हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेज़ी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापखाना के आते ही साहित्य के संसार में एक नयी क्रांति हुई।
हिंदी गद्य के संबंध में आरंभ के विद्वान एकमत नहीं है। कुछ इसका आरंभ 10वीं शताब्दी मानते हैं तो कुछ 11वीं शताब्दी और कुछ 13वीं शताब्दी। राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में हमें गद्य के प्राचीनतम प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय सीमा 11वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तथा ब्रज गद्य की सीमा 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के मध्य ही हिंदी गद्य की शुरुआत हुई थी। खड़ी बोली के प्रथम दर्शन अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा रचित ‘चंद छंद बरनन’ की महिमा में मिलता है।
हिंदी गद्य साहित्य का विकास-
शैली की दृष्टि से साहित्य के दो भेद हैं- गद्य और पद्य। गद्य वाक्यबद्ध, विचारात्मक रचना है और पद्य छंदबद्ध/लयबद्ध भावात्मक रचना है। गद्य में बौद्धिक चेष्टाएँ और चिंतनशील मनःस्थितियाँ अपेक्षाकृत सुगमता से व्यक्त की जा सकती हैं, जबकि पद्य में भावपूर्ण मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति सहज होती है। पद्य में संवेदना और कल्पना की प्रमुखता होती है और गद्य में विवेक की। इसी कारण पद्य को हृदय की भाषा और गद्य को मस्तिष्क की भाषा कहते हैं।
‘गद्य’ शब्द का उद्भव ‘गद्’ धातु के साथ ‘यत्’ प्रत्यय जोड़ने से हुआ है। ‘गद्’ का अर्थ है- बोलना, बताना या कहना। विषय और परिस्थिति के अनुरूप शब्दों का सही स्थान निर्धारण तथा वाक्यों की उचित योजना ही गद्य की उत्तम कसौटी है। इसलिए गद्य में अनेक विधाओं का समावेश है।
गद्य की प्रमुख निम्नलिखित विधाएँ हैं- निबंध, नाटक, कहानी, संस्मरण, एकांकी, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त, जीवनी, डायरी, पत्र, भेंटवार्ता आदि। आरंभ में अनेक विधाओं को कहानी, निबंध आदि के साथ ही सम्मिलित कर लिया जाता था। किन्तु 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से इनका स्वतंत्र अस्तित्व परिलक्षित होने लगा।
राष्ट्रभाषा के रूप में मानक हिन्दी खड़ी बोली का ही परिनिष्ठित रूप है। खड़ी बोली गद्य की प्रामाणिक रचनाएँ सत्रहवीं शताब्दी से प्राप्त होती है। इसका प्रमाण जटमल कृत “गोरा बादल” की कथा है। प्रारंभिक गद्य खड़ी बोली ब्रजभाषा से प्रभावित है। ब्रजभाषा के प्रभाव से मुक्त खड़ी बोली गद्य का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। खड़ी बोली गद्य का एक रूप “दक्खिनी गद्य” का है। मुस्लिम शासकों के समय, विशेषकर मोहम्मद तुगलक के शासन काल में अनेक उत्तर के मुसलमान दक्षिण में जाकर बस गए थे। ये अपने साथ उत्तर की खड़ी बोली को दक्षिण ले गए। इससे वहाँ “दक्खिनी हिन्दी” का विकास हुआ। दक्खिनी खड़ी बोली गद्य का प्रामाणिक रूप 1580 ई. से प्राप्त होता है। लगभग अठारहवीं सदी के मध्य काल से लेकर बीसवीं सदी के मध्य काल तक (सन् 1785 से 1843 ई.)।
खड़ी बोली गद्य के प्रारंभिक स्वरूप के उन्नयन में चार लेखकों का योगदान महत्त्वपूर्ण है-
पंडित लल्लू लाल (सन् 1763-1825 ई.)
