> आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘आदिकाल’ की सर्वमान्य समय सीमा वीं.सं 1050 से 1375 और (993 ई. से 1318 ई.) है।
> हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘आदिकाल’ का सर्वमान्य नाम ‘आदिकाल’ ही है।
> आदिकाल को अत्यधिक ‘विरोधों’ और ‘व्याघातों’ का युग कहने वाले आलोचक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं।
> आदिकाल को ‘अपभ्रंश’ का ‘बढ़ाव या विकसित’ रूप कहने वाले आलोचक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं। डॉ. नगेंद्र ने भी इसका समर्थन किया है।
> आदिकाल या हिंदी का प्रथम कवि- ‘सरहपा’ थे।
> आदिकाल या हिंदी की प्रथम रचना – देवसेन की रचना – ‘श्रवकाचार’ (933 ई.) है।
> अपभ्रंस में ‘कड़वक’ पद्धति का प्रयोग करनेवाले दूसरा कवि ‘स्वयंभू’ है। स्वयंभू ने ‘पउमचरिउ’ स्वयं लिखा है।
> हिंदी में दोहा, चौपाई/कड़वक पद्धति का प्रयोग करनेवाले प्रथम कवि ‘सरहपा’ थे।
> 84 सिद्धों का उल्लेख सबसे पहले ‘ज्योतिरीश्वर ठाकुर’ के ‘वर्णरत्नाकर’ से प्राप्त होता है। > 84 सिद्धों में प्रथम सिद्ध ‘सरहपा’ थे।
> सिद्धों का चरमोत्कर्ष का काल ‘8वीं से 13वीं’ शताब्दी के मध्य था।
> 84 सिद्धों में साधना की दृष्टि से सबसे ऊँचा स्थान ‘लुइपा’ को माना जाता है। इनकी साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के ‘शासक’ और ‘मंत्री’ उनके शिष्य बन गए थे।
> सिद्ध साहित्य का पता लगाने वाले प्रथम विद्वान् ‘हरप्रसाद शास्त्री’ थे।
> सिद्धों में सबसे बड़े और अधिक रचनाएँ लिखने वाले कवि ‘कण्हपा’ थे। इन्हें ‘कृष्णपा’ के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने 74 रचनाएँ लिखी।
> सिद्धों में 4 योगिनियाँ थी- इनके नाम ‘लक्ष्मीकरा’, ‘मनिभद्रा’, ‘कनखलापा’, ‘मेखलापा’ थे।
> सिद्धों में ‘सहजयान’ और ‘महासुखवाद’ के प्रवर्तक सरहपा थे।
> वे रचनाकार जो सिद्धों और नाथों दोनों में गिने जाते थे- मत्स्येन्द्रनाथ, जालंधरनाथ, नागार्जुन (नागार्जुन को ‘रसायनी के नाम से भी जाना जाता है।) चर्पटनाथ और गोरखनाथ।
> नाथपंथ के प्रवर्तक ‘मत्स्येन्द्रनाथ’ थे। नाथ साहित्य के प्रवर्तक ‘गोरखनाथ’ थे।
> मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम ‘गद्य लेखक’ माना है। आदिकाल में सर्वाधिक गद्य गोरखनाथ ने ही लिखा है।
> नाथ पंथ में ‘हठयोग’ साधना प्रणाली और ‘षट्चक्रों’ वाले योगमार्ग के प्रवर्तक गोरखनाथ थे।
> गोरखनाथ की सबसे प्रमाणिक रचना ‘सबदी’ है।
> रास साहित्य का प्रथम ग्रंथ- ‘रिपुदारण रास’ जो संस्कृत में है।
> अपभ्रंश में रचित रास साहित्य से संबंधित प्रथम ग्रंथ जिनिदत्त सूरि की ‘उपदेश रसायन रास’ (1134 ई.) है।
> हिंदी में रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ- शालिभद्र सूरि’ की रचना ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ (1184 ई.) है।
> ‘वज्रसेन सूरि’ की एक अन्य रचना इसी नाम की है- ‘भरतेश्वर बाहुबली घोर रास’ (1168 ई.)
