‘शोध’ नया ज्ञान प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। शोध का अर्थ होता है, खोज करना या पता लगाना। शोध के लिए अंग्रेजी में रिसर्च (Research) शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘रिसर्च’ मूल रूप से ‘लैटिन’ भाषा का शब्द है। ‘Re’ का अर्थ ‘दुबारा’ और ‘Search’ का अर्थ ‘खोजना’ है अथार्त वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का निरंतर प्रयास ही शोध है। नवीन वस्तुओं की खोज और पुरानी वस्तुओं एवं सिद्धांतों का पुनः परीक्षण करना जिससे नये तथ्य प्राप्त हो सके उसे ‘शोध’ कहते हैं।
शोध मूलतः एक वैज्ञानिक और विकसित संकल्पना है। बाबू गुलाबराय, परशुराम चतुर्वेदी, डॉ. भागीरथ मिश्र, डॉ. नगेंद्र, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी आदि हिंदी के आलोचकों ने अनुसंधान की संकल्पना को अपनी परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट किया है। नंददुलारे वाजपेयी की परिभाषा में अनुसंधान की संकल्पना का विश्लेषण सूक्ष्मता के साथ किया गया है- “शोध में किसी अज्ञात तथ्य को प्रकाश में लाने और प्रतिष्ठित करने का आशय निहित होता है। शोध में बिखरे हुए तथ्यों का संयोजन और समाहार भी किया जाता है। शोध के लिए उस समस्त सामग्री का संचय और संग्रह आवशयक है जो उस वस्तु या विषय से संबंधित है। इस समस्त संग्रह को सुव्यवस्थित रूप से सजाकर उसके आधार पर वस्तुमूलक स्थापनाएँ की जाती है और निर्णय दिए जाते हैं। शोध में विषय से संबंधित पूर्ववर्ती वक्तव्य दिए जाते हैं तथा उसके आधार पर निष्कर्ष का ऊप-न्यास किया जाता है। फिर उस निष्कर्ष की पुष्टि करने के लिए विरोधी अभिमतों का खंडन और निराकरण कर नये निर्णय की प्रतिष्ठा की जाती है। यह नया निर्णय जब स्वतंत्र विचार सरणी के रूप में उपस्थित होता है तब उसे ‘थिसिस’ या ‘प्रबंध’ कहते हैं।”
विभिन्न विद्वानों के अनुसार शोध की परिभाषा:
1. रस्क के शब्दों में- “शोध एक दृष्टिकोण है। जांच-परख का तरीका और मानसिकता है।”
2. रेमण्ड और मोरे के शब्दों में- “इन्होंने अपनी पुस्तक ‘दी रोमांस ऑफ रिसर्च’ में शोध का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते हैं।”
3. एडवांस्ड लर्नर डिस्कवरी ऑफ करेंट इंग्लिस के अनुसार- “किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जाँच पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।”
4. रुमेल के शब्दों में- “ज्ञान को खोजना, विकसित करना और सत्यापित करना शोध है।”
5. स्पार और स्वेनसन के शब्दों में- “इन्होंने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए अन्वेषण है।”
6. लुण्डबर्ग के शब्दों में- ” इन्होंने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है कि शोध अवलोकित सामग्री का संभावित वर्गीकरण, साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक और व्यवस्थित पद्धति है।”
7. आचार्य विनय मोहन शर्मा के शब्दों में– “शोध नये तथ्यों की खोज ही नहीं, उसकी तर्क सम्मत व्याख्या है।”
8. डॉ. नगेंद्र के शब्दों में- “अनेकता में एकता के सिद्धि का नाम ही सत्य है-इसी का अर्थ है आत्मा का साक्षात्कार। अतः शोध का यह रूप सत्य की उपलब्धि अथवा आत्मा के साक्षात्कार के अधिक से अधिक निकट है।”
