आत्मकथा

परिभाषा- ‘आत्मकथा’ किसी व्यक्ति की स्वलिखित जीवन की गाथा है। जब कोई रचनाकार अपनी स्वयं की कथा अपनी शैली में लिखता है, तो उसे ‘आत्मकथा’ कहते है। इसमें लेखक स्वयं की कथा को बड़ी आत्मीयता के साथ पाठक के सामने प्रस्तुत करता है। लेखक अपने जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, पारिवारिक घटनाओं, आर्थिक तथा राजनीतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में लिखता है। वह अपने जीवन में घटित घटनाओं का भी वर्णन करता है।

      आत्मकथा मूलतः अंग्रेजी शब्द ‘ऑटोबायोग्राफी’ से बना है। संस्कृत में ‘आत्मवृतकथनम्’ और ‘आत्म्चारितम्’ कहते है। हिंदी में इसके लिए अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे- आत्मवृत्त, आत्मगाथा, आत्मवृत्तांत, आत्मकहानी, आपबीती, आदि।

परिभाषाएँ:

      साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ‘आत्मकथा’ भी एक महत्वपूर्ण विधा है, जिसमे रचनाकार आत्मावलोकन करते हुए, वह स्वयं अपने जीवन का मूल्यांकन करता है। अतः सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मकथा लेखक के भोगे हुए जीवन का स्वयं किया गया विवेचन एवं विश्लेषण है।

1. एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिया के अनुसार- “आत्मकथा व्यक्ति के किये हुए जीवन का ब्यौरा हैं जो स्वयं उसके द्वारा लिखा जाता है।”

2. हरिवंशराय बच्चन के शब्दों में- “आत्मकथा लेखन की वह विधा है, जिसमे लेखक ईमानदारी के साथ आत्मनिरीक्षण करता हुआ अपने देश, काल, परिवेश से सामंजस्य अथवा संघर्ष के द्वारा अपने को विकसित एवं प्रतिष्ठापित करता है।”

3. डॉ. कुसुम अग्रवाल के शब्दों में- “आत्मकथा लिखना अपने अस्तित्व के प्रति कर्ज चुकाने जैसी प्रक्रिया या संसार चक्र में फसें अपने अस्तित्व की डोर को उधेड़ लेने का साहित्यिक प्रयास है।”

4. डॉ. साधना अग्रवाल के शब्दों में- “आत्मकथा लिखने की शर्त है ईमानदारी के साथ सच के पक्ष में खड़े होना और अपनी सफलताओं-असफलताओं का निर्ममता पूर्वक पोस्टमार्टम करना।”

5. डॉ. गोविंद त्रिगुणायत के शब्दों में- “आत्मकथा लेखक की दुर्बलताओं-सबलताओं आदि का वह संतुलित व्यवस्थित चित्रण है जो उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के निष्पक्ष उदघाटन में समर्थ होता है।”

आत्मकथा के तत्व-

      डॉ. शान्तिखन्ना ने आत्मकथा के प्रमुख तत्व बताये है- वर्ण्य विषय, चरित्र-चित्रण, भाषा-शैली

      1. वर्ण्य विषय- आत्मकथा में लेखक/ रचनाकार अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं और विषयों का वर्णन करता है। लेखक द्वारा आत्मकथा के वर्णित विषय में सत्यता का होना जरुरी है।

      2. चरित्र-चित्रण- आत्मकथा में लेखन में अत्मकथाकार ही स्वंय प्रमुख पात्र होता है। अतः आत्मकथा लेखक खुद के चरित्र के सभी पक्षों का विश्लेषण आत्मकथा में करता है आत्मकथाकार के लिए यह नितांत आवश्यक है कि वह निष्पक्ष और निर्दोष रहित भाव से आत्म विवेचन करें।

      3. भाषा शैली- आत्मकथा में भाषा को भावानुकूल और विषयानुकूल होना चाहिए भाषा को श्रेष्ठ बनाने के लिए शब्दों का चयन विषय एवं भावों के अनुकूल होना चाहिए। भाषा का प्रयोग पात्रों एवं परिवेश के अनुसार होना चाहिए। आत्मकथा की शैली में प्रभावोत्पादकता का होना अति आवश्यक है। आत्मकथाएँ विभिन्न शैलियों में लिखी जाती हैं। जैसे- भावात्मक शैली, वर्णात्मक शैली, विचारात्मक शैली, हास्य प्रधान शैली आदि।

आत्मकथा की विशेषताएँ- आत्मालोचन, प्रेरणा, वास्तविक जीवन से परिचय

      1. आत्मालोचन- आत्मलोचन आत्मकथा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। आत्मकथा लेखक अपने आप को सबसे करीब से देखता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने आपको साकारात्मक और नाकारात्मक पहलुओं का नजदीक से अवलोकन करता है।

      2. प्रेरणा- आत्मकथा बहुत बार समाज में प्रेरणा प्रदान करने का काम करती है। समाज के लिए अपना जीवन न्यौछावर करनेवाले या अनेक संघर्षो के बाद जीवन में सफलता प्राप्त करनेवाले महान व्यक्तियों की आत्मकथा जब समाज पढ़ता है तो उससे समाज को प्रेरणा मिलती है। यह हमारी भावी पीढ़ी के लिए मार्ग दर्शन का काम करती है।

      3. वास्तविक जीवन से परिचय- आत्मकथा रचनाकार के वास्तविक जीवन से परिचय कराती है। उसमे उन बातों का भी विवरण होता है जिन बातों से पाठक अनभिज्ञ होता है। आत्मकथा में लेखक अपने जीवन में घटित घटनाओं का भी विवरण प्रस्तुत करता है।

आत्मकथा का उद्भव और विकास-

      हिंदी की पहली आत्मकथा सन् (1641ई.) में बनारसी दास के द्वारा लिखित ‘अर्द्धकथा’ को माना गया है। यह अर्द्धकथा ‘पद्द’ में और ब्रज भाषा में रचित है। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने गुणों और अवगुणों का यथार्थ चित्रण किया है।

भारतेंदु युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी आत्मकथा ‘कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ लिखी थी। यह आत्मकथा अपूर्ण हैं।

* ‘आप बीती जग बीती’ (1957 ई.) में रचित नरदेव शास्त्री की आत्मकथा है।

* सन् 1901 ई. में अंबिकादत्त व्यास ने ‘निजवृतांत’ नामक आत्मकथा लिखी।

* राधाचरण गोस्वामी की आत्मकथा ‘आत्मचरित’ रचनाकाल अज्ञात है।

* स्वामी श्रद्धानंद की आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ रचनाकाल अज्ञात है।

* श्यामसुन्दर दास की आत्मकथा ‘मेरी आत्मकहानी’ 1941 ई.।

* गुलाबराय की ‘मेरी असफलताएँ’ 1941 ई. और

* आत्मकथा लेखन में महिला आत्मकथा लेखिकाओं का भी योगदान है। जानकी देवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा’ 1956 ई. महिला लेखिकाओं के द्वारा लिखी गई पहली आत्मकथा है।

* महिला लेखिकाओं में अमृता प्रीतम का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है। इनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ है। इसके अलावा अन्य महिला आत्मकथा लेखिकाओं में प्रतीमा अग्रवाल की ‘दस्तक जिंदगी की’ 1990 ई. तथा ‘मेड़ जिन्दगी का‘ 1996 ई. है।

* कुसुम अंसल की ‘जो कहा नहीं गया’ 1996 ई.।

* कृष्णा अग्निहोत्री की ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ 1997 ई.।

* पद्मा सचदेवा की ‘बूंद बावड़ी’ 1999 ई., और

* मैत्रयी पुष्पा का ‘कस्तूरी कुंडल बसे’ 2002 ई. तथा ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ 2008 ई. आदि आत्मकथाएँ हैं।

      इसके अतिरिक्त हरिवंशराय बच्चन, यशपाल, देवेंद्र सत्यार्थी, भगवतीचरण वर्मा, सत्यदेव परिव्राजक आदि रचनाकारों ने भी अपनी आत्मकथाएँ लिखी है।

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