रिपोर्ताज

‘रिपोर्ताज’ गद्य-लेखन की एक विधा है। हिंदी में रिपोर्ताज को ‘सूचनिका’ और ‘रूपनिका’ भी कहा जाता है। परन्तु इसका प्रचलित शब्द ‘रिपोर्ताज’ है। रिपोर्ताज ‘फ़्रांसिसी’ भाषा का शब्द है। फ़्रांस में यह शब्द अंग्रेजी के ‘रिपोर्ट’ शब्द के आधार पर द्वितीय विश्व युद्ध के समय बनाया गया।

रिपोर्ताज की परिभाषाएँ:

हिंदी साहित्य कोश के अनुसार- “रिपोर्ट का कलात्मक एवं साहित्यिक रूप रिपोर्ताज है।”

डॉ. नगेंद्र के शब्दों में- “आँखों देखी एवं कानों सुनी घटना का ऐसा विवरण कि पाठक की हृदयतंत्री के तार झंकृत हो जाएँ और वह उसे भूल नही सके उसे रिपोर्ताज कहते हैं।”

* विश्व साहित्य में रिपोर्ताज के ‘जनक’ इलिया एहरनबर्ग (रुसी साहित्यकार) थे।

* हिंदी में रिपोर्ताज विधा के ‘जनक’ शिवदान सिंह चौहान हैं।

* ‘लक्ष्मीपूरा’ (1938 ई.) प्रथम रिपोर्ताज है जो ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

रिपोर्ताज के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:

1. वस्तुमय तथ्य– रिपोर्ताज में कल्पना का स्थान नहीं होता है। उसमे वस्तुस्थिति का, आँखों देखी घटना का या दृश्य का तथ्यात्मक चित्रण होता है।  

2. कथात्मकता– रिपोर्ताज में वर्णन के साथ कथा तत्व का समावेश होता है। कथा तत्व के अभाव में रिपोर्ताज सिर्फ रिपोर्ट मात्र रह जाता है।

3. पत्रकारिता– रिपोर्ताज लेखक को पत्रकार तथा कलाकार दोनों की भूमिका निभानी होती है   

4. जनजीवन के प्रति सहानुभूति– रिपोर्ताज लेखक के लिए आवश्यक है कि वह जनजीवन के प्रति सच्ची और सही जानकारी तथा सहानुभूति रखे।

5. प्रभाव की एकता– रिपोर्ताज में प्रभाव की एकता भी आवश्यक है।  

हिंदी रिपोर्ताज: उद्भव और विकास

* रिपोर्ताज सामयिक आवश्यकता की उपज है।

* हिंदी में इसकी लेखन की परंपरा बहुत नवीन है।

* हिंदी में रिपोर्ताज लेखन का सूत्रपात करने का श्रेय रांघेय राघव को है। इन्होंने 1941ई. में * बंगाल के भीषण अकाल पर अपने रिपोर्ताज प्रस्तुत किए थे।

* अमृतलाल नागर ने उसी अकाल से प्रभावित होकर ‘महाकाल’ उपन्यास लिखा था।

* सन् 1948, 1965 और 1971 ई. में भारत-पाक युद्ध, 1962 ई. में भारत-चीन युद्ध आदि घटनाओं ने भी लेखकों को रिपोर्ताज लिखने के लिए प्रेरित किया।

* बाढ़, अकाल, अग्निकांड, विमान दुर्घटना आदि के संबंध में भी रिपोर्ताज लिखे गए।

* सन् 1971 ई. में बांग्लादेश स्वाधीनता संग्राम के दिनों में धर्मवीर भारती ने बांग्लादेश से रिपोर्ताज भेजे थे जो धर्मयुग में छपते थे।

* दिनमान, ज्ञानोदय, कल्पना, अवकाश, माध्यम, सारिका, नया पथ, हिंदी एक्सप्रेस आदि पत्रिकाओं में रिपोर्ताज प्रकाशित होते रहे हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं के लिए सिर्फ पेशेवर पत्रकार ही रिपोर्ताज नहीं लिख रहे हैं, अपितु प्रतिष्ठित साहित्यकार भी सक्रिय रहे हैं।

* रांघेय राघव, धर्मवीर भारती, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, अमृतराय, प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर आदि लेखक रिपोर्ताज लेखकों में अपना स्थान रखते हैं।

रिपोर्ताज की विशेषताएँ:

1. यह आँखों देखी घटनाओं के आधार पर लिखा जाता है। इसलिए इसमें तथ्यों की प्रधानता और कल्पना तत्व कम होती है।

2. यह घटना-प्रधान के साथ-साथ कथा तत्व से युक्त होता है क्योंकि घटना का यथा तथ्य वर्णन इसका प्रमुख लक्षण है।

3. इसके लेखक को वस्तु स्थिति और विषय की जानकारी होनी चाहिए।

4. लेखक में संवेदनशीलता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति आवश्यक है।

5. सरसता, प्रवाह और भाव-प्रवणता इसके अनिवार्य गुण है।

6. सीमित परिधि में अधिक तथ्यों को प्रस्तुत करना इसका लक्ष्य होना चाहिए, परंतु आकार का कोई बंधन नहीं होता है। यह छोटा या बड़ा हो सकता है।

7. इसमें साहित्यिक एवं कलात्मकता का समावेश होना चाहिए।

8. इसमें वर्णित घटना या दृश्य काल्पनिक नहीं होकर वास्तविक होना चाहिए।

9. रिपोर्ताज किसी दृश्य अथवा चरित्र का नहीं बल्कि किसी विषय का होता है।

      संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है।

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