> रास परंपरा का पहला ऐतिहासिक ‘महाकाव्य’ शालिभद्र सूरि द्वारा रचित- ‘पंचपांडव चरित रास’ (1191 ई.) है।
> अपभ्रंस का प्रथम महाकाव्य – ‘पउमचरिउ’ है।
> हिंदी का प्रथम महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ है, और प्रथम कवि ‘महाकवि चंदबरदाई’ है।
> ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य ‘पिंगल’ शैली में लिखा गया है, यह ब्रज भाषा का वह रूप है, जिसमे राजस्थानी बोलियों का मिश्रण है।
> रासो परंपरा की प्रथम रचना ‘दलपति विजय’ का ‘खुमान रासो’ (9वीं शताब्दी) है।
> रासो ग्रंथो की परंपरा की समाप्ति ‘हम्मीर रासो’ से मानी जाती है।
> अपभ्रंस की रचनाओं की समाप्ति ‘नल्लसिंह भाट’ की रचना ‘विजयपाल रासो’ से मानी जाती है।
> आदिकाल में कई मंगल काव्य लिखे गए हैं। ‘पृथ्वीराज रासो’ में ‘विनय मंगल’ नाम का एक खंड है।
> ‘पृथ्वीराज रासो’ का सबसे बड़ा सर्ग (समय) ‘कनवज्ज युद्ध’ है, जो पृथ्वीराज रासो का मूल कथानक माना जाता है।
> ‘पृथ्वीराज रासो’ में एक खंड ‘कैमासवध’ है। कैमास मंत्री के ‘कामांध’ हो जाने के कारण पृथ्वीराज ने उसका वध कर दिया था।
> हिंदी का प्रथम ‘जय काव्य’ (जीत की गाथा) ‘खुमान रासो’ है।
> रासो ग्रंथ की श्रृंगारिक काव्य रचना ‘बीसलदेव रासो’ है।
> आदिकाल का क्रम – रास जैन/साहित्य- सिद्ध साहित्य- नाथ साहित्य- रासो साहित्य- लौकिक साहित्य- प्रथम गद्य, दूसरा पद्द।
> रास परंपरा की ‘करुणरस’ प्रधान रचना ‘चंदनबाला रास’ है।
> हिंदी में श्रृंगारिक काव्यों की परंपरा का आरंभ हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘संदेश रासक’ से माना जाता है।
> हिंदी में मनोरंजनपूर्ण साहित्य लिखनेवाले प्रथम कवि ‘अमीर खुसरो’ हैं।
> खड़ीबोली हिंदी के प्रथम कवि ‘अमीर खुसरो’ हैं।
> अमीर खुसरो का पूरानाम ‘अबुल यमीनुद्दीन खुसरो’ था।
> नख-शिख वर्णन परंपरा की प्रथम रचना ‘रोड़ा’ कवि की ‘राउलवेल’ है।
> हिंदी ‘चंपू’ परंपरा की प्रथम रचना ‘रोडा’ कवि कृत ‘राउलबेल’ है।
> बारहमासा का वर्णन सबसे पहले ‘नेमिनाथ चौपई’ (अपभ्रंस) में मिलता है।
> हिंदी में ‘बारहमासा’ का वर्णन सबसे पहले ‘बीसलदेव रासो’ में मिलता है। इसमें ‘कार्तिक’ माह से बारहमासा का वर्णन मिलता है, जबकि पद्मावत में ‘अषाढ़’ माह से आरम्भ हुआ है।
> हिंदी में कृष्ण को काव्य का विषय बनाने वाले पहले कवि ‘विद्यापति’ (पदावली) हैं।
> ‘पृथ्वीराज रासो’ को मुक्तक काव्य माननेवाले आलोचक ‘नरोत्तम स्वामी’ हैं।
> पृथ्वीराज रासो को ‘शुक-शुकी’ संवाद में माननेवाले आलोचक आचर्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
> हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विद्यापति की रचना ‘कीर्तिलता’ को ‘भृंग-भृंगी’ संवाद में रचित माना है।
> विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ में स्वयं को कीर्तिसिंह का ‘खेलन कवि’ कहा है।
> विद्यापति के द्वारा भगवान् शिव की अराधना में रचित पद ‘नचारी’ कहलाता है।
> विद्यापति ने अपनी रचना ‘कीर्तिलता’ को ‘कहाणी’ कहा है।
> मिथिला में विद्यापति को कोई ‘वैष्णव’ कवि नहीं मानता है और न ही भक्त कहता है।
> बंगाल के लोग विद्यापति को ‘वैष्णव भक्त’ कवि मानते हैं।
> विद्यापति को मैथिल कोकिल, कविशेखर, अभिनय जयदेव, कविरंजन, कविकंठाहार आदि कई नामों से जाना जाता है।
> कवि ‘पुष्पदंत’ ने स्वयं को ‘अभिमान मेरु’ कहा है।
> आदिकाल में स्वयं को ‘कुकवि’ कहनेवाले कवि ‘स्वयंभू’ हैं।
> आदिकाल की रचना ‘भविष्यत् कहा’/ ‘भविष्यदत्त कथा’ में वणिक पुत्र की कथा, बहु विवाह के दुष्परिणामों, साध्वी एवं कुलटा स्त्रियों में अंतर का वर्णन मिलता है।
> जैन सप्तक्षेत्रों का वर्णन ‘लक्ष्मी तिलक’ की रचना – ‘सप्तक्षेत्र त्रीरास’ (1270 ई.) में मिलता है।
> ‘प्राकृत पैंगलम’ में पुरानी ब्रजभाषा, राजस्थानी खड़ी बोली, अवधी और मैथिली भाषा के तत्वों का मिश्रण है।
> मौलाना दाउद कृत ‘चंदायन’ प्रेमकाव्य परंपरा का सुंदर ग्रंथ है। यह रचना आदिकालीन होते हुए भी विषय और शैली की दृष्टि से भिन्न है।
> आदिकालीन रचना ‘जगत्सुंदरी प्रयोगमाला’ वैद्दक ग्रंथ है। रचनाकार अज्ञात है।
> जगनिक कृत ‘परमाल रासो’ रचना को ‘आल्हा’ के रूप में जाना जाता है। ‘आल्हा’ एक प्रकार का ‘लोकगान’ है, जिसे विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में गाया जाता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने आदिकाल को चार प्रकरणों में बाँटा है-
प्रकारण-1. सामान्य परिचय
प्रकरण- 2. अपभ्रंश काव्य
प्रकारण- 3. देशभाषा काव्य
प्रकरण- 4. फुटकल रचनाओं की व्याख्या किया गया है।
आदिकाल के महत्वपूर्ण कथन:
विद्यापति- “देसिल बअना सब जग मिट्ठा तै तैसन जपओ अब हट्ठा।।”
विद्यापति- “आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिल निजबाहू।
किछू एक भाग बलाहक झाँपल किछुक ग्रासल राहू।।”
विद्यापति- “पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पत्थावै पुन्न।”
विद्यापति- “कनक कदली पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने।”
सरहपा- “पंडित सअल सत्य बक्खाण, देहहिं बुद्ध बसंत न जाणई।”
गोरखनाथ- “गगन मंडल में औंधा कूवाँ, तहँ अमृत का बासा।
सगुरा होय सो भरि-भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा।।”
गोरखनाथ- “सोवता अवधू जीवता मूवा। बोलता अवधू प्यंजरै सूवा।।”
गोरखनाथ- “अभिअंतर की त्यागे माया, दुबध्या मेटि सहज में रहै।”
स्वयभूं- ‘राम कहा (कथा) सरि यहि सोहंती’
चरपटनाथ- “किसका बेटा किसकी बहू। आप सवारथ मिलिया सहू।।”
चरपटनाथ- “ताँबा तूँबा ये दुइ सूचा, राजा ही ते जोगी ऊँचा।
ताँबा डूबै तूँबा तरै, जीवै जोगी राजा मरै।।”
हेमचंद्र- “भल्ला हुआ जू मारिया बहिणी म्हारा कंतु।
लज्जेजं तू वयंसिअहु, जई भग्गा घर अंतु।।”