भारतेंदु और हिंदी नवजागरण

नवजागरण का शाब्दिक अर्थ है- “नये रूप से जागना”

      हिंदी साहित्य में आधुनिक युग का आरंभ भारतेंदु से माना जाता है। उन्होंने समाज में चल रही नवजागरण की प्रक्रिया का न केवल वैचारिक धरातल पर संज्ञान लिया, बल्कि उन मूल्यों को साहित्य से जोड़कर उसे आधुनिक भाव-बोध से समृद्ध भी किया।

      * भारतेंदुयुगीन हिंदी नवजागरण 1857 ई. के आन्दोलन स्वरुप उत्पन्न हुआ। इसमें एक ओर अनेक धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन का प्रभाव था तो दूसरी ओर पूँजिपति एवं सामंतवाद की टकराहट। इन दोनों के संघर्षपूर्ण द्वंद्व के टकराहट से ही हिंदी नवजागरण एवं भारतेंदु-युगीन साहित्य दोनों का विकास हुआ।

      * भारतेंदु युग मुख्यतः दो संस्कृतियों के टकराहट का काल है। जिसमे “एक ओर मध्ययुगीन दरबारी संस्कृति है तो दूसरी ओर आम जनता में सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन के लिए वातावरण भी तैयार करना था। साहित्य में, देश के बढ़ते हुए असंतोष को सिर्फ पैदा करना भर नहीं था बल्कि सदियों से चली आ रही सामंती विचारों से भी मोर्चा लेना था।” 

      भारतेंदु देश की राजनीतिक स्थितियों का बराबर खबर लेते रहे। नवजागरण के केंद्र में ‘मनुष्य’ की स्थापना है। भारतेंदु ने इसे समझा तथा देश की तत्कालीन परिस्थितियों को परखकर उसकी दुर्दशा के विषय में लिखा-

      “रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।”

      भारतेंदु केवल दुर्दशा देखकर चिंतित नहीं थे। उन्हें कारणों की भी समझ थी। इसी कारण वे अंग्रेजी शासन की आलोचना करते हुए कहते हैं –

      “अंग्रेज राज सुख-साज सब भारी। पै धन विदेश चलि जात, यहै बडि ख्वारी।।

      भारतेंदु राष्ट्रवाद के केंद्र में, आरंभ में अंग्रेजी शासन की आर्थिक आलोचना की यह राष्ट्रवाद नवजागरण की ही उपज थी। भारतेंदु सारा दोष दूसरों पर नहीं डालते हैं, बल्कि वे अपने ही लोगों को दुर्गुणों के कारण फटकारते थे।

      1884 ई. में उन्होनें देश के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जो “बलिया व्याख्यान” के नाम से प्रसिद्ध है। नवजागरण के केंद्र में धार्मिक-सामाजिक सुधार आन्दोलन रहे। इनका मुख्य सार आडंबरों, कर्मकांडों का विरोध तथा स्त्री व शुद्र समाज की दुर्दशा में परिवर्तन का रहा। बलिया के व्याख्यान में उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया, बाल-विवाह का विरोध तथा लड़कियों की शिक्षा का समर्थन किया।

      1870 ई. में अपने युवावस्था में ही उन्होनें “लेवी प्राण लेवी” लेख में अंग्रेजों के विरूद्ध बात कही। एक युवा का ऐसा साहस देख सभी के भीतर देश प्रेम की भावना उमड़ उठी। नवजागरण की इस भावना से प्रेरित “बालकृष्ण भट्ट” ने साहित्य को जनता से जोड़ते हुए कहा–– “साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।”

      नवजागरण की चेतना स्वतंत्रता प्रधान थी। इसलिए वे हर प्रकार के साम्राज्यवाद का विरोध करते रहे। चाहे अंग्रेजों का हो या मुसलमानों का लेकिन वह केवल साम्राज्यवाद का विरोध है धर्मों का नहीं। वे मुसलमानों की समानता की प्रशंसा करते हैं। तमाम प्रगतिशील बातें उन्होंने अंग्रेजों से सीखीं।

      नवजागरण की पृष्ठभूमि में दो संस्कृतियों का संक्रमण है। ‘भारतीय’ संस्कृति और ‘यूरोपीय’ संस्कृति। इन दोनों संस्कृतियों के संक्रमण में यूरोप ने स्वयं को बेहतर बताकर भारतियों को असभ्य बताया। भारतेंदु ने अपने समय को समझा तथा भारतीयों को हीन भावना से बचाने का प्रयास किया। अपनी भाषा को लेकर प्रेम का भाव इसी की देन है। साथ ही गद्य की प्रधानता व उसके लिए खड़ीबोली का प्रयोग जनता को जागरूक करने के लिए भी हुआ।

      भारतेंदु ने कई पत्रिकाओं का संपादन किया। उनके द्वारा सम्पादित विभिन्न पत्रिकाओं का हिन्दी नवजागरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा सम्पादित “कवि वचन सुधा (1868 ई.), हरिश्चंद्र मैगजिन (1873 ई.) बाला बोधिनी (1874 ई.) में देश की उन्नति और देश के विकास को रोकने वाली कुप्रथाओं की विवेचना की गई है। ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका तो मूल रूप से स्त्रियों के लिए निकाली गई थी। समसामयिक समस्याओं पर नाटक-निबंध आदि लिखे। यहाँ तक कि भक्ति-विषयक रचनाओं में भी देश-भक्ति संबंधी आधुनिकता का पुट है। इस प्रकार भारतेंदु हर विधागत माध्यम से नवजागरण की चेतना को संपन्न कर रहे थे।

      भारतेंदु के साहित्य में नवजागरण की चेतना पूर्ण रूप से मिलती है इसमें उनका अंतर्विरोध भी शामिल है (जैसे- राजभक्ति, देशभक्ति आदि)

      1884 ई. में भारतेंदु जब महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की सूची ‘काल चक्र’ नाम से निर्मित कर रहे थे, उसी वक्त उन्होंने ‘हिन्दी नये चाल में ढली’ (1873 ई.) का भी उल्लेख किया। प्रश्न यह है कि दुनिया की प्रसिद्ध घटनाओं में हिन्दी का नये चाल में ढलना भी क्या एक प्रसिद्ध घटना है? अगर है तो 1873 ई. को ही इसके घटित होने का समय क्यों चुना गया?

      इसका उत्तर आचार्य शुक्ल ने दिया–– “सन् 1873 ई. में उन्होंने ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ हो गया। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले-पहल इसी ‘चन्द्रिका’ में प्रकट हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिन्दी का उदय इसी समय से माना है।

      उन्होंने ‘कालचक्र’ नाम की अपनी पुस्तक में लिखा है कि, “हिन्दी नये चाल में ढली, सन् 1873 ई॰।”

      भारतेंदु लोकभाषा के समर्थक थे। वे टकसाली भाषा के विरूद्ध थे। टकसाली अर्थात गढ़ी हुई भाषा। भारतेंदु भाषा का सहज, सरल, प्रवाहमय और विनोदपूर्ण रूप स्वीकार करते थे। भारतेंदु ‘निज भाषा की उन्नति’ के पक्षधर थे। वे कहते थे :

            निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल

            बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत ना हिय को सूल

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