‘दलित’ वर्ग के लिए भारतीय समाज में अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। जैसे- शूद्र, अछूत, बहिष्कृत, अंत्यज, पददलित, दास, दस्यु, अस्पृश्य, हरिजन आदि। दलित शब्द का शब्दिक अर्थ है- मसला हुआ, रौंदा या कुचला हुआ, नष्ट किया हुआ, दरिद्र और पीड़ित, दलित वर्ग का व्यक्ति।
‘संक्षिप्त हिंदी सागर’ में रामचंद्र वर्मा के अनुसार- “दलित’ शब्द का अर्थ है- मसला हुआ या दबाया हुआ, कुचला हुआ, रौंदा हुआ। जिसे समाज की मूल धारा से वंचित किया गया है, वह दलित है।”
‘हिंदी मानक कोश के अनुसार’- “दलित शब्द का अर्थ है- रौंदा हुआ मर्यादित, कुचला हुआ पदाक्रांत वर्ग, हिंदुओं में शुद्र, जिन्हें अन्य जातियों के सामान अधिकार प्राप्त नहीं है।”
‘दलित’ साहित्य का तात्पर्य है, वह साहित्य जो दलितों के उद्बोधन हेतु लिखा गया हो। ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ अतः समाज में व्याप्त इस घोर विडंबना का प्रतिबिंब साहित्य में होना आवश्यक है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक दलित चेतना किसी न किसी रूप में विद्यमान थी। इसकी व्यापकता आधुनिक युग में आकर एक साकार रूप धारण किया है। जहाँ पर दलित समाज अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करता हुआ दिखाई पड़ता है।
परिभाषाएँ:
प्रेमकुमार मणि के शब्दों में- “दलितों के लिए, दलितों के द्वारा लिखा जा रहा साहित्य, दलित साहित्य है। यह विलास का नहीं आवश्यकता का साहित्य है। संपूर्ण विज्ञान उसकी सृष्टि है और पीड़ित मानवता का उद्धार इसका इष्ट है। दलित साहित्य वह प्रकाशपुंज है जो अँधेरे में उतरा है।”1 (दलित साहित्य: एक परिचय (लेख) प्रेम कुमार मण, वर्तमान साहित्य, मासिक गाजियाबाद (1993 ई.) पृ.सं.48
कंवल भारती के शब्दों में– “दलित साहित्य वर्ण व्यवस्था से पीड़ित समाज की वेदना का शब्द रूप है।”2 (दलित कविता का अर्थ (लेख): कंवल भारती दलित साहित्य चिंतन के विविध आयाम सं. डॉ. एन सिंह पृ. सं.97)
मोहनदास नेमिशराय के शब्दों में- “दलित साहित्य यानी बहुजन समाज के सभी मानवीय अधिकारों और मूल्यों की प्राप्ति के उदेश्यों से लिखा गया साहित्य है जो संघर्ष से उपजा है, जिसमे समता और बंधुता का भाव है और वर्ण-व्यवस्था से उपजे जाति भेद का विरोध है।”3 (हिंदी दलित कविता:नये संदर्भ डॉ टी. जी. राही, पृ. सं. 14)
माता प्रसाद के अनुसार- “दलित साहित्य वह साहित्य है जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों के पिछड़े हुए उत्पीड़ित, अपमानित शोषित जनों की पीड़ा को व्यक्त करता है। दलित साहित्य कठोर अनुभवों पर आधारित साहित्य है। दलित साहित्य में आक्रोश और विद्रोह की भावना प्रमुख है।”4 (दलित साहित्य, माता प्रसाद, पृ. सं. 3)
डॉ. सोहन पाल ‘सुमनाक्षर’ के शब्दों में- “दलित साहित्य दलितोत्थान हेतु लिखा गया, एक ऐसा साहित्य है जो भोगे हुए सच पर आधारित है। यह जमीन से जुड़े हुए दलित, शोषित, उपेक्षित, सर्वहारा वर्ग से संबंधित है जो दशा और दिशा को इंगित करता है, जिसमे विद्रोह और उद्बोधन के साथ संवेदना जागृत करने की ऊर्जा है।”5 (दलित साहित्य क्रांति व विद्रोह का शाश्वत साहित्य (लेख) डॉ. सोहनाक्षर शिखर की ओर: सं.- डॉ एन सिंह, पृ. सं. 301)
उपर्युक्त लिखे गए सभी परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि दलित जातियों से संबंधित लेखकों द्वारा दलित जीवन की विसंगतियों पर लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है जो दलितों की परंपरागत, शोषित मान्यताओं के प्रति विद्रोह का स्वर जाग्रत करने का प्रयास करता है, जिसमे आक्रोश का भाव है, जो विभेद के विरुद्ध संघर्ष का आवाज उठाता है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्री ओम प्रकाश वाल्मीकि ने कहा है कि- “दलित साहित्य भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद को नकारता है तथा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करता है। दलित शब्द उन्हें सामाजिक पहचान देता है, जिसकी पहचान इतिहास के पृष्ठों से सदा के लिए मिटा दी गई, जिसकी गौरवपूर्ण संस्कृति ऐतिहासिक धरोहर कालचक्र में खो गई।”6 (दलित साहित्य का सामाजिक संदर्भ (लेख)ओमप्रकाश वाल्मीकि, शिखर की ओर, सं. डॉ. एन सिंह पृ. सं. 406)
अतः दलित साहित्य समता साहित्य है, जो भारतीय संदर्भों में निश्चय की एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है।
रचना- मुर्दहिया (आत्मकथा)
रचनाकार- डॉ. तुलसीराम
‘मुर्दहिया’ आत्मकथा सात अध्यायों में विभाजित है-
1. मुर्दहिया पारिवारिक पृष्ठभूमि
2. मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन
3. अकाल में अंधविश्वास
4. नुर्दाहिया के गिद्ध तथा लोकजीवन
5. भूतनिया नागिन
6. चले बुद्ध की राह
7. आजमगढ़ में फाकाकशी
‘मुर्दहिया’ डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा है। यह उनके जन्म स्थान आजमगढ़ के धर्मपुर नाम के एक गाँव का ‘श्मशान घाट’ है। लेखक ने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में एक साथ दो पीड़ाओं की अभिव्यक्ति की है। एक तो जातिगत भेदभाव जनित पीड़ा थी जो उन्हें समाज में झेलनी पड़ती है। दूसरी पीड़ा उनकी एक आँख के चले जाने के कारण झेलनी पड़ती है। ख़ास बात तो यह है कि यह पीड़ा देनेवालों में उनका अपना परिवार भी शामिल था, जो उन्हें ‘कनवा’ कहकर संबोधित करते थे। यह आत्मकथा दो खंडों में लिखी गयी ‘मुर्दहिया’ (1910 ई.) तथा ‘मणिकर्णिका’ (2014 ई.) में प्रकाशित हुआ। संभवतः मुर्दहिया हिंदी की पहली आत्मकथा है, जिसमे केवल दलित ही नहीं अपितु गाँव का संपूर्ण लोकजीवन ही केंद्र में है। इस 184 पृष्ठों की आत्मकथा में आरंभिक पढ़ाई से लेकर मैट्रिक तक की पढ़ाई का चित्रण है। सबसे उल्लेखनीय यह है कि यहाँ लेखक केंद्र में नहीं है। इसके केंद्र में दलित जीवन, उनकी अंधश्रद्धाएँ, कर्मकांड, भूतों के प्रति भय, सवर्णों का जीवन, दलित का संघर्ष, आपसी होड़, दरिद्रता, रोजी-रोटी की तलाश, त्योहार, पूजा-पाठ, लोकगीत, गाँव में बसे कुछ विक्षिप्त परन्तु विलक्षण शिक्षा की घोर अवहेलना और उससे संबंधित जानबूझकर फैलाई गई अफवाहें। दलित संघर्ष- सही मायने में एक गाँव में जितने भी अंतः प्रवाह होते हैं, वे सब इसमें आ गये हैं। इस आत्मकथा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें आत्मकथा का निजी अनुभव नहीं है बल्कि इसमें लोक भी साथ-साथ चलता है।
यह आत्मकथा अपने समय और समाज के विविध संदर्भों को समेटे हुए है। इसमें दलितों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक जीवन की बहुमुखी तस्वीर दिखाई पड़ती है। डॉ. तुलसीराम ने इस आत्मकथा की भूमिका में स्पष्ट लिखा है, “मुर्दहिया हमारे गाँव धरमपुर (आजमगढ़) की बहुद्देशीय कर्मस्थली थी। चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुजरते थे। इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाजार हो या मंदिर, यहाँ तक कि मजदूरी के लिए कलकता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुजरना पड़ता था। हमारे गाँव की ‘जिओ-पॉलिटिक्स’ यानी ‘भू-राजनीति’ में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि ‘मुर्दहिया’ मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी। वह दोनों की मुक्तिदाता थी। विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के माँसपिंड से जूझते सैकड़ों गिद्द्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे। रात के समय इन्ही सियारों की हुआं-हूआं वाली आवाज उसकी निर्जनता को भंग कर देती थी। हमारे दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुःख-दर्द अपने अंदर लिए मुर्दहिया में दफ़न हो गए थे। यदि उनमे से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक ‘मुर्दहिया’ ही होता।”
यह आत्मकथा दलित जीवन के विविध पहलुओं से साक्षात्कार करवाती है। इसमें दलितों के संवेदनशील-संघर्षशील जीवन को केंद्र में बनाकर सामजिक यथार्थ को उजागर किया गया है। पहले अध्याय में अपनी ‘भुतही पारिवारिक पृष्ठभूमि’ की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनके दादा के मृत्यु के पीछे भूत होने का अंधविश्वास फैलाया गया था। उसके बाद ही उनके घर में भूत की पूजा होने लगी थी। शुभ या अशुभ कार्यों में चमरिया माई, डीह बाबा और अन्य देवी देवताओं के साथ भूत की पूजा ब्रह्म बाबा के रूप में करते थे। दलित बस्ती में अपने देवताओं को सुअर तथा बकरे की बलि दी जाती थी। उसके बाद हलवा-सोहारी (पूरी) धार और पुजौरा भी चढ़ाया जाता था। इसमें लेखक ने एक समाजशास्त्री की तरह लोकजीवन में व्याप्त अंधविश्वास के प्रतीक इन शब्दों को परिभाषित कर समझाने की कोशिश की है।
मुर्दहिया के लोकजीवन में अंधविश्वास का यह आलम था कि बीमार पड़ने पर लोग डॉक्टर से इलाज नहीं कराना चाहते थे। झाड़-फूंक के द्वारा बीमार को ठीक कराने का प्रयत्न करते थे। लेखक को तीन साल की उम्र में चेचक हो गया था जिसके कारण उनकी बचने की उम्मीद नहीं थी लेकिन घर वाले उनके इलाज नहीं कराते हैं। वे लिखते हैं- “मेरे उपर चेचक का जबरदस्त प्रकोप था। जीवित रहने की उम्मीद लगभग घर वाले छोड़ चुके थे। देवी देवताओं के मनौती के अलावा कोई चिकित्सीय इलाज किसी भी तरह संभव नहीं था, क्योंकि घर वाले घोर अंधविश्वास के कारण दवा लेने के हठ के साथ इनकार कर देते थे।” किसी प्रकार लेखक की जान बच गई। लेकिन चेचक से उनकी दाई आँख की रोशनी हमेशा के लिए चली गई। जिससे परिवार एवं समाज ने उनको ‘कनवा’ की उपाधि दे दी और हमेशा के लिए उन्हें अपशगुन के श्रेणी में रख दिए।
इसमें दलित स्त्रियों के मार्मिक घरेलु हिंसा का चित्रण है। पुरुष हमेशा स्त्री के चरित्रों पर उँगली उठाकर उसके आजादी को नियंत्रित करना चाहता है। पुरुष की अहंकार से भरी मानसिकता का सटीक चित्रण इस आत्मकथा में मिलता है। शिक्षा के अभाव के कारण गाँव की स्त्रियाँ बहुत जल्दी अंधविश्वासों के मान्यताओं में फंसकर भूत-प्रेत की धारणाओं से प्रभावित हो जाती हैं। इसका बेहतरीन वर्णन इस आत्मकथा में मिलता है। राजनीति में धर्म और अर्थ के मिली भगत का सटीक चित्रण किया गया है। वे समकालीन राजनीति की आलोचना करते हैं। उनका स्कूल भी चुनावी माहौल के प्रभाव से अछूता नहीं था। उन्होंने 1962 ई. के आम चुनाव का जिक्र करते हुए तत्कालीन राजनीति का यथार्थ चित्रण किया है।
तुलसीराम जी ने ‘मुर्दहिया’ के दूसरे अध्याय में अपने स्कूल जाने की घटना का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। उन्होंने बताया कि स्कूल जाने के लिए पंडित अमिका पांडे से साइत देखवाने के बाद ही उनके स्कूल जाने का दिन तय किया जाता है। स्कूल में व्याप्त छुआछूत की चर्चा के साथ समाज में दलितों की दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए, उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी के साथ अपने सवर्ण साथी और शिक्षक जो उनकी सहायता करते है, उनकी सुहृदय व्यवहार को रेखांकित किया है। मुर्दहिया में तुलसीराम ने अपने अनेक चहेते चरित्रों का चित्रण किया है। जिसके बिना शायद उनकी यह आत्मकथा पूरी और रोचक नहीं होती। जैसे- हिंगुहारा (हींग बेचनेवाला), गेरुएधारी बाबा (सारंगी बजाकर गाने वाला), भूतपूजक (जोगी – जाति के नोनिया), बंकिया डोम आदि। लोक जीवन में ये पात्र इतने जीवंत हैं कि उनके विषय में जानना दिलचस्प है। इन सब में जोगी बाबा का किस्सा बड़ा दिलचस्प है। जोगी बाबा जाति के नोनिया थे। लोगों को अंदाजा था कि वे भूतपूजक थे। उनके बारे में लेखक ने बताया है कि- “उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनके सामने जिस व्यक्ति के मुँह से जो पहला शब्द निकलता था वे उसी शब्द से तीन सतर वाली कविता तत्काल बनाकर विचित्र स्वर शैली में सुनाने लगते थे। जैसे किसी के मुँह से शब्द निकला ‘जोगी बाबा’ वे तुरंत गाने लगते-
“जइसन कहत बाड़े जोगी वइसन बढ़त बाड़े जोगी
बड़ संसतिया सहबा राम बड़ संसतिया सहबा राम।”
जोगी बाबा कभी गद्य में बात नहीं करते थे।
इसी तरह किसी के मुँह से ‘आँधी’ निकला। जोगी बाबा तुरंत आँधी शब्द से लगे-
“जइसन कहत बाड़ा आँधी, वइसन मारल गइलै गाँधी
बड़ संसतिया सहबा राम बड़ संसतिया सहबा राम।”
जोगो बाबा कभी भी गद्य में बात नहीं करते थे।
