सिद्ध साहित्य

आदिकालीन साहित्य:

आदिकालीन साहित्य केकाव्य की निम्नलिखित धाराएँ हैं –

1. सिद्ध साहित्य 2. नाथ साहित्य 3. रास साहित्य 4. रासों साहित्य 5. लौकिक साहित्य 6. गद्य साहित्य 7. अपभ्रंश साहित्य 

सिद्ध साहित्य-

परिभाषा- आदिकाल में बौद्ध धर्म की महायान शाखा के वज्रयानी कवियों द्वारा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा में लिखा गया उसे सिद्ध साहित्य के नाम से जाना जाता है।

राहुल सांकृत्यायन और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 84 सिद्धों का उल्लेख किया है। जिसमे सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लूइपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि हैं। इन सभी सिद्धों में नाम के आगे लगा ‘पा’ सम्मानसूचक शब्द ‘पाद’ का विकृत रूप है। इनमे से केवल 14 सिद्धों की ही  रचनाएँ अभी तक उपलब्ध है। सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को सिद्ध साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य बौद्धधर्म के वज्रयान का प्रचार करने के लिए रचा गया। सिद्ध कवियों की रचनाएँ मुख्यतः दो काव्य रूपों में मिलती हैं- ‘दोहाकोश’ तथा ‘चर्यपाद’। ‘दोहा’ संग्रह को ‘दोहाकोश’ के नाम से तथा चर्यापाद को ‘चर्यागीत’ के नाम से जाना जाता है।

सिद्ध साहित्य में स्वाभाविक सुख भोगों को स्वीकार करने की बात कही गई है तथा गृहस्त जीवन पर बल दिया गया है। इन्होंने पाखंड तथा बाह्य अनुष्ठानों का विरोध किया है तथा अपने शरीर में ही परमात्मा का निवास माना है। सिद्धों के साहित्य में गुरु को विशेष महत्व दिया गया है। उनके अनुसार शरीर में स्थित ब्रह्म की प्राप्ति गुरु के कृपा से ही संभव है। क्योंकि गुरु ही विविध तांत्रिक क्रियाओं का प्रयोग और विश्लेषण बता सकता है, जिसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जा सकती है।

आचार्य हजारीप्रसाद के अनुसार- “सिद्ध साहित्य की रचनाओं में प्रधान रूप से नैरात्म्य भावन, काय रोग, सहज शून्य की साधना और भिन्न प्रकार की सामधिजन्य अवस्थाओं का वर्णन है।”

      सिद्ध साहित्य की भाषा को अर्धमागधी अपभ्रंश के निकट माना जाता है क्योंकि इस साहित्य की भाषा को अपभ्रंश तथा हिंदी के संधि काल की भाषा माना गया है। अतः इसे ‘संध्या’ या ‘संधा’ भाषा भी कहा जाता है।   

* सिद्धों के चरमोत्कर्ष का काल 8वीं से 13वीं शताब्दी माना जाता है।

* सिद्धों के प्रमुख केंद्र – श्री पर्वत, अर्बुत पर्वत, विक्रमशिला, नालंदा, असम, बिहार था।

सिद्धों को ‘पालवंश’ का संरक्षण प्राप्त था।

* सिद्धों के बारे में सबसे पहले जानकारी ‘ज्योतिरीश्वर ठाकुर’ के ‘वर्ण रत्नाकर’ से मिलती है।

* सिद्ध मुस्लिम आक्रमणकारियों से त्रस्त होकर भारत को छोड़कर ‘भोट’ देश (नेपाल, भूटान, तिब्बत) की तरफ अग्रसर हो गए।

* सिद्धों की रचनाओं की खोज सबसे पहले ‘हरप्रसाद शास्त्री’ ने नेपाल से 1907 ई. में प्राप्त की थी।

* हरप्रसाद शास्त्री ने 1917 ई. में सिद्धों की वाणियों का संकलन ‘बौद्धगान’ व ‘दोहा’ के नाम से बांग्ला भाषा में करवाया।

* सिद्धों के बारे में विशेष विस्तृत और विवेचनात्मक जानकारी सबसे पहले राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिंदी काव्य धारा’ (1945 ई.) में दी।

* राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध साहित्य का आरंभ ‘सरहपा’ से माना है। सरहपा का समय 769 ई. के लगभग माना जाता है।

* राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों की संख्या 84 माना है। इन 84 सिद्धों में 4 स्त्रियाँ भी थी। कनखलापा, लक्ष्मीकरा, मनिभद्रा और मेखलापा। सिद्धों को योगी और तथा स्त्रियों को योगिनियाँ कहा जाता था।

* ये पाँचों सिद्ध, सिद्ध साहित्य और नाथ दोनों में थे- मत्स्येंद्रनाथ, जालंधरपा, नागार्जुन, चर्पटनाथ, गोरखनाथ

