परिभाषा- आदिकाल में भगवान ‘शिव’ के उपासक भक्त कवियों के द्वारा जनभाषा में जिस साहित्य की रचना की गई या हुई उसे नाथ साहित्य के नाम से जाना जाता है। नाथ संप्रदाय को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना जाता है। नाथ साहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ को माना जाता है। इनकी साधना सिद्ध साधना से अलग थी। इस संप्रदाय के रचनाकारों ने सिद्ध साहित्य को और अधिक पल्लवित किया। इन्होंने सिद्धों के द्वारा अपनाए गए योगमार्ग को ‘हठयोग’ साधना मार्ग के रूप में अपनाया। इस संप्रदाय ने ‘शैवमत’ के सिद्धांतों को स्वीकार किया तथा ‘शिव’ को आदिनाथ माना। इन्होंने मूलतः संयम तथा सदाचार पर बल दिया। नाथ संप्रदाय को अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे- सिद्धमत, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधूत मत, सिद्ध मार्ग आदि। नाथ संप्रदाय में ‘नाथ’ शब्द का अर्थ ‘मुक्ति देने वाला’ है। इन्होंने अपने साहित्य में स्पष्ट किया है कि यह मुक्ति संसारिक आकर्षणों एवं भोग-विलास से है।
नाथ ‘पंथ’ के प्रवर्तक – मत्स्येन्द्रनाथ
नाथ ‘साहित्य’ के प्रवर्तक – गोरखनाथ
राहुल सांकृत्यायन ने निम्नलिखित 9 नाथ माने हैं –
नागार्जुन, जड़मत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, जालंधर नाथ, मलयार्जुन (इनसे कोई भी विद्वान् सहमत नहीं हैं)
डॉ. रामकुमार वर्मा और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी नौ नाथ माने हैं – (सर्वमान्य है) आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, गाहिणीनाथ, ज्वालेंद्रनाथ, चौरंगीनाथ, भर्तहरिनाथ, गोपीनाथ।
नाथ साहित्य के बारे में विशेष तथ्य:
* नारी निंदा सबसे पहले नाथ साहित्य में ही मिलती है।
* नाथ साहित्य में ज्ञान व निष्ठा पर विशेष बल दिया गया है।
* इस साहित्य में मनोविकारों पर निंदा हुई है।
* गुरु को ईश्वर की तुलना में उच्च स्थान सबसे पहले नाथ साहित्य में ही मिलता है।
* नाथ संप्रदाय में ‘हठयोग’ साधना प्रणाली पर अधिक बल दिया गया है।
* इस संप्रदाय में हठयोग साधना प्रणाली के समावेश का श्रेय गोरखनाथ जी को है।
* इसमें ‘ह’ सूर्य (इडा का प्रतीक है) ‘ठ’ चंद्रमा ( पिंगला का प्रतीक है)
* गृहस्तों के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य का सबसे कमजोर पक्ष है।
नाथ साहित्य के बारे में विद्वानों के महत्वपूर्ण कथन:
डॉ. नगेंद्र के शब्दों में- “सिद्धों के वाममार्गी भोग प्रधान प्रणाली की प्रतिक्रिया (विरोध) स्वरुप आदिकाल में नाथ पंथियों की (हठयोग) साधना प्रणाली आरंभ हुई।”
राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में- “नाथ पंथ सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप है।”
डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में- “नाथों के चरमोत्कर्ष का काल 12वीं शताब्दियों से 14वीं शताब्दियों के मध्य रहा है।”
आचार्य चतुरसेन शास्त्री के शब्दों में- “नाथों की भाषा कुछ कर्कस व फक्कड़ी भाषा है जिसमे सपाट बयानी है।”
डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में- “संपूर्ण संत साहित्य नाथ साहित्य पर ही अवलंबित है, नाथों की परंपरा का ही विकसित रूप संत काव्यधारा है।”
नाथ पंथ व साहित्य से संबंधित प्रमुख तथ्य:
1. गोपीनाथ कविराज द्वारा रचित ‘गोरख सिद्धांत संग्रह’ में निम्नलिखित नौ नाथों का उल्लेख है- नागार्जुन, मलयार्जुन, भीमनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ, जड़भरत, सत्यनाथ, हरिश्चंद्रनाथ, गोरखनाथ (आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी इन्हीं नौ नाथों का उल्लेख किया है।)
2. डॉ. रामकुमार वर्मा ने निम्नलिखित नौ नाथों का उल्लेख किया है- आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, गाहिणीनाथ, चर्पटनाथ, ज्वालेंद्रनाथ, चौरंगीनाथ, भर्तहरिनाथ, गोपीनाथ।
3. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने- नाथ संप्रदाय को सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधूतमत, आदि नामों से संबोधित किया है।
नाथ संप्रदाय के प्रमुख कवि-
गोरखनाथ (इनका समय विवादास्पद है)
राहुल सांकृत्यायन ने 845 ई. के लगभग माना है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 9 वीं शताब्दी माना है।
पीताम्बर दत्त बडथ्वाल 11वीं शताब्दी माना है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. रामकुमार वर्मा ने 13वीं शताब्दी माना है (यह सर्वमान्य मत है)
सिद्ध और नाथ साहित्य में अंतर:
1. सिद्ध निरीश्वरवादी थे जबकि नाथ ईश्वरवादी हैं।
2. सिद्धों ने साधना मार्ग में नारी के सहयोग को आवश्यक माना है जबकि नाथों ने नारी का विरोध किया है।
3. सिद्ध नारी सहवास को ब्रह्मानंद सहोदर मानते हैं जबकि नाथ अखंड ब्रह्मचर्य में विश्वास करते हैं।
4. सिद्धों ने काय साधना पर बल दिया जबकि नाथों ने योग सधना पर बल दिया।
5. सिद्ध साहित्य सरस है जबकि नाथ साहित्य शुष्क और नीरस है।
नाथ संप्रदाय/ साहित्य के सदर्भ में आलोचकों के मत-
1. नाथ पंथ सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथों के चरमोत्कर्ष का काल 12वीं से 14वीं शताब्दियों के मध्य माना है। (अधिकांश विद्वान् इससे सहमत हैं)
डॉ. नगेंद्र के अनुसार- “सिद्धों की वाममार्गी भोग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया स्वरुप आदिकाल में नाथ पंथियों की हठयोग साधना प्रारंभ हुई।”
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “नाथों की सबसे बड़ी कमजोरी इनका रूखापन एवं गृहस्त के प्रति अनादर का भाव है।”
राहुल सांकृत्यायन ने नाथों को सिद्ध परंपरा का ही विकसित रूप माना है। (सर्वमान्य मत है)
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नाथपंथ को अवधूत संप्रदाय, अवधूत मत, योग संप्रदाय, सिद्ध मार्ग, योगमार्ग, सिद्धमत आदि नामों से संबोधित किया है।
नाथ संप्रदाय एवं साहित्य की मुख्य विशेषताएँ:
* इस साहित्य में नारी निंदा का सर्वाधिक उल्लेख हुआ है।
* ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व
* मनोविकारों की निंदा
* सिद्धों के भोग विलास की भर्त्सना
* गुरु को विशेष महत्व
* हठयोग साधना प्रणाली, रुखापम
* गृहस्त के प्रति अनादर का भाव
* ब्राह्मणवाद एवं शास्त्रवाद का विरोध
* मानवीय मूल्यों पर बल
* बहुदेववाद का विरोध
नाथ संप्रदाय का महत्व बताते हुए आचार्य हजारीप्रसाद जी कहते हैं कि- “इनसे परवर्ती संतों के लिए श्रद्धाचरण प्रधान पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। परवर्ती हिंदी साहित्य में चरित्रगत दृढ़ता, आचरण-शुद्धि और मानसिक पवित्रता का जो स्वर सुनाई पड़ता है उसका श्रेय इसी साहित्य को है।”