आचर्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
‘ऐतिहासिक’ परिप्रेक्ष्य के आधार पर- ‘उत्तर मध्यकाल’
‘प्रवृति’ के आधार पर- ‘रीतिकाल’ (विं.सं.1700-1900)-(1643- 1843 ई.)
आचार्य शुक्ल ने ‘रीतिकाल’ को तीन प्रकरणों में बाँटा है:
प्रकारण-1: सामान्य परिचय
प्रकरण-2: रीतिग्रंथकार
प्रकरण-3: रीतिकाल के आश्रित कवि
रीतिकाल का समय सीमा–
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार विं.सं.1700-1900 (सर्वमान्य मत)
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- विं.सं. 1600-1800
रीतिकाल का इतिहास 200 सौ वर्षों का है।
रीतिकाल का नामकरण विभिन्न विद्वानों के अनुसार:
ग्रियर्सन – ऐतिहासिक रीतिकाव्य, दि आर्स पोयटिका
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – उत्तर मध्यकाल/ रीतिकाल
मिश्रबंधू – अलंकृत काल
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – श्रृंगारकाल, विशुद्ध साहित्य सर्जना का काल
डॉ. रामकुमार वर्मा और रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ – कलाकाल
डॉ. भागीरथ मिश्र – रीतिश्रृंगार काल
त्रिलोचन – अंधकारकाल
पृथ्वीनाथ कमल कुलश्रेष्ठ – साहित्य शास्त्रीय काल
रीतिकाल के प्रवर्तक-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- इन्होंने ‘चिंतामणि त्रिपाठी’ को माना है।
डॉ. नगेंद्र के अनुसार – इन्होंने ‘केशवदास’ (सर्वमान्य) मत है।
रीतिकाल के उदय के कारण:
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- आश्रयदाता राजाओं की अभिरुचि
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार – संस्कृत के लक्षण ग्रंथों की प्रेरणा
डॉ. नगेंद्र के अनुसार – कवियों का हताशा/ निराशा के कारण
नामवर सिंह के अनुसार – नविन विषय वास्तु की तलाश
रीतिकाल के पतन के कारण:
रीतिकाल के पतन के सबसे बड़ा कारण अतिशय श्रृंगारिकता थी।
इसमें चमत्कार प्रवृत्ति अधिक थी।
काव्य में लोकमंगल की भावना का अभाव था।
रीतिकाल के महत्वपूर्ण विशेषताएँ:
इन रचनाकरों में ‘कवि’ और ‘आचार्य’ बनने की प्रवृति थी।
दरबारी संस्कृति का चित्रण प्रमुखता के साथ किया गया था
‘लक्षण’ और ‘काव्य शास्त्रीय’ ग्रंथों की अधिक रचना हुई।
ब्रजभाषा और श्रृंगाररस की प्रधानता के साथ-साथ ‘सतसई’ परंपरा का भी पुनरुद्धार हुआ।
मुक्तक काव्यों की प्रधानता और रसानुकुल छंदों का प्रयोग हुआ।
नायिका भेद का चित्रण के साथ कला पक्ष पर अधिक बल दिया गया।
काव्य शिक्षा, नीति, भक्ति, वैराग्य के लिए दोहा छंदों का प्रयोग हुआ।
मुख्यतया श्रृंगार सर एवं अल्पमात्रा में वीररस और भक्ति रसों का भी चित्रण है।
नारी के मादक रूप एवं ऐश्वर्यमय रूप का चित्रण हