुरू कर दिया। बाणासुर के सैनिक अकेले अनिरुद्ध को नहीं हरा सके। अपने सैनिकों का अति संहार होते देखकर बाणासुर ने नागपाश से अनिरुद्ध को बांध कर कारागार में डाल दिया।
अपने शयन कक्ष में सोये हुए अनिरुद्ध को गायब हुए चार महीने बीत चुका था। द्वारिका के निवासी इस घटना से अत्यंत दुखी और चिंतित थे। अनिरुद्ध को खोजने में उनलोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन अनिरुद्ध का कही भी पता नहीं चल रहा था। अचानक एक दिन नारद जी द्वारिका आए। नारद जी ने भगवान श्री कृष्ण को शोणितपुर में अनिरुद्ध और उषा के साथ प्रेम प्रसंग और बाणासुर के द्वारा अनिरुद्ध को नागपाश में बांधे जाने की सारी घटनाएँ विस्तार पूर्वक सुनाई।
बाणासुर शिव जी का भक्त था। उसकी एक हजार भुजाएँ थी। बाणासुर ने अपनी एक हजार भुजाओं से शिवजी की अराधना करके शिव जी को विवश कर दिया था। उसने शिवजी से वर माँगा था कि वह अपने गणों के साथ राजधानी शोणितपुर में हर समय रहेंगें और शत्रु का आक्रमण होने पर हमेशा उसकी रक्षा करेंगे। बाणासुर को अपनी शक्ति और शिवजी द्वारा दिए गए वरदान पर बहुत घमंड हो गया था। एक बार बाणासुर ने भगवान शिवजी से बोला- मेरी हजार भुजाएँ है। ये सभी भुजाएँ युद्ध करने के लिए बेचैन हो रही हैं। मुझे कोई भी ऐसा योद्धा इस संसार में दिखाई नहीं देता जिसके साथ मैं युद्ध कर सकूँ। भगवान शिवजी को बाणासुर के इस घमंड से बहुत गुस्सा आया। भगवान शिवजी ने उसे एक ध्वज देते हुए कहा ”बाणासुर तुम इस ‘ध्वज’ को अपने नगर के सिंह द्वार पर लगा देना। जिस दिन यह ध्वज अपने आप गिर जाएगा उस दिन तुम समझ लेना कि तुम्हारे जैसा कोई शक्तिशाली योद्धा तुम पर आक्रमण करने के लिए आ गया है”।
जब श्री कृष्ण को नारद जी के द्वारा यह ज्ञात हुआ कि अनिरुद्ध बाणासुर की राजधानी शोणित पुर में बंदी है तब यादवों की विशाल सेना ने शोणितपुर पर आक्रमण कर दिया। यादवों के आक्रमण करते ही नगर के सिंह द्वार पर लगा शिवजी के द्वारा दिया हुआ ध्वज उखड़कर जमीन पर गिर गया। ध्वज के गिरते ही बाणासुर समझ गया कि उसे उसके जैसा कोई पराक्रमी योद्धा उसपर आक्रमण कर दिया है। बाणासुर को दिए गए वरदान के अनुसार भगवान शिवजी अपने गणों के साथ श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए तैयार थे। बाणासुर भी अपनी विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनों में भीषण युद्ध शुरू हो गया। श्री कृष्ण ने अपने वाण से बाणासुर की दो भुजाएँ छोड़कर अन्य सभी भुजाओं को काट दिए। इस भीषण युद्ध से शिव जी के सभी गण और बाणासुर के सभी सैनिक युद्ध छोड़कर भागने लगे। यह देखकर भगवान शिवजी स्वयं ही श्री कृष्ण के साथ युद्ध करने की घोषणा कर दिए। बाणासुर को समझ में आ गया कि श्री कृष्ण वास्तव में परमेश्वर हैं। यह जानकर बाणासुर श्रीकृष्ण के शरण में आकार क्षमा मांगने लगा। श्री कृष्ण ने बाणासुर को क्षमा कर दिया। अनिरुद्ध और उषा का विवाह करवाने का आदेश दिया। विवाह के बाद श्री कृष्ण अपने पोते और बहु को लेकर द्वारिका चले गए। इस प्रकार उषा और अनिरुद्ध के प्यार को सफलता मिली।
भारतीय साहित्य में यह एक अनोखी प्रेम कथा है, जिसमे प्रेमिका अपने प्रेमी का हरण कर लेती है। प्रधुम्न के पुत्र तथा श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की पत्नी के रूप में राजकुमारी उषा को ख्याति प्राप्त हुई।