* ये फोर्ट विलियम कॉलेज में भाखा मुंशी पद पर नियुक्त थे। इन्होंने ‘भागवत’ के ‘दशम स्कंध’ की कथा के आधार पर ‘प्रेमसागर’ की रचना की।
* ये आगरा के गुजराती ब्राहमण थे। इसकी भाषा पर ब्रज का प्रभाव था।
द्विवेदी जी के शब्दों में- “इस ब्रजरंजित खड़ी बोली में भी वह सहज प्रभाव नहीं है जो सदासुखलाल की भाषा में है।” शुक्ल जी के दृष्टि में इनकी भाषा “नित्य व्यवहार के अनुकूल नहीं है। ये ‘उर्दू’ भाषा को ‘यामिनी’ भाषा कहते थे और उससे दूर रहने की सलाह देते थे। ग्रियर्सन के अनुसार ‘प्रेमसागर’ की भाषा हिंदी गद्य की स्टैंडर्ड बनी।
‘लालचंद्रिका’ की भूमिका में लल्लूलाल ने अपने ग्रंथ की भाषा के तीन भेद बताएँ हैं- ब्रज, खड़ीबोली और रेख्ते की बोली।
पंडित सदल मिश्र (सन् 1767-1848 ई.)
ये बिहार के रहनेवाले थे। लल्लूलाल की तरह ये भी भाखा मुंशी पद पर थे। इन्होंने ‘नासिकेतोपाख्यान’ की रचना की। ‘नासिकेतोपाख्यान’ पर ब्रज और भोजपुरी का प्रभाव है। किन्तु यह सीधे संस्कृत होने के कारण हिंदी के प्रकृति के अनुरूप है। शुक्ल जी ने इनकी भाषा को साफ़ सुथरी और व्यवहारोपयोगी कहा है। इनकी भाषा में पूर्वीपन और पंडिताऊपन है। आधुनिक हिंदी गद्य का जो आभास ‘सदासुखलाल’ और ‘सदल मिश्र’ की भाषा में दिखाई देता है उसी का आगे विकास हुआ।
मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ (सन् 1746-1824 ई.)
मुंशी सदासुखलाल ने ‘विष्णु पुराण’ का अंश लेकर उसे खड़ी बोली में प्रस्तुत किया। इनकी भाषा शैली में पंडिताऊपन और वाक्य रचना पर फारसी शैली का प्रभाव था। ये फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के लेखक थे। ये उर्दू और फ़ारसी के अच्छे लेखक और कवि थे। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “इनकी भाषा कुछ निखरी हुई और सुव्यवस्थित है, पर तत्कालीन प्रचलित पंडिताऊ प्रयोग भी इनमे मिल जाते हैं।” ‘सुखसागर’ के अतिरिक्त विष्णुपुराण के प्रसंगों के आधार पर मुंशी सदासुखलाल ने एक अपूर्ण ग्रंथ की भी रचना की थी। इनकी भाषा में ‘सहजता’ और ‘स्वाभाविकता’ है।
मुंशी इंशा अल्ला खाँ (सन् 1735- 1818 ई.)
मुंशी इंशाअल्ला खाँ ने चटपटी हास्य प्रधान शैली में उदयभान चरित/ रानी केतकी की कहानी लिखी। कहानी लिखने का कारण स्पष्ट करते हुए मुंशी जी ने लिखा है- ‘एक दिन बैठे-बैठे यह ध्यान आया कि कोई ऐसी कहानी कहिए जिसमे हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो, बस जैसे भले लोग अच्छों से आपस में बोलते-चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँव किसी की न हो यह नहीं होने का।”
राजा शिवप्रसाद सितारे-ए-हिन्द (1823- 1895 ई.)
राजा शिवप्रसाद ‘सितारे’ हिंदी विभाग में निरीक्षक के पद पर थे। ये हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। इसलिए इसे ये पाठ्यक्रम की भाषा बनाना चाहते थे। चूकी उस समय साहित्य के पाठ्यक्रम के लिए कोई भी पुस्तक नहीं थी इसलिये उन्होंने स्वयं कोर्स की पुस्तकें लिखी और उसे हिंदी पाठ्यक्रमों में स्थान दिलवाया। इन्हीं के प्रयत्नों से शिक्षा जगत में हिंदी कोर्स की भाषा बनी। इसके बाद उन्होंने बनारस से ‘बनारस अखबार’ निकाला। इसी अखबार के द्वारा राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। ये हिंदी में विशुद्ध लेख लिखते थे। इन्होंने हिंदी कोर्स की पुस्तकों के लिए पंडित श्रीलाल और पंडित बंशीधर को भी इस कार्य के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘वीरसिंह का वृतांत’ आलसियों का कोड़ा जैसी रचनाओं का सृजन किया। इनकी गद्य भाषा प्रभावशाली और सरल थी। इसका उदहारण “राजा भोज का सपना” में इस प्रकार है- “वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हो। उनकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्याप्त रही है। बड़े-बड़े महिपाल उनका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े-बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते।” राजा जी उर्दू के पक्षपाती थे। उन्होंने 1864 ई. में “इतिहास तिमिर नाशक” ग्रंथ लिखा।
राजा लक्षमणसिंह (1887-1956 ई.)
