भारतीय काव्यशास्त्र – प्रमुख संप्रदाय और सिद्धांत : ‘रस संप्रदाय’

‘काव्यशास्त्र’ काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। भारतीय काव्यशास्त्र के अंतर्गत काव्य या साहित्य को उसके विभिन्न अवयवों की व्याख्या विभन्न संप्रदायों और उनके संस्थापक आचार्यो द्वारा की गई है। भारतीय काव्यशास्त्र का आधार संस्कृत भाषा है। संस्कृत काव्यशास्त्र का आरंभ भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से माना जाता है। भरतमुनि ‘रस-सिद्धांत’ के प्रवर्तक थे। उनके सिद्धांत की व्याख्या विभिन्न टीकाओं के माध्यम से हुई है। भट्टलोलट, शंकुक, भट्टनायक और अभिनवगुप्त आदि आचार्यों ने रस-निष्पत्ति की विभिन्न व्याख्याएँ की है।

काव्य क्या है? विशेष तथ्य:

      * काव्य एक ‘दैवी’ प्रतिभा है।

      * कविता ‘अनंद’ की अनुभति है। यह सभी को प्राप्त नहीं होती।

      * कविता को ‘सुकरात’ ने दैवी प्रेरणा माना है।

      * आचार्यों ने कविता को ‘आत्मा’ कहा है।

      * कविता एक ‘कल्पना’ है।

काव्य के तीन भेद है- गद्द, पद्द और चंपू

      * प्रबंध, मुक्तक, गीतिकाव्य है।

      * ‘रस’ आदि कविता की आत्मा है, तो पद्द, छंद उसका ‘शरीर’ है।

      * ‘ध्वनि’ उसका रुप रंग और ‘अलंकार’ उसके आभूषण है।

      * ‘वक्रोक्ति’ उनके ‘वाणी का माधुर्य’ है, तो ‘रीति’ उसके व्यवहार की सुन्दरता है।    

भरतमुनि के पश्चात् विभिन्न मत प्रवर्तक और आचार्यों के द्वारा उनके संप्रदायों का उल्लेख मिलता है।

      1. ‘रस संप्रदाय’ आचार्य भारतमुनि – (रचना – नाट्यशास्त्र) 

      2. ‘अलंकार संप्रदाय’ आचार्य भामह – (रचना – काव्यालंकार)

      3. ‘रीति संप्रदाय’ आचार्य वामन – (रचना – काव्यादर्श)

      4. ‘ध्वनि संप्रदाय’ आचार्य अनंदवर्धन – (रचना – ध्वन्यलोक)

      5. ‘वक्रोक्ति संप्रदाय’ आचार्य कुंतक – (रचना – वक्रोक्ति काव्यजीवितम्)

      6. ‘औचित्य संप्रदाय’ आचार्य क्षेमेन्द्र – (रचना – औचित्य विचारचर्चा)

1. ‘रस संप्रदाय’

आचार्य भरतमुनि : (समय- ई. पू. 1 से 3 शताब्दी तक माना जाता है)

रचना – ‘नाट्यशास्त्र’ इसमें रसों की संख्या 8 है।

* इन्होंने 8 स्थाई भाव, 8 सात्विक भाव और 33 संचारी भाव, कुल मिलाकर भावों की संख्या 49 माना है।

* ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति – ‘रस्’ धातु में + ‘अच्’ प्रत्यय ‘अशुन’ प्रत्यय + या ‘अ’ प्रत्यय के योग से बना है।

* अतः ‘रस’ धातु में ‘अशुन’ प्रत्यय के योग से ‘रस’ शब्द बना है।

* ‘रस’ का शाब्दिक अर्थ ‘आनंन्द’  होता है।

* ‘रस’ शब्द का उल्लेख सबसे पहले ‘ऋग्वेद’ में भोजन के ‘स्वाद’ के रूप में मिलता है।

* काव्यशास्त्र में ‘रस’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में किया।

* तैत्रिय उपनिषद में रस को ब्रह्मानंद का समानार्थी कहा गया है- “रसौ वै सः”

परिभाषा- “काव्य को पढ़कर अथवा सुनकर तथा नाटक को देखकर सहृदय (प्रेक्षक) को जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहते हैं।”

* ‘नाट्यशास्त्र’ में 36 अध्याय और 5000 श्लोक हैं।

* अध्याय 6 और 7 में रस+भाव पर विचार किया गया है।

* ‘नाट्यशास्त्र’ को ‘पंचम वेद’ कहा जाता है।

* ‘रस’ के निम्न 4 अवयव / रसांग / तत्व हैं – स्थायी भाव, विभाव, अनुभव, संचारीभाव हैं।

* आचार्य भरतमुनि के अनुसार रसों की संख्या 8 है – रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय।

* इन्होंने 4 अलंकार पर भी विचार किया है- (उपमा, रूपक, दीपक यमक)।

* भरतमुनि ने 10 ‘गुण’ और 10 ‘दोषों’ का वर्णन किया है।

* अभिनवगुप्त के अनुसार रसों की संख्या 9 है।

आचार्य राजशेखर ने- ‘शब्दार्थों ते शरीरं रस आत्मा” कहकर ‘रस’ को काव्य की आत्मा माना है।

अभिनवगुप्त ने – “रसनैन सर्वजीवित काव्यम्”

मम्मट ने – “ये रसस्यां गिनः”

आचार्य विश्वनाथ ने – “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” (रसात्मक वाक्य काव्य है)

पंडितराज जगन्नाथ ने – “रमणीयार्थ प्रतिपादकः काव्यम्” (रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला शब्द काव्य है) कहकर रस को काव्य की आत्मा माना है।

आचार्य भामह ने काव्य में रस का प्रयोग किया है और महाकाव्य में रस की अनिवार्यता स्वीकार किया है। इन्होंने ‘रस’ को अलंकार तथा ‘विभाव’ को रस माना है।

आचार्य दंडी के अनुसार – “सभी अलंकारों का मंतव्य काव्य को रसमय बनाना है।”

रुद्रट ने ‘शांत’ एवं ‘प्रेयान’ दो नए रसों का उल्लेख किया है। उन्होंने ‘शांतरस’ का स्थायी भाव ‘सम्यक ज्ञान’ माना है।

रुद्रट ने श्रृंगार रस के 4 भेदों का वर्णन किया है – संयोग, वियोग, प्रच्छन्न और प्रकाश।

आचार्य क्षेमेन्द्र ने ‘रस’ को ही आधार मानकर ‘औचित्य’ सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

रीतिकाल के कवि देव ने ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ को काव्य का शरीर तथा ‘रस’ को उसका ‘श्रृंगार’ माना है।

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘रस’ को ही काव्य की आत्मा माना है। उनके अनुसार- “रस कविता का सबसे बड़ा गुण है।”

मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित – ‘भारत भारती’ की ये पंक्तियाँ ‘रस’ के आत्मस्वरूप का ही उद्घाटन करती हैं – “मृत जाति को कवि ही जिलाते रस सुधा के योग से।”

डॉ नगेंद्र और नंददुलारे वाजपेयी ने – ‘रस’ को काव्य की ‘आत्मा’ कहा है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल अनुसार – “ह्रदय की मुक्तावस्था ‘रसदशा’ कहलाती है।”

डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार – “रस अमर है, यह काव्य का सबसे महत्वपूर्ण अंग भी है। जब तक काव्य रहेगा रस की सृष्टि निरंतर होती रहेगी”

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