सिद्ध साहित्य के बारे में विशेष तथ्य:

* ‘मुनि अद्वयवज्र’ तथा ‘मुनि दत्त सूरि’ ने सिद्धों की भाषा को संध्या/संधा भाषा कहा है।

* हरप्रसाद शास्त्री ने इनकी भाषा को ‘आलोअंधारी’ (आलो में उजाला) कहा है।

सिद्धों की भाषा अपभ्रंश का विकसित रूप वाली थी।

सिद्ध साहित्य के आधार ग्रंथ निम्नलिखित हैं  –

1. साधना समुच्चय 2. आदिकर्म प्रदीप 3. मंजू श्री मूल कल्प (ये तीनों ग्रंथ श्रीपर्वत पर लिखे गए थे)

* सिद्धों ने निराश जनता में उत्साह का संचार किया इसकी प्रशंसा करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- “जो जनता तत्कालीन नरेशों की स्वेच्छाचारिता पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी उस जनता के लिए इन सिद्धों ने संजीवनी बूटी का काम किया।”

* उलटबाँसियों का आरंभिक रूप सबसे पहले सिद्ध साहित्य में ही प्राप्त होता है।

* रहस्यवादिता और चमत्कार प्रवृत्ति है।

* चर्यापदों की रचना दृष्टिकूट शैली में हुई है।

* शांत और श्रृंगार रसों की प्रधानता थी।

* निराशावाद के भीतर आशावादा का स्वर था ।  

सिद्धों के बारे में विशेष तथ्य:

* सिद्धों ने शास्त्रीय ज्ञान का विरोध करते हुए लोकवाद की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय चिंतन के स्थान पर अनुभूति को प्रधानता दी।

* सरहपा प्रथम सिद्ध थे। उन्होंने लिखा है कि-

      “पंडित सअल सत्त बखानइ। देहहि बुद्ध बसंत ण जाणइ।”

* धार्मिक आडंबरों का विरोध किया।

* तांत्रिक साधना पर बल दिया।

* नारी सहवास को ब्रहमानंद सहोदर मानते थे।

* वैदिक देवी-देवताओं के प्रति अनास्था तथा लौकिक देवी-देवताओं को महत्व देते थे।

* शिव और शक्ति की युगल रूप की उपासना (योनि और लिंग)

* सिद्धों के ‘कमल’ और ‘कुलिश’ योनि और लिंग के प्रतीक हैं।

* पंचमकार (माँस, मंदिरा, मुद्रा, मैथुन, मत्स्य) पर विशेष बल दिया है।

* वैदिक धर्म एवं ब्राह्मणवाद का खंडन किया।

* जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था का विरोध किया।

* नाम के साथ आदर सूचक ‘पा’ का प्रयोग करते थे।

सिद्धों साहित्य को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

      1. नीति या अचार संबंधी साहित्य

      2. उपदेश परक साहित्य

      3. साधना/रहस्यवादी साहित्य

सिद्ध साहित्य पर कार्य करने वाले निम्नलिखित विद्वान् है-

      1. बेंडल ने सिद्धों की रचनाओं का संकलन किया

      2. हरप्रसाद शास्त्री ने बौद्ध गान-ओ- दोहा- (1917 ई.)

      3. प्रबोधचंद्र बागची – दोहाकोश का संपादन करवाया

      4. राहुल सांकृत्यायन- हिंदी काव्यधारा 1945 ई. ‘दोहाकोश’ का संपादन

प्रमुख सिद्ध कवि एवं उनकी रचनाएँ:

सरहपा-

डॉ. रामकुमार वर्मा के इनका समय वीं सं. 717 से 826 के बीच माना है।

* गुलाबराय, डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य एवं रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय विं सं 690 के आसपास माना है।

* राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय 769 ई. के आसपास माना है, जो सर्वमान्य है।

सरहपा महाराज धर्मपाल के समकालीन थे। धर्मपाल का समय 769 से 809 ई. था। सरहपा जाती के ब्राह्मण थे। किसी तीर/सर बनाने वाले के लड़की के साथ विवाह किया था। इसलिए सरहपा के नाम से प्रसिद्ध हुए इनके 29 नामों का उल्लेख मिलता है, जिनमे से मुख्य हैं- राहुल भद्र, सरोज वज्र सरहपा आदि है। सरहपा सिद्ध शाखा में सहजयान के प्रवर्तक माने जाते हैं। हिंदी में ‘कडवक’ पद्धति का प्रयोग सबसे पहले सरहपा ने किया था। सरहपा के कुल 32 रचनाओं का उल्लेख ‘बौद्धगान और दोहा’ में मिलता है। वर्तमान में इनकी एक भी रचना उपलब्ध नहीं है। इनकी मुख्य रचना- दोहाकोश, वज्रगीतिका, डाकिनी वज्रगीति, चर्यागीति, कामकोश, अमृत वज्रगीति आदि है। सरहपा के साहित्य उपदेशात्मक हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार हिंदी का आरंभिक रूप सबसे पहले सरहपा की रचनाओं में ही परिलक्षित होता है।   