राजा लक्षमणसिंह आगरा के निवासी थे। इन्होंने हिंदी और उर्दू को दो भिन्न-भिन्न भाषाओँ के रूप में स्वीकार किया था। ये हिंदी उर्दू शब्दावली प्रधान गद्य भाषा का प्रयोग करते थे। राजा लक्षमणसिंह ने कालिदास के मेघदूतम, अभिज्ञान शाकुन्तलम् और रघुवंश का हिंदी अनुवाद किया। इन्होंने हिंदी गद्य विकास के लिए 1841 ई. में ‘प्रजा हितैसी’ पत्र भी संपादित और प्रकाशित किया। इनकी गद्य भाषा उत्कृष्ट थी। उदाहरण के लिए ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का अनुदित गद्य है- “अनसूया (हौले प्रियबंदा से) सखी मैं तो इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूँगी। (प्रकट) महात्मा तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकार मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की पूजा को विरह में व्याकुल छोड़कर यहाँ पधारे हो? क्या कारण है? (हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल पृष्ठ-300)।
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्षमण सिंह के अलावा और अनेक प्रतिभाशाली लेखकों ने हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनेक गद्य लेखकों ने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किए और पाठ्य पुस्तकें लिखी। उनमे श्री मथुराप्रसाद मिश्र, श्री ब्रजवासी दास, श्री रामप्रसाद त्रिपाठी, श्री शिवशंकर, श्री बिहारीलाल चौबे, श्री काशीनाथ खत्री, श्री रामप्रसाद दूबे आदि प्रमुख थे। इसी समय स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसे ग्रंथ की हिंदी गद्य में रचना कर हिन्दू धर्म की कुरीतियों को समाप्त किया। बाबू नवीन चंद्रराय ने 1863-1880 ई. के मध्य हिंदी के विभन्न विषयों की पुस्तकें लिखी और लिखवाई। इसी तरह श्रद्धानंद फुल्लौरी ने सत्यमृत प्रवाह, आत्म चिकत्सा, तत्वदीपक, धर्मरक्षा, उपदेश संग्रह, आदि पुस्तकें लिखकर हिंदी गद्य के विकास में नयी दिशा प्रदान की।
इन लेखकों के कुछ समय पहले रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवशिष्ठ’ में तथा मध्यप्रदेश के पं. दौलतराय साधु थे। उनहोंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली गद्य का प्रयोग किया था। इन्हीं दिनों ईसाई मिशनरी ने भी बाइवल का हिन्दी खड़ी बोली गद्य में अनुवाद कराकर हिन्दी गद्य के विकास में अपना योगदान दिया। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक हिन्दी गद्य का स्वरूप पूर्णतः परियोजित नहीं हो पाया था। उन्नीसवीं शताब्दी का द्वितीय एवं तृतीय चरण भारतीय सामाजिक एवं राष्ट्रीयता के जागरण का काल था। इस नवीन चेतना का अभ्युदय बंगाल से हुआ। यहीं से समाचार पत्रों के प्रकाशन का प्रारंभ हुआ। यह प्रदेश ब्रजभाषा से दूर था इसलिए नवीन चेतना को अभिव्यक्त करने का भार खड़ी बोली पद्य को वहन करना पड़ा। नवीन चेतना के इस जागरण काल में अनेक संस्थाओं का योगदान था। इनमें प्रमुख थीं- ब्रह्मसमाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज, आर्यसमाज, थियोसाफिकल सोसायटी इत्यादि। इन संस्थाओं में विशेषकर आर्यसमाज ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का माध्यम हिन्दी गद्य को बनाया।
हिंदी गद्य के विकास को सोपानों में विभक्त किया गया है-
भारतेंदु पूर्व युग (1800-1850 ई.)
