प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवर्तक ‘अज्ञेय’ जी ने अपनी सभी विधाओं में अद्भूत प्रयोगात्मक प्रगति का परिचय दिया है। साहित्य सृजन के क्षेत्र में अज्ञेय जी ने एक साथ कवि, कथाकार, आलोचक, संपादक आदि विविध रूपों में साहित्य प्रेमियों को चौकाया तथा व्यावहारिक जगत में भी उन्होंने फोटोग्राफी, चर्म-शिल्प, पर्वतारोहन आदि से भी लोगों को अपनी अद्भूत क्षमता से अभिभूत किया। किन्तु उनका कवि और आलोचक व्यक्तिव ही सबसे अधिक लोकप्रिय रहा। वैसे तो अज्ञेय प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति वाले छोटी कविताओं के कवि माने जाते हैं किन्तु इन्होंने एक लम्बी कविता भी लिखी जिसका नाम ‘असाध्य वीणा’ है।
असाध्य वीणा अज्ञेय जी की एक लम्बी कविता है। इस कविता की रचना उन्होंने सनˎ1957-58 के जापान प्रवास के बाद 18-20 जून 1961 में अल्मोड़ा के कॉटेज में 321 पंक्ति वाली यह लंबी कविता लिखी थी। यह कविता उनके काव्य संग्रह ‘आँगन के पार द्वार’ में संकलित है, जो 1961 में ही प्रकाशित हुआ था।
असाध्य वीणा कविता एक चीनी-जापानी लोक कथा पर आधारित है। इस कविता की मूल कहानी ‘आकोकुरा’ की पुस्तक ‘द बुक ऑफ टी’ में ‘टेंमिंग ऑफ द हार्प’ शीर्षक में संकलित है। इसकी मूल कथा इस प्रकार है- ‘लूंगामिन’ नामक घाटी में एक विशाल किरी वृक्ष था। जिसमे किसी जादूगर ने एक वीणा का निर्माण किया। अनेक वाद्य कलाकार इस वीणा को बजाने के लिए कोशिश करके हार गए, पर इस वीणा को नहीं बजा सके। इसलिए इसका नाम ‘असाध्य वीणा’ पड़ गया। अंत में ‘बीनकरों’ का राजकुमार ‘पीवो’ ही इस वीणा को साध पाता है। उसने वीणा से ऐसी तान छेड़ी कि उसमे से तरह-तरह की स्वर लहरियाँ फूट पड़ी कभी उसमे से प्रेम गीत निकलता था तो कभी उसमे से युद्ध का राग सुनाई पड़ता था। इस प्रकार की कथा बौद्ध धर्म के ‘जेन’ या ‘झेन’ सम्प्रदाय में भी प्रचलित है जो एक ‘ध्यान’ सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि सत्य का ज्ञान ही वास्तव में आत्मज्ञान है। ‘तावो’ वासियों में भी इस प्रकार की कथा प्रचलित है।
अज्ञेय जी ने इस कथा का भारतीयकरण करते हुए वर्णन किया है कि किरीटी नामक वृक्ष से वज्रकीर्ति नामक साधक ने ऐसी वीणा का निर्माण किया जिसे राजदरबार में कोई भी कलावंत बजा नहीं सका। अंततः इस असाध्य वीणा को केशकम्बली प्रियंवद नाम का साधक ही इसे साध पाता है। जब यह वीणा बजती है तब दरबार में उपस्थित राजा-रानी और प्रजाजनों को अपने-अपने व्यक्तित्व और भावनाओं के अनुसार उन्हें अलग-अलग संगीत सुनाई देता है। तुलसीदास जी ने कहा था। “जाकि रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी।” इससे यह अर्थ निकलता है कि व्यक्ति को सत्य की उपलब्धियाँ अपने व्यक्तित्व और अपने वैचारिक स्तर के अनुरुप ही हो पाता है। असाध्य वीणा पूर्णतः प्रतीकात्मक कविता है। किरीटी तरु परम सत्य का प्रतीक है। उससे बनाई गई वीणा सत्य की उपलब्धि का साधन मार्ग है और वीणा से निकलने वाला संगीत परमात्मा की अभिव्यक्ति है। यह सत्य प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भावनाओं के अनुसार उपलब्ध होता है।
वास्तव में जीवन की असाध्य वीणा को वही साध पाता है जो सत्य के साथ-साथ अपने आप को भी शोधता है या जो अपने व्यक्तित्व और परिवेश को भूल कर उसी के प्रति समर्पित हो जाता है। यह प्रक्रिया बाहर से भीतर मोड़ने की है, जिसे अंतर्मुखी होना भी कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में इस प्रक्रिया को ‘तथता’ कहा गया है, जिसमे सत्य को देखकर ही सत्य को पाया जा सकता है। कवि ने असाध्य वीणा के द्वारा सृजनात्मक रहस्य को समझाने का प्रयत्न किया है। वैयक्तिक अहम् का विस्मरण कर जब साधक या सृष्टि के साथ लयबद्ध हो जाता है तब रचनात्मक चमत्कार पैदा होता है।
असाध्य वीणा (कविता)
आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह!
राजा ने आसन दिया। कहा :
‘कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!’
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उस को, हट गए।
सभी की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गईं
प्रियंवद के चेहरे पर।
‘यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से
-घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किंतु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढ़ा था-
उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उस की करि-शुंडों-सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उस के वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और-सुना है-जड़ उस की जा पहुँची थी पाताल-लोक,