उपरोक्त दिए गए परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि शोध, नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए या किसी समस्या के समाधान के लिए उपलब्ध जानकारियों और साक्ष्यों को व्यवस्थित करके क्रमबद्ध तरीके से विश्लेषण कर परिणाम प्राप्त करने के प्रक्रिया है। आज जीवन के आतंरिक और बाह्य पक्ष अनुसंधान के द्वारा ही विकसित हो रहे हैं।
> शोध एक अनोखी प्रक्रिया है जो ज्ञान के प्रकाश और प्रसार में सहायक है।
> इसके द्वारा या तो किसी नये तथ्य, सिद्धांत, विधि या वस्तु की खोज की जाती है या फिर प्राचीन तथ्य, सिद्धांत, विधि या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।
> यह सुव्यवस्थित, बौद्धिक, तर्कपूर्ण तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होती है।
> इसमें विभिन्न श्रोतों (प्राथमिक तथा द्वितीयक) से प्राप्त आंकड़े का विश्लेषण किया जाता है इसलिए इसमें चिंतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है। पूर्वाग्रहों और रुढियों की कतई गुंजाइश नहीं होती है।
> शोध में वैज्ञानिक अभिकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
> आंकड़े एकत्रित करने के लिए विश्वसनीय उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
> अनुसंधान के द्वारा प्राप्त ज्ञान को सत्यापित किया जाता है। पूरी प्रक्रिया की सफलता के लिए व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध चरणों से गुजरना पड़ता है। इन क्रमबद्ध चरणों की व्यवस्था से ही शोध का स्वरुप निर्धारण होता है।
शोध का स्वरुप: शोध का स्वरुप कई बातों से मिलकर बनता है। शोध की प्रकृति मूलतः वैज्ञानिक होती है। यह उल्लेखनीय है कि शोध केवल विज्ञान नहीं है, उसमे कला और शिल्प के तत्वों का भी समावेश होता है, पर शोध की प्रक्रिया का मूल आधार वैज्ञानिक ही होता है।
1. तटस्थता- वैज्ञानिक विषयों पर शोध करते समय शोधार्थी के लिए तटस्थ होना आसान होता है क्योंकि वैज्ञानिक प्रकृति के विषयों में विचार और सिद्धांत प्रमुख होते हैं। उसकी अध्ययन वस्तु संवेदनात्मक नहीं होकर बौद्धिक होती है। सामजिक विज्ञान और मानविकी क्षेत्र के विषयों जैसे- समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीतिशास्त्र अर्थशास्त्र आदि विषयों में भी विचारों और सिद्धांतों की प्रधानता होती है। इसका संबंध मनुष्य तथा मानव समाज से रहता है। फिर भी इन विषयों पर शोध करते समय भी पूर्णतः तटस्थ हो पाना कठिन है। इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त शोध का तीसरा क्षेत्र भाषा और साहित्य से संबंधित होता है जिसमे विचारों और सिद्धांतों से अधिक महत्व भावनाओं, संवेदनाओं और काव्यकर्म का होता है। इसप्रकार के शोध में भी शोधार्थी के लिए तटस्थता आवश्यक होती है। कोई कवि या आलोचक, काल के प्रति यदि शोधार्थी अधिक भावुक होता है तो वह तटस्थ और तार्किक आलोचना नहीं कर सकता है। ऐसे में उसके निष्कर्ष मौलिक और वैज्ञानिक नहीं हो सकते हैं।