मुर्दहिया में शिक्षा तंत्र की जिस विद्रूपता का वर्णन हुआ है। वह प्रगति के सारे दावों को खोखला साबित करती है। अध्यापक मुंशीराम, सूरतलाल विशेषकर, दलित बच्चों को बात-बात पर ‘चमारकिट’ कहकर अपमानित करते थे। तुलसीराम प्राइमरी पाठशाला में मौजूद भ्रष्टाचार को शब्दबद्ध करते हुए लिखते हैं- “कक्षा दो में जाने के लिए मुँशी जी ने हर बच्चे से दो रुपया ‘पसकराई’ या पास करने का घूस लिया। यह दो रूपया मुझे बड़ी मुश्किल से प्राप्त हुआ। यह ‘पसकराई’ सभी अध्यापक लेते थे और जो बच्चा नहीं देता था उसे फेल कर देते थे।”7 (पृष्ठ सं. 77)
स्कूल में छुआछूत और अपमान की एक बानगी- “मिसिर शोर मचाते हुए मुंशी जी के पास दौड़े और चिल्लाते रहे कि चमरा ने कुआँ छू दिया। मैं बहुत डर गया। उस दिन मुँशी जी रुक-रुक कर गालियाँ देते रहे। इसके बाद मैं कभी पानी पिलाने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाया।” डॉ. तुलसीराम इस घटना से पहले ही वर्णन करते हैं। “पानी पीना वास्तव में एक विकट समस्या थी। कभी-कभी तो हम चुपके से पोखरे पर चले जाते थे, जिसका पानी गहन जलकुंभियों से ढका रहता था। हम जलकुंभियों को हटाकर उसका पानी पीते।”8 (पृष्ठ सं. 79) जिस समाज को सार्वजनिक स्थलों और स्कूलों में पानी पीने तक का अधिकार न हो, उसे जब उस समाज के मनोविज्ञान को समझाने के लिए कौन सी प्रविधि विकसित की गई।
चौथी कक्षा बाद मुंशी जी से छुटकारा मिल गया था, क्योंकि पांचवीं कक्षा को हमेशा हेडमास्टर परशुराम पढ़ाते थे हेडमास्टर साहब प्रायः स्वर छात्रों से कहते- “ठीक से सवाल पढ़ि के ना अइबा त येही चमरै से रोज पिटवाइब।” यह सुनकर मैं बहुत खुश हो जाता इससे मुझे गहन अध्ययन की बहुत प्रेरणा मिलती। पढ़ाई की दृष्टि से हेडमास्टर परशुराम सिंह मेरे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे। वे हमेशा कक्षा में मेरी प्रशंसा करते और जब ज्यादा खुश होते तो कहते- “ई चमरा एक दिन हमारे स्कूल क इज्जत बढ़ाई।”
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक व्यवस्था में दलितों को शिक्षा का अधिकार मिल जाने के बाद दलित वर्ग के अधिकारी बनने लगे थे लेकिन अधिकारियों की पहचान जाति से ही की जाती थी, जैसे डिप्टी साहब को ‘चमार डिप्टी का संबोधन।’ डॉ. तुलसीराम की स्वानुभूति और रचनात्मकता ने भारतीय समाज के बहुत बड़े हिस्से का ऐसा सच प्रस्तुत किया है, जिसे कभी साहित्य का व्यापक विषय नहीं बनाया जा सका था।
मुर्दहिया में गरीबी और भुखमरी का ऐसा पीड़ादायक चित्रण मिलता है, जहाँ किसी अर्थशास्त्री की निगाह भी नहीं गई होगी। बरसाती कड़की के दिनों में मैदानी चूहों का माँस और बरसाती मछलियाँ खाकर तथा चूहों के बिलों से गेहूँ की बालियों से अनाज निकालना दलित विपन्नता का सजीव चित्र प्रस्तुत करता है। जहाँ तक विपन्नता की बात है तो आज भी बिहार के कई दलित समुदाय (मुसहर जाति के) बिल से चूहे निकालकर खाते हैं। अकाल के दिनों में दलितों को बहुत अधिक श्रम करना पड़ता ठ किन्तु कमाई बहुत कम होती थी। अकाल ले दिनों में धान की फसलें सुख जाती थी तथ उनमे बालिया नहीं लग पाती थी। फसल सुख जाने के कारण पशुओं को ठीक से चारा भी नहीं मिल पाता था। पानी के कमी के कारण जमीन फटकार चारों तरफ विभिन्न प्रकार की दरारों में बदल जाती थी। इन फटी दरारों में अनेक जगहों पर तरह-तरह की आकृतियाँ बन जाती थी। सारे खेत रेखागणित नमूने लगने लगते थे। अकाल का एक ऐसा सौंदर्य जिसमे मानव की भुखमरी और असीम पीड़ा का साम्राज्य था।
धान की रोपनी करते समय दलित मजदूरिनें हमेशा एक लोकगीत की पंक्तियाँ दिन भर गाती रहती थी। जो इस प्रकार थी-
“अरे रामा परि गय बलुआ रेत, चलब हम कइसे ऐ हरि।”
बरसात के दिनों में झोपड़ियों और खपरैल के घरों से पानी टपकने के बीच कई-कई रात ऐसे ही जागते गुजार देना दलितों की गरीबी का सच्चा चित्र प्रस्तुत करती है। डॉ. तुलसीराम ने अपने परिवार की विवशता का चित्रण करते हुए लिखा है कि,- “हमारा संयुक्त परिवार बहुत बड़ा था, किन्तु घर में एक भी रजाई या कंबल नहीं था। वैसे भी घर में कपड़ों की कमी हमेशा रहती थी। मेरे पिताजी पूरी धोती कभी नहीं पहनते थे। वे एक ही धोती के दो टुकड़े करके बारी-बारी से पहनते थे। ओढ़ने का कोई इंतजाम न होने से गाँव के लगभग सारे दलित रात भर ठिठुरते रहते थे।”9 (पृष्ठ सं. 80) गरीबी और साहूकारी के बीच ब्राह्मण साहूकारी के बारे में पहली बार किसी आत्मकथा में पढ़ने को मिलता है। एक सेर अनाज के बदले सवा सेर अनाज का भुगतान ब्राह्मण साहूकारी का नमूना था।
दशवीं उतीर्ण करके तुलसीराम बाहर जाना चाहते हैं। गाँव से भागने के लिए वे अपना सामान एक दिन पहले ही नटनियां के घर रख देते हैं लेकिन वे अपनी भागने की योजना को उसे नहीं बताते हैं किन्तु नटनियां की छठी इन्द्रियां भाप लेती है और वो कहती है, “ओहर कहवां जात हउवे रे बाबू, तं तै बरहलगंज जाए खातिर टोटका कइले रहले।” जब नटनियां को विश्वास हो गया कि वे सचमुच गाँव से भाग रहे हैं तब वह एक ही वाक्य दुहराए जा रही थी, ‘अब लउटि के ना अइबे का रे बाबू।’ तुलसीराम लिखते हैं, क्षण भर के लिए नटनियां वहीं खड़ी रही और शायद मेरे द्वारा पढ़ाई गई अंग्रेजी वह भूल गई थी। इसलिए वह बोल पड़ी ‘पिपरा पे गिधवा बईठल हउवे’ इससे अधिक प्रेमाभिव्यक्ति क्या हो सकती है? आत्मकथा के अंतिम अध्याय ‘आजमगढ़ में फाकाकशी’ ने तुलसी राम के जीवन में एक नया मोड़ ला दिया। रचनकार नौवी कक्षा में गौतम बुद्ध, अब्राहम लिंकन, गांधी आदि महापुरुषों के विषय में पढ़ा और जाना। तुलसीराम बुद्ध से बहुत प्रभावित हुए और उनका बालमन वैसा ही कल्पना करने लगा। ‘बस एक ही धुन मन में सवार थी। हाईस्कूल पास कर बुद्ध की तरह मैं भी घर से भाग जाऊँ। तुलसीराम कहते हैं- “1 जुलाई 1964 ई. (मेरा पंद्रहवां सर्टिफिकेट जन्मदिन) को घर से भागते हुए नटनियां तथा जोगी बाबा, दो ऐसे व्यक्ति थे जिनसे होकर मैं एक अनिश्चित भविष्य के लिए रवाना हो गया।”
डॉ. तुसिराम का बचपन हमेश मौन और आत्मपरीक्षण के साथ गुजरा था। उनके मन में कई बातें चलती है लेकिन सामजिक जीत और परिवर्तन के लिए कई बार सहनशीलता को अपनाती है। लेखक का सामाजिक दबाव, अत्याचार के विरोध में अलग विद्रोह कभी नहीं फुटा परंतु पढ़ाई के नाते फूटा और उन्होंने सफलता को हासिल किया।
तुलसीराम की बहुचर्चित आत्मकथा मुर्दहिया में अनेक स्त्री पात्र भी है। पहले वर्ग में लेखक के परिवार के स्त्री पात्रों में लेखक की दादी, माँ, चाची, बुआ आदि हैं। दूसरे वर्ग में गाँव के दलित श्रमिक वर्ग की स्त्रियाँ तीसरे वर्ग में सवर्ण वर्ग की पात्र, चौथे वर्ग में काल्पनिक स्त्री पात्र जैसे- चुड़ैल, देवियों, भूतनियों आदि का वर्णन है। पांचवें वर्ग में गाँव के बहार से आनेवाली स्त्री पात्र जैसे- चुड़िहारिन आदि। छठे वर्ग में दलित और गैर-दलित स्त्री पात्रों का वर्णन है जो शिक्षित-अशिक्षित और अर्ध शिक्षित महिलाएँ है जो जो लेखक को गाँव से बाहर पढ़ाई के सिलसिले में आते-जाते समय मिलती है।
मुदाहिया में लेखक अपने परिवार की स्त्रियों में अपनी दादी का जिक्र नायिका के रूप में किया है। लेखक की दादी प्यार, ममता और समझदारी की मूर्ति है। वह वैद्य, अच्छी कथा वाचिका और भविष्य के बारे में सोचने वाली जुझारू भी है दादी तुलसीराम से बेहद प्यार करती है। तुलसीराम जब बीमार पड़ जाते है तब उन्हें ठीक करने के लिए वह अनेक प्रकार की जतन करती है। बालक तुलसीराम भी अपनी दादी से बहुत प्यार करते है। एक बार उनकी दादी बीमार पड़ जाती है। दादी के मरने की आशंका से वे कहते हैं- “हे चमरिया माई मैं भले मर जाऊँ पर मेरी दादी न मरे।”
समाजशास्त्रीय अध्ययन की जिज्ञासा में दादी मुसडिया का गहरा योगदान रहा है।
दादी के गर्भ अनेक कहानियाँ छिपी है- जिसमे भूत, चुड़ैल नागिन आदि। जब तुलसीराम को चेचक निकली तो दादी- जय चमरिया माई जय चमरिया माई की बार-बार रट लगाते हुए अंगियारी करती रहती थी।”
दादी मेरी माँ से अधिक रोती थी बालक तुलसीराम की जान तो बच गई पर एक आँख की रोशनी चली गई और चहरे पर दाग रह गए। दादी को अब और भी अधिक प्यार हो गया। दादी हमेशा मुझे अपने पास सुलाती और मेरे मुँह पर हाथ फेरते हुए चमरिया माई से विनती करती रहती। दादी अपने बहुओं से छिपाकर तुलसीराम को अपने विक्टोरिया वाले सिक्के जो उनके पति से मिले थे वह दिखाती और बार-बार गिनकर रखती है। यदि घर में कोई खाने का सामान तो वे उसके कुछ हिस्से छिपाकर तुलसीराम के लिए रख देती थी मैं दादी की सारी बातों का इस धरती का अकार्य उनका पालन करता था और जब भी किसी कंजास से गुजरात था मैं जय राम जमेदार, जाए राम जमेदार रटता जाता, किन्तु इस मंत्र का गुत्थी न दादी जानती और न ही गाँव के लोग ही दादी इस तरह की अनसुलझी गुत्थियों का एक सैक्लोपीडिया थी।
दादी की हार्दिक इच्छा थी कि लेखक खूब पढ़े-लिखे। दादी कहती थी कि ‘खूब पढ़ के रंगरेज जइसन बनिया।’ दादी की इस तरह की बातों से मुझे बहुत राहत मिलती थी। दादी की इस तरह की बातों से लेखक का भरोसा जाग जाता था कि दादी पढ़ाई के लिए विक्टोरिया वाले सिक्का दे देगी। जब लेखक छठी कक्षा में पहुँचा तो परिवार के अन्य सदस्य लेखक का नाम स्कूल में नहीं लिखवाना चाहते थे बात पैसे की थी तब बड़ी मुश्किल से दादी की जिद्द पर मुझे चार आना मिला जो छठी कक्षा में नाम लिखवाने की फ़ीस थी। यह चवन्नी इस बात की गवाही/ गारंटी थी कि अब छठी से लेकर दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई का मार्ग खुल गया। दादी का प्रकृति प्रेम भी अद्भुत था। गाँव में पेड़ काटने से दादी कहती थी- “पेड़ काटने से आसमान उदास उदास लगता है।”