उस की ग्रंथ-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ा :
हठ-साधना यही थी उस साधक की-
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।’
राजा रुके साँस लंबी ले कर फिर बोले :
‘मेरे हार गए सब जाने-माने कलावंत,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ्र-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा-स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन-मात्र प्रतीक्षमाण!’
केशकंबली गुफा-गेह ने खोला कंबल।
धरती पर चुप-चाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच
कर के प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला : ‘राजन्! पर मैं तो
कलावंत हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमंत्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इन का तो गद्गद विह्वल कर देने वाला है!’
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकंबली अथवा हो कर पराभूत
झुक गया वाद्य पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पंदित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-
नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भर की साधना रही?
भूल गया था केशकंबली राज-सभा को :
कंबल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिस में साक्षी के आगे था
जीवित वही किरीटी-तरु
जिस की जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिस के कंधों पर बादल सोते थे
और कान में जिस के हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
संबोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
‘ओ विशाल तरु!
शत-सहस्त्र पल्लवन-पतझरों ने जिस का नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गए गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ-सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
डाली-डाली को कँपा गई-
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृंदगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे!
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गई वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वयं न जाने कितनों के स्पंदित प्राण रच गए!
‘नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
किंतु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय:
मैं सुनूँ,
गुनूँ, विस्मय से भर आँकूँ
तेरे अनुभव का एक-एक अंत:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पाएँ।
‘गा तू!
यह वीणा रक्खी है : तेरा अंग-अपंग!
किंतु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद्
तू गा :
मेरे अँधियारे अंतस् में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का-
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
घनी रात में महुए का चुप-चाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरे में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रियों की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल
कि झरते-झरते मानो
हरसिंगार का फूल बन गई।
भरे शरद् के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजों का क्रेंकार। काँद लंबी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनों में गंध-अंध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय साँय।
‘हाँ, मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घाम में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूँज-
काँपती मंद्र गूँज-अनुगूँज-साँस खोयी-सी, धीरे-धीरे नीरव।
‘मुझे स्मरण है :
हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूँक, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप
थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
पंथी के घोड़े की टाप अधीर।
अचंचल धीर थाप भैंसों के भारी खुर की।
‘मुझे स्मरण है :
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार-
उस लंबे विलमे क्षण का तंद्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है-
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद-
उस संधि-निमिष की पुलकन लीयमान।
‘मुझे स्मरण है :
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझ को।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कंपन लेता है मुझ को मुझ से सोख-
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ…।
मुझे स्मरण है-
पर मुझ को मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं-
पर मैं मुझ से परे, शब्द में लीयमान।
‘मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
ओ रे तरु! ओ वन!