2. धैर्य- किसी भी शोध प्रक्रिया को वैज्ञानिक बनाने के लिए शोध की सही प्रक्रिया को अपनाते हुए विषय का गहन अध्ययन करना आवश्यक होता है। धैर्य के द्वारा ही शोधार्थी अपने भीतर गहन अध्ययन की रूचि को जागृत कर सकता है। इसके द्वारा ही वह नई-नई सामग्रियों का अध्ययन करने में प्रवृत होकर अपने शोध कार्य को महत्वपूर्ण बनाकर आनेवाले शोधार्थियों का एक अच्छा उदहारण बन सकता है। कई बार धैर्य खो देने से अच्छे से अच्छे विषय पर भी सूक्ष्म अवलोकन नहीं हो पाता है और शोध प्रबंध अधकचरा बन जाता है। अतः शोध के लिए शोधार्थी में धैर्य का होना आवश्यक होता है।
3. कठोर परिश्रम- वैज्ञानिक पद्धति से शोध करने के लिए तटस्थता और धैर्य के साथ कठोर परिश्रम करना आवश्यक होता है। यह प्रक्रिया विषय चयन के साथ ही शुरू हो जाती है। पहले से उपलब्ध शोधालोचनाओं को देखना उसमे निहित शोध के पक्षों को परखना और फिर अपने लिए एक विषय चुनना मानसिक परिश्रम का कार्य है। जिसके लिए गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता होती है। विषय चयन करने के बाद वर्गीकरण करना आवश्यक होता है। शोधार्थी को शोधकार्य शुरू करने के लिए विषय क्रमबद्ध रुपरेखा बनानी होती है। इसी रूपरेखा के आधार पर शोध का कार्य क्रमशः पूरा किया जाता है। इस स्तर पर शोधार्थी को काफी मेहनत करना पड़ता है क्योंकि यदि वर्गीकरण सही नहीं होगा तो प्रस्तुतिकरण बिखर जाएगा और निष्कर्ष तक पहुँचना संभव नहीं हो सकेगा। अतः शोध कार्य के लिए कठोर परिश्रम आवश्यक होता है।
4. जिज्ञासा- किसी भी शोध कार्य के लिए शोधार्थी में जिज्ञासा का होना आवश्यक होता है। शोधार्थी में जिज्ञासा नहीं होगी तो वह विषय को गहराई से नहीं समझ सकेगा। शोध में विषय को गहराई से समझने की अति आवश्यकता होती है। विषय के प्रति उसे अनेक प्रकार के जानकारियों का होना आवश्यक होता है। जैसे विषय से संबंधित प्रकाशित पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, लेख-आलेख कब-कहाँ प्रकाशित हुए, उसकी समीक्षा कब-कहाँ प्रकाशित हुई आदि। विषय के प्रति उपरी दृष्टिकोण या सामान्य सामग्री प्राप्त कर लेने से शोधार्थी को कभी भी विषय की प्रवीणता नहीं मिल सकती है। उसका शोध प्रबंध भी स्तारिये नहीं बन सकता है और न ही उल्लेखनीय निष्कर्ष ही दिया जा सकता है। अतः शोध लेखन के दौरान पुरे समय शोधार्थी को अपने विषय के प्रति जिज्ञासा को जागृत रखना आवश्यक होता है।
5. सृजनात्मकता- सृजनात्मकता का तात्पर्य है शोधार्थी में संवेदना और सौंदर्यीनुभूति हो तथा उसकी काल्पनिक शक्ति भी उर्वर हो। साहित्यिक शोध में शोधार्थी की सृजनात्मक शक्ति का बहुत ही महत्व होता है। विशेष रूप से जब शोध साहित्यिक कृतियों पर किया जाता है, तब शोधार्थी में इस क्षमता का होना अनिवार्य हो जाता है। जिस प्रकार चूने, ईंट और गारे को जमीन पर रख देने से भवन का निर्माण नहीं होता है। भवन बनाने के लिए एक व्यवस्था की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार अनुसंधान के लिए एकत्र की गई सामग्री को व्यवस्थित नहीं करें तो वह निरर्थक हो जाएगी। इस समुचित व्यवस्था के लिए कल्पना (सृजनात्मकता) की अत्यंत आवश्यकता होती है। अतः शोधार्थी के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सृजनात्मक चेतना प्रखर हो क्योंकि जबतक वह लेखक की संवेदना, रचना में छिपे सौंदर्य और रचनात्मक कल्पना को सही ढंग से ग्रहण नहीं करेगा तब तक वह कृति संबंधी शोध को सही दिशा नहीं दे सकेगा।