मुर्दहिया में दादी का जितना विषद वर्णन है उसके मुकाबले लेखक ने अपनी माँ का चोत्रण थोड़ा कम किया है। लेखक की माँ अत्यंत मेहनती और घर के कामों में लगी रहनेवाली महिला है। लेखक को अपनी माँ को मजदूरी करते हुए देखकर बहुत दुःख होता था। लेखक जब सांतवीं कक्षा में पहुँचा तो उनकी माँ को रतौंधी हो गया था मेरी माँ को रात में दिखाई नहीं देता था। लेखक अपनी माँ पर हुए अत्याचार का वर्णन करते हुए लिखते हैं- “मेरी माँ बस्ती के किसी भी व्यक्ति से बात करती पिताजी तुरंत उनके चरित्र पर ऊँगली उठाना शुरू कर देते थे। वे माँ को बहुत भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगते थे। माँ के प्रति अन्याय देख लेखक के मन में पिटे के प्रति नफरत होने लगी और माँ के प्रति सहानुभूति। मेरी इस घृणा की पराकाष्ठा शीघ्र ही पिता के प्रति में हिंसा में बदल गई। सन 1961 ई. में जाड़ों की बात थी पिताजी माँ को मारने के लिए फरूही लेकर दौड़े। मैं वही खड़ा था। मैने बहुत जोर से पिताजी को तमाचा मारा। उन्होंने मुझे उलटकर वैसे ही मारा। उनका तमाचा इतना जोर था कि मैं कुछ देर के चौंधिया गया। किन्तु इस घटना का परिणाम यह हुआ कि आगे पिताजी माँ को मारने से घबराने लगे।
सुभागीय और किसुनी भौजी लेखक से अपनी चिट्ठी पढ़वाती और लिखवाती है। अन्य पात्रों में ‘चमरिया मैय्या’ और ‘शीतला माता’ का जिक्र कई बार आया है जिन्हें पुजौरा चढ़ाया जाता था। गैर दलित महिलाओं सवर्ण स्त्रियाँ हैं जो लेखक के संपर्क में किसी न किसी तरह आई। मुर्दहिया में तमाम स्त्री पात्र चाहे वह दलित हि या गैर दलित सभी अपनी संवेदन दुःख पीड़ा के साथ सामजिक, धार्मिक और संस्कार जन्य गरिमाहीन मट्टी में तपते हुए अपने होने का सवाल सबके सामने बार-बार प्रश्न चिन्ह की तरह खड़े हो जाते है जिससे किसी का भी इधर ध्यान हटाना नामुमकिन है।
बौद्ध दर्शन कि संवेदनशीलता और समरसता ने मुर्दहिया को विद्रोह और आक्रोश की जगह दुःख, करुणा और प्रेम की आत्मकथा बना दिया है।
वरिष्ठ आलोचक चौथीराम यादव के शब्दों में- “मुर्दहिया रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा है जिसे पढ़ते समय लेखक के बार-बार रोने का अहसास होता है। इसकी पराकाष्ठा मुर्दहिया से बिछुड़ने के दुःख में होती है। लेखक के उन आँखों से भी उतनी ही अश्रुधारा निकलती है जिन आँखों में रोशनी नहीं थी। आक्रोश होना एक अलग बात है और उसे सृजनशीलता में बदल कर मानवीय संवेदनाओं के व्यापक परिप्रेक्ष्य में एक साकारात्मक दिशा देना बिलकुल दूसरी बात है।” मुर्दहिया को हम दलित आत्मकथा लेखन की दूसरी धारा मान सकते हैं।
निष्कर्ष- मुर्दहिया दलित जीवन संघर्ष की सिर्फ वेदनामयी गाथा नहीं है, अपितु हिन्दू जाती-व्यवस्था की जड़ता, अंधविश्वास, कर्मकांड, धर्मांधता तथा तमाम विभेदकारी शोषणमुक्त विषम परिस्थितियों के घेरे को तोड़कर उगते सूरज के मानिंद बालक तुलसीराम की संघर्ष यात्रा है। मुर्दहिया अपमान, अनादर, उपेक्षा और कड़की की वेदना से गुजरते दलित बालक की मनोदशाओं की सच्ची कहानी है।