सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने 1920 ई० के आस-पास लेखन कार्य आरम्भ किया था। उनकी पहली रचना ‘जन्म-भूमि’ पर लिखा गया एक गीत था। लम्बे समय तक निराला जी की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध ‘जूही की काली’ जिसका रचना काल निराला ने स्वयं 1916 ई० बतलाया था। वस्तुतः 1921 में लिखी गई थी तथा 1922 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। इस कविता में कवि ने जूही की कली और पवन का मानवीकरण किया है। नायिका जूही की कली और नायक पवन का वर्णन है। नायक पवन अपनी नायिका जूही की कली को छोड़कर दूर मलयगिरि पर्वत पर चला गया है।
व्याख्या- कवि निराला जी कहते हैं कि ‘जूही की कली’ विरह में पीड़ित नायिका का रूप है जो अपने प्रेमी पवन के विरह में तड़प रही है, जो उसे छोड़कर दूर मलयागिरी पर्वत पर चला गया है। वह अपने प्रेमी के स्वप्न में ही खोई रहती है कि कब उसका प्रेमी आएगा और उन दोनों का मिलन होगा। दूर मलयागिरि पर्वत पर गए उसके प्रेमी पवन को भी अपनी नायिका की याद आती है। वह अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए तड़प उठता है और वह अपनी प्रेयसी जूही की कली से मिलने के लिए चल पड़ता है।
जब वह अपनी प्रेयसी के पास पहुंचता है तो उसकी प्रेयसी जूही की कली उसके सपनों में खोई निश्चल आंखें मूंदे पड़ी है। उसे अपने प्रेमी के आने की कोई सुध-बुध नहीं है, और वो अपने प्रेमी के स्वागत में नही उठती है। इसे देखकर उसके प्रेमी को लगता है कि जूही की कली को उसके आने से कोई हर्ष नहीं हुआ और पवन क्रोधित हो जाता है। फिर पवन क्रोधित होकर अपने झोंको को तेज गति से चलाने लगता है, जिससे जूही की कली के कोमल तन पर आघात लगता है और वह हड़बड़ा कर उठ जाती है। तब अपने सामने अपने प्रेमी पवन को देखकर वह हर्ष से उल्लसित हो उठती है और फिर दोनों प्रेमी-प्रेमिकाओं के गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं। इसप्रकार दोनों का मिलन हो जाता है और दोनों प्रेमी-प्रेमिका प्रेम के रंग में डूब जाते हैं।
जूही की कली (कविता)
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न-
अमल-कोमल-तनु-तरुणी-जूही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल-पत्रांक में।
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात,
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गात,
फिर क्या? पवन
उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन
कुञ्ज-लता-पुंजों को पारकर
पहुँचा जहां उसने की केलि
कली-खिली-साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
बोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा मांगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूंदे रही-
किम्वा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की,
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल,
चौंक पड़ी युवति-
चकित चितवन निज चारों ओर पेर,
हेर प्यारे की सेज-पास,
नम्रमुख हंसी-खिली
खेल रंग, प्यारे संग।