इस प्रकार एक अच्छे शोध प्रबंध के लिए उपर्युक्त दक्षता को प्राप्त करके ही शोधार्थी अपने शोध कार्य को स्तरीय स्वरुप प्रदान कर सकता है।
साहित्य/ शोध का प्रयोजन- मनुष्य के दैनिक जीवन में भाषा का बहुत महत्व होता है। भाषा के माध्यम से ही वह मौखिक और लिखित अभिव्यक्ति करने में समर्थ हो पाता है। लिखित अभिव्यक्ति का सौन्दर्यपरक रूप ही साहित्य है। साहित्य में मनुष्य अपनी कल्पना और अवलोकन शक्ति के बल पर कृति को प्रभावशाली बनाता है। साहित्य की रचना में मानव-संवेदना, सामाजिक चेतना तथा भाषिक विधान भी रचनाकार के लिए माध्यम या प्रेरक होता है। इसके अतिरिक्त रचनाकार अपनी अनुभूति अथवा संवेदना को किस तरह व्यक्त करता है इसकी भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। यह भी ध्यान देने की बात है कि समय, परिवेश, संवेदना और भाषिक धरातल पर ही साहित्य के इतिहास में वाद, विचारधाराओं और प्रवृतियों का निर्धारण किया जाता है। ये निर्धारण कैसे हए तथा कृति में कितनी गहनता के साथ व्यक्ति हुए है, वास्तव में यही साहित्यिक शोध का मूलाधार है।
आदिकाल में अपभ्रंश में लिखी रचनाएँ है क्योंकि उस समय व्यावहारिक प्रयोग की भाषा थी। भक्ति और रीतिकाल में कुछ बोलियों का भी विकास हुआ और उनका साहित्यिक रूपांतरण भी हुआ। विशेष रूप से अवधी और ब्रज ने इस काल की रचनाओं के माध्यम से भाषा की भूमिका निभाई। भारतेंदु युग तक आते-आते काव्य की भाषा ब्रज रही लेकिन गद्य रचनाओं में खड़ी बोली का प्रयोग किया जाने लगा। द्विवेदी युग में आते-आते खड़ी बोली क्रमशः काव्य की माध्यम बन गई और इसी समय खड़ी बोली का एक मानकीकृत रूप भी निर्मित हो गया जिसे लेखन के लिए आदर्श और स्वीकार्य माना गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ हिंदी साहित्य का भी विकास होता आया है। अतः हिंदी साहित्य संबंधी शोध में एक पक्ष विकास का भी बनता है। जिसके विकास के बिना हिंदी के किसी भी काल के साहित्य की सार्थक प्रस्तुति नहीं की जा सकती है। अतः हिंदी साहित्य संबंधी शोध का प्रथम प्रयोजन यह है कि हिंदी भाषा के विकासक्रम से जोड़ते हए विभिन्न भाषा रूपों/बोलियों के साहित्य का अवलोकन किया जाए। इस प्रयोजन के सिद्धि में हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को रेखांकित करना भी संभव हो सकता है।
दूसरा प्रयोजन भी यह है कि हिंदी पत्रकारिता के मध्यम से खड़ी बोली में अभिव्यक्ति हिंदी साहित्य की विविध विधाओं को देखा जाए और इसके साथ ही हिंदी पत्रकारिता ने खड़ी बोली के मानकीकरण के जो यत्न किये हैं, उन पर शोध किया जाए।
तीसरा प्रयोजन यह है कि हिंदी-उर्दू हिन्दुस्तानी संबंधी जो विचार-विमर्श भारतेंदु युग और विशेष रूप से द्विवेदी युग में किया गया, उस परिप्रेक्ष्य में हिंदी की इन साहत्यिक शैलियों का विवेचन किया जाए और इनमे लिखे साहित्य को केंद्र में रखकर शोध किया जाए।