भारतेंदु युग 1850-1900 ई.
द्विवेदी युग (1900-1920 ई.)
शुक्ल युग (1920-1936 ई.)
अद्यतन (1936 ई. से आजतक
भारतेन्दु पूर्व युग (1800 -1850 ई.)
हिंदी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास से माना जाता है विकास के इस काल में कलकाता फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही इस कॉलेज के दो विद्वान लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने गिलक्रिस्ट के निर्देशन में प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक दो पुस्तके तैयार की। इसी समय सदासुख लाल ने सुखसागर तथा मुंशी इंशाअल्लाह ने रानी केतकी की कहाणी की रचना की। इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय के प्रयोग में आने वाली खड़ी बोली को स्थान मिला। आधुनिक खड़ी बोली गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमे ईसाई धर्म का भी सहयोग था। बंगाल के राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में वेदांतसूत्र का हिंदी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया इसके बाद उन्होंने 1829 ई. में बंगदूत नाम का पत्र हिंदी में निकाला। इसके पहले 1826 ई. में कानपुर के पंडित जुगलकिशोर हिंदी पहला समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकाता से निकाला। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा।
भारतेन्दु युग (1850 -1900 ई.)
भारतेन्दु जी के पूर्व हिन्दी गद्य में दो शैलियाँ प्रचलित थीं। प्रथम राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की 1823 से 1895 गद्य शैली थी। वे हिन्दी को नफीस बनाकर उसे उर्दू जैसा रूप प्रदान करने के पक्षधर थे। दूसरी शैली के प्रवर्तक राजा लक्ष्मणसिंह थे जो हिंदी को अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ करने के पक्षधर थे। भारतेंदु ने इन दोनों के बीच का मार्ग ग्रहण कर उसे हिंदी भाषा प्रदेशों की जनता के मनोनुकूल बनाया। लोक प्रचलित शब्दावली के प्रयोग के कारण भारतेन्दु जी का गद्य व्यावहारिक, सजीव, और प्रवाहपूर्ण है। बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, बदरी नारायण चौधरी “प्रेमधन”, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्ण दास एवं किशोरी लाल गोस्वामी भारतेंदु जी के सहयोगी एवं समकालीन लेखक थे।
पं. बालकृष्ण भट्ट इलाहाबाद से “हिन्दी प्रदीप” नामक मासिक पत्र निकालते थे। उनकी शैली विनोदपूर्ण और चुटीली थी तथा इसमें व्यंग्य में सरसता के साथ मार्मिकता भी है। उन्होंने अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत तथा लोक भाषा के शब्द लिए। उनके निबंधों के विषय में विविधता थी। प्रतापनारायण मिश्र ने “ब्राम्हण” पत्रिका के माध्यम से हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास किया। उन्होंने समाज सुधार एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से निबंध लिखे। चुलबुलापन, हास-परिहास, आत्मीयता और सहजता उनकी भाषा शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। बदरी नारायण चौधरी “प्रेंमधन” “आनंद कादम्बिनी” पत्रिका का संपादन करते थे। उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा शैली काव्यात्मक है। श्री राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह ने सामयिक समस्याओं पर निबंध लिखे।
द्विवेदी युग (1900-1920 ई.)