ओ स्वर-संभार!
नाद-मय संसृति!
ओ रस-प्लावन!
मुझे क्षमा कर-भूल अकिंचनता को मेरी-
मुझे ओट दे-ढँक ले-छा ले-
ओ शरण्य!
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
आ, मुझे भुला,
तू उतर वीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा-
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
तू गा, तू गा-
तू सन्निधि पा-तू खो
तू आ-तू हो-तू गा! तू गा!’
राजा जागे।
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था-
काँपी थीं उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
सहसा वीणा झनझना उठी-
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गई-
रोमांच एक बिजली-सा सब के तन में दौड़ गया।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू
जिस में सोता है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय।
डूब गए सब एक साथ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
राजा ने अलग सुना :
जय देवी यश:काय
वरमाल लिए
गाती थी मंगल-गीत,
दुंदुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गए, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गई-
तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला-किंकिणि-
सब अंधकार के कण हैं ये! आलोक एक है
प्यार अनन्य! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उस में छिप कर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास-भरी।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी।
सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना।
इस को
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का।
उस को
आतंक-मुक्ति का आश्वासन!
इस को
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक।
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुदबुद।
किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन-
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, गाहकों की आस्पर्धा भरी बोलियाँ,
चौथे को मंदिर की ताल-युक्त घंटा-ध्वनि।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक।
बटिया पर चमरौधे की रुँधी चाप सातवें के लिए-
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल।
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की।
उसे युद्ध का ढोल।
इसे संझा-गोधूली की लघु टुन-टुन-
उसे प्रलय का डमरु-नाद।
इस को जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उस को महाजृंभ विकराल काल!
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे-
हो रहे वंशवद, स्तब्ध :
इयत्ता सब की अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गई विलय।
वीणा फिर मूक हो गई।
साधु! साधु!!
राजा सिंहासन से उतरे-
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
जनता विह्वल कह उठी ‘धन्य!
हे स्वरजित्! धन्य! धन्य!’
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक-मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीठ से दुलराती-
उठ खड़ा हुआ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
‘श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में-
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था-
सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।’
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकंबली।
ले कर कंबल गेह-गुफा को चला गया।
उठ गई सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
युग पलट गया।
प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।
सारांश- कविता में कवि का उद्देश्य कथा कहना नहीं है। उनका उद्देश्य सत्य को व्यक्त करना है। इसलिए ‘असाध्य वीणा’ वर्णात्मक कविता ही नहीं वरनˎ एक प्रतीकात्मक कविता है। कविता का घटनाक्रम, पात्र-प्रियंवद, असाध्य वीणा, उसके संगीत, किरीटी तरु, राजा-रानी तथा अन्य जन आदि सब प्रतीक हैं। कविता में यह प्रतीत होता है कि जीवन का एक मूल सत्य है। जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। प्रियंवद जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी भर है, किरीटी तरु में सारा वन समाया हुआ है, अतः वीणा में जो भी संगीत है वह स्यंभू है, अखंड है, ब्रह्मा का अशेष प्रभामय मौन है। वीणा के संगीत में से जो संगीत सत्य प्रकट होता है वह न प्रियंवद का है, न वीणा का है। वस्तुतः वह तो सब कुछ की ‘तथता’ थे।
पहली बार ये लंबी कविता पढ़ने पर समझ में नही आती। कई बार पढ़ो तब इसकी तहें खुलती है।
आपने बहुत अच्छा लिखा है। 👌
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आपने सही कहा। ये कविता बहुत ही सुंदर और ज्ञानवर्धक भी है।
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कविता बहुत सुंदर है
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नमस्ते Ashok Ji धन्यवाद
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