चौथा प्रयोजन वादगत रचनाकार को युगीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने से संबंधित है। यह स्पष्ट है कि सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि युगीन परिस्थितियों का प्रभाव समकालीन विषय वस्तु तथा अभिव्यक्ति की प्रकृति पर पड़ता है। इन्ही दोनों के परिणाम स्वरुप ‘वाद’ जन्म लेते हैं। हिंदी में छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद का जन्म युगीन परिस्थितियों के कारण ही हुआ है जिसका स्पष्ट प्रभाव इन वादों से बंधे साहित्य के भाषिक अभिव्यक्ति में भी परिलक्षित होता है।
साहित्य अनुसंधान का प्रयोजन विचारधाराओं से भी जुड़ता है ये विचारधाराएँ भारतीय भी हो सकती हैं और पाश्चात्य भी।
पाँचवाँ प्रयोजन में किसी रचना को उस युग में प्रचलित और प्रतिष्ठित उन विचारधाराओं के संदर्भ में देखा जाए जिसका प्रभाव रचनाकर पर पड़ा था और जिसके प्रभाव के कारण ही किसी कृति विशेष का सृजन किया गया था।
छठा प्रयोजन यह है कि रचना को रचनाकार के जीवन, उसके परिवेश आदि से संबंद्ध किया जाए। ऐसा करने से साहित्यकार की यथार्थ अनुभूतियों का पता चलता है। साथ में यह पता चलता है कि कोई भी रचनाकार जब भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति करता है तभी उसकी रचना में रचनात्मक इमानदारी दिखाई देती है।
अतः निश्चित रूप से कोई भी शोध या आलोचना किसी प्रयोजन के बिना नहीं की जाती, लेकिन यदि प्रयोजन की दिशा निश्चित हो और उसे पूरा करने वाले घटक स्पष्ट हों तो चाहे शोध हो अथवा आलोचना-उसकी महत्ता कई गुणा बढ़ जाती है।
शोध में तथ्य और सत्य की प्रक्रिया
शोध की प्रक्रिया मूलतः ज्ञानात्मक, बौद्धिक और विवेचनात्मक होती है लेकिन साहित्य शोध में यह प्रक्रिया भिन्न प्रकार के साहित्यिक शोधों में भिन्न-भिन्न हो जाती है। तथ्यों के अभाव में कोई भी शोध संभव नहीं होता है। तथ्यों को हम विचार, सिद्धांत, स्थापना, मत और विचारधारा कह सकते हैं। इन्हीं तथ्य को अपने शोध के लिए शोधार्थी विवेचनीय वस्तु के रूप में प्राप्त करता है और इनके विवेचन और विश्लेषण द्वारा अपने स्थापन यानी सत्य अथवा निष्कर्ष तक पहुँचता है।
‘तथ्य’ और ‘सत्य’ समान्यतः पर्यावाची शब्द लगते हैं। दोनों के पीछे यथार्थ अथवा शाश्वत होने का अर्थ निहित है। लेकिन शोध में इन दोनों का अर्थ भिन्न है। यहाँ ‘तथ्य’ साधन है और ‘सत्य’ साध्य है। क्योंकि तथ्यों के सहारे ही शोधार्थी सत्य तक पहुँचता है।
‘तथ्य’ से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु –
1. तथ्य की वास्तविक सत्ता होती है।
2. तथ्य सत्य से भिन्न होता है।
3. तथ्य भौतिक या व्यावहारिक अनुभव है, जो कल्पना, अनुमान सिद्धांत से अलग है।
उपर्युक्त बिन्दुओं से यह स्पष्ट होता है कि तथ्य निश्चित तौर पर भौतिक यथार्थ, वास्तविक घटना और व्यावहारिक अनुभूति से संघटित होता है। अतः तथ्य का शोध के सन्दर्भ में अर्थ हुआ- वस्तुओं या घटनाओं के सुनिश्चित विवरण के बिना साधन के सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है। इसलिए बिना तथ्यों के शोध या सत्य का अन्वेषण असंभव है। शोध में शोधार्थी की अंतर्दृष्टि, अनुभव अथवा प्रतिभा अनिवार्य होती है। इसके साथ ही शोधार्थी में प्रतिभा और शोध-कौशल के साथ-साथ विषय निष्ठता का होना भी अत्यंत आवश्यक है।
मुख्यतः तथ्य के दो प्रकार हैं-
तथ्य को विहित और निहित, स्थूल और सूक्ष्म, बहिरंग और अंतरंग या प्रकट और गुप्त भी कहा जा सकता है। वहिरंग तथ्य से अधिक महत्वपूर्ण अंतरंग तथ्य होते हैं। जो तात्विक होने के कारण सत्य-प्रकाशन में प्रत्यक्ष रूप से सहायक होते हैं। इसी को अनुसंधान की वास्तविक उपलब्धि कहते हैं और यही उसके कार्य का मुख्य उद्देश्य है। साहित्यिक तथ्यों में सामान्यतः शोधार्थी को निम्नलिखित तथ्यों की खोज करनी पड़ती है-
1. रचनाकार के जीवन और समय से संबंधित
2. रचनाकार पर पड़े रचनाकार के समय का प्रभाव, रचना में निहित तथ्य
3. आलोचना में रचना और रचनाकार से संबंधित उपलब्ध तथ्य
4. साहित्य के विचारधाराओं, प्रवृतियों और वादों से संबंधित तथ्य
5. साहित्यिक अभिव्यंजना, काव्यतत्वों और सौंदर्यतत्वों से संबंधित तथ्य
6. साहित्य के इतिहास और साहित्य के सामाजिक सरोकार से संबंधित तथ्य आदि।
‘सत्य’ से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु –
1. सत्य के प्रमुख लक्षण चरित्र, कर्म, वाणीगत, अनुभूति, विश्वास और स्पष्टता है।
2. ऐसी बातें जो सत्य हो और सत्य मानी जाती है।
3. तथ्य, यथार्थगत निर्णय, प्रस्ताव, कथन अथवा विचार जो सत्य के आधार पर सत्य बन चूका हो।
4. कोई ऐसा कथन जो विचारों और विवेचनाओं द्वारा सिद्ध किया जा चूका हो।
उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट होता है कि सत्य वही है जो तथ्यों की विवेचना द्वारा ग्रहण किया जाता है। तथ्य और सत्य के संबंध में उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर साम्य और वैषम्य-
1. सत्य साध्य है और तथ्य साधन है
2. तथ्य वस्तुमूलक होता है और सत्य उस पर आश्रित होता है
3. तथ्य वस्तु की स्थिति बतानेवाली भाववाचक संज्ञा है
4. सत्य का अर्थ होता है अस्तित्वान होना
अतः स्पष्ट है कि ‘सत्य’ और ‘तथ्य’ में कोई मौलिक भेद नहीं है। भेद इतना है कि तथ्य अनेक हो सकते हैं और उनके द्वारा एक पूर्ण सत्य को प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में देखा जाए तो तथ्य और सत्य दोनों शोधकार्य का मूल हैं और इनके बीच की यात्रा को ही हम शोध प्रक्रिया कहते हैं।निष्कर्ष- संक्षेप में यह कहा सकता है कि शोधार्थी संकलित सामग्री से प्राप्त तथ्यों के आधार पर अपना शोध कार्य करते समय निरंतर सत्य की खोज में लगा रहता है। तथ्यों को समेटकर वांछित विवेचन और विश्लेषण द्वारा वह अपने सत्य तक पहुँचता है। शोधार्थी के द्वारा ‘सत्य’ स्थापना और निष्कर्ष के द्वारा प्राप्त होता है या या हो चूका है वही भविष्य के शोधार्थी के लिए तथ्य बन जाता है तथ्य से सत्य तक पहुँचने की प्रक्रिया ही वास्तव में शोध की प्रक्रिया है। जब भी ज्ञान अथवा बुद्धि के स्तर पर तथ्यों का परीक्षण किया जाता है तो सबसे पहले तथ्यों से संबंधित मन में प्रश्न उठते है। इन प्रश्नों का समाधान तथ्यों के विश्लेषण से ही मिलता है अनेक तथ्य ऐसे होते हैं जिनमें स्थापनाओं का एक निरंतर क्रम होता है। इस क्रम को समझने के लिए विवेचना करना होता है तभी उसका अर्थ खुलता है अथार्त सत्य प्रकट होता है साहित्यिक शोध में विशेष रूप से शास्त्र दर्शन, सिद्धांत और विचारों को तथ्य के रूप में ग्रहण करके उनकी तर्क सांगत और विश्लेष्णात्मक व्याख्या करते हुए शोधार्थी अपने सत्य तक पहुँचता है वास्तव में देखा जाए तो ‘तथ्य’ और ‘सत्य’ दोनों शोध कार्य का मूल हैं। इसके बीच की यात्रा को ही हम शोध प्रक्रिया कहते हैं।