भारतेन्दु युग में हिंदी गद्य का स्वरूप काफी हद तक निखरा किंतु अभी भी उसमें परिष्कार परिमार्जन की आवश्यकता थी। यह कार्य द्विवेदी युग में पूरा हुआ। इस काल का नामकरण पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर किया गया। द्विवेदी जी ने “सरस्वती” के माध्यम से व्याकरणनिष्ठ, स्पष्ट एवं विचारपूर्ण गद्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने तत्कालीन भाषा का परिमार्जन कर उसे व्याकरण-सम्मत रूप प्रदान किया और साहित्यकारों को विविध विषयों पर लेखन के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया।
द्विवेदी युग के प्रमुख गद्यकारों में श्री माधव मिश्र, गोविंद नारायण मिश्र, ‘पद्मसिंह शर्मा, सरदारपूर्ण सिंह, बाबू श्यामसुंदर दास, मिश्र बंधु, बाबा भगवानदीन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि हैं। इस काल में अनेक गंभीर निबंध, विवेचनापूर्ण आलोचनाएँ, कहानियाँ, उपन्यास तथा नाटक लिखे गये और इस प्रकार गद्य साहित्य के विविध रूपों का विकास हुआ।
हिन्दी निबंध और आलोचना के क्षेत्र में बाबू श्यामसुंदर दास का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने “नागरी प्रचारिणी” सभा की स्थापना की तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक भाषा एवं वैज्ञानिक विषयों पर निबंध लिखे। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने अपनी पांडित्यपूर्ण व्यंग्य प्रधान शैली में निबंध और कहानियाँ लिखकर हिन्दी गद्य साहित्य को समृद्ध किया। सरस्वती के अतिरिक्त “प्रभा”, “मर्यादा”, “माधुरी”, “इन्दु”, “सुदर्शन”, “समालोचक”, आदि अन्य पत्रिकाओं में भी गद्य साहित्य के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस युग के उत्तरार्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बाबू गुलाबराय के आविर्भाव से हिंदी गद्य की विकासधारा को एक नई दिशा मिली।
शुक्ल युग (1920 – 1936 ई०)
द्विवेदी युग नैतिक मूल्यों के आग्रह का युग था। जबकि इस युग में द्विवेदी युग की प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य में भाव-तरलता, कल्पना-प्रधानता और स्वच्छंद चेतना आदि भावनाओं का समावेश हुआ। परिणाम यह हुआ कि इस युग में रचित गद्य साहित्य अधिक कलात्मक, लाक्षणिक, कवित्वपूर्ण और अंतर्मुखी हो गया। इस युग के प्रमुख गद्यकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामकृष्ण दास, वियोगी हरि, डॉ. रघुवीर सिंह, शिवपूजन सहाय, वर्मा, पंत, निराला, नंददुलारे बाजपेयी, बेचन शर्मा ‘उग्र’ के नाम मुख्य हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दो प्रकार के निबंध लिखे – ‘साहित्यिक’ एवं ‘मनोविकार’ संबंधी। उनके साहित्यिक निबंध भी दो वर्ग के हैं – ‘सैद्धांतिक’ तथा ‘व्यावहारिक’ समीक्षा से संबंधित। शुक्ल जी को युगांतकारी निबंधकार कहा जाता है। इसका श्रेय उनके मनोविकार संबंधी निबंधों को जाता है। गुलाबराय जी के कुछ निबंध साहित्यिक विषयों पर तथा कुछ सामान्य विषयों पर लिखे गए हैं। बख्शी जी के निबंध विचारात्मक, समीक्षात्मक तथा विवरणात्मक हैं।
अद्यतन युग (1936 से आजतक )
इस काल में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ इस युग में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लेखकों ने यथार्थवादी जीवन दर्शन को महत्व देना आरंभ किया। इस युग में साहित्यकारों की दो पीढ़ियाँ परिलक्षित की जा सकती हैं।
प्रथम पीढ़ी उन साहित्यकारों की है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से लिखते आ रहे थे। इस पीढ़ी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, शांतिप्रिय द्विवेदी, रामधारी सिंह दिनकर, यशपाल, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर, जैनेंद्र, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, वासुदेव शरण अग्रवाल तथा भगवत शरण उपाध्याय आदि प्रमुख हैं।
दूसरी पीढ़ी उन लेखकों की है जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद साहित्य सृजन में प्रवृत्त हुए हैं। इनमें श्री विद्या निवास मिश्र, हरिशंकर परसाई, कुबेरनाथ राय, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, शिवप्रसाद सिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस युग में हिन्दी गद्य साहित्य में नवीन कलात्मक गद्य विधाओं का विकास हुआ तथा उसे राष्ट्रीय गरिमा प्राप्त हुई। आज हिन्दी की यह स्थिति है कि उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित मान्यता मिलने लगी है।
निष्कर्ष- हिंदी गद्य के विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र का विशेष योगदान है लेकिन भारतेंदु युग के पहले से ही हिंदी गद्य का आरंभ हो चूका था। आधुनिक काल हिंदी गद्य का सर्वांगीण विकास का काल है। इस युग में गद्य के सभी विधाओं का उद्भव हुआ। जिसके परिणाम स्वरुप हिंदी भाषा आज विश्व की भाषाओं में गिनी जाती है।