शबरपा-

शबरपा का समय 780 ई. के लगभग माना जाता है। ये सरहपा के शिष्य थे। शबरपा का जन्म क्षत्रिय वंश में हुआ था। शबरों जैसा जीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये भी राजा धर्मपाल के समकालीन थे। ये विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रधानाचार्य थे। शबरपा की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं।

      1.चर्यापद- (इसमें आचरण संबंधी पदों का संग्रह है)

      2. महामुद्रावज्र गीति- (यह साधनात्मक रचना है)

      3. वज्रयोगिनी साधना

बाह्य आडंबरों का विरोध करते हुए इन्होने सहज जीवन पर बल दिया तथा सहज जीवन को ही महासुख की प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया।     

लुइपा-

इनका समय 773 ई. माना जाता है।

लुइपा भी राजा धर्मपाल के समकालीन थे। इनका जन्म एक कायस्त परिवार में हुआ था। ये शबरपा के शिष्य थे। इनकी एकमात्र उपदेश प्रधान रचना ‘लुइपादगीतिका’ खंडकाव्य है। इसमें 240 पद हैं। इसमें ‘वणिक’ कथा के माध्यम से सहज जीवन के महत्व को समझया गया है। डॉ नगेंद्र ने साधना की दृष्टि से 84 सिद्धों में सबसे ऊँचा स्थान लुइपा का ही माना है। जो सर्वमान्य मत है। कण्हपा ने अपनी रचना ‘चर्याचर्याविनिश्चय’ में लूइपा को सहज धर्म का प्रथम आचार्य माना है। लुइपा की साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के तत्कालीन शासक और उनके मंत्री लूइपा के शिष्य बन गए थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनकी निम्नलिखित दो रचनाओं का उल्लेख किया है- 1. बुद्धोद्य 2. अभिसमय विभग। ये दोनों रचनाएँ उपलब्ध नहीं है। सिद्ध कवियों में सबसे बड़े रहस्यवादी कवि लुइपा थे। साधना की दृष्टि से लुइपा सबसे और श्रेष्ठ थे।          

कण्हपा

समय- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. नगेंद्र राहुल संकृत्यायन और नागरी प्रचार सभा, काशी के अनुसार इनका समय वीं स. 820 माना जाता है।

कण्हपा का जन्म कर्नाटक के ब्राहमण परिवार में हुआ था। इनका मूल नाम ‘कर्णया’ था। कृष्ण वर्ण होने के कारण ‘कण्हपा’ ‘कृष्णपा’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे। कण्हपा के गुरु जालंधरपा थे। कण्हपा महाराज देवपाल के समकालीन थे।

रचनाएँ:

डॉ. नगेंद्र के अनुसार कण्हपा की 74 रचनाएँ हैं।

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार कण्हपा 32 रचनाएँ हैं।

वर्तमान में इनकी केवल 2 रचनाएँ उपलब्ध हैं।

1. चर्यचार्यविनिश्चय (आचरण के पद)

यह दोहा छंद में रचित है। इसमें 355 छंद है। इसकी भाषा अपभ्रंश का परवर्ती रूप है। यह शांत रस प्रधान उपदेशात्मक रचना है।

2. कण्हपादगितिका (निषेधमूलक पद)

काव्यकला की दृष्टि से सिद्धों में कण्हपा सबसे श्रेष्ठ/ बड़े कवि हैं। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार- “कण्हपा पांडित्य और कवित्व में बेजोड़ थे।” 84 सिद्धों में सबसे अधिक शिष्य कण्हपा के थे। इनके विद्वता से प्रभावित होकर अधिकांस सिद्ध इनके शिष्य बन गए थे।

डोबिपा/ डोंभिपा

समय- 840 ई. है।

इनका जन्म मगध के क्षत्रिय वंश में हुआ था। इनके दो गुरु थे। ‘विणापा’ और ‘विरूपा’

रचनाएँ- इनकी 21 रचनाएँ है। जिसमे महत्वपूर्ण रचना ‘अक्षरद्विकोपदेश’ है।

यह एक शब्दकोष/पर्यायवाची कोश है। इस रचना में वर्णमाला के एक-एक अक्षर के माध्यम से दार्शनिक विषयों का निरूपण किया गया है।

कुक्कुरिपा-

इनके गुरु का नाम ‘चर्पटीया’ था। इनकी 16 रचनाएँ मानी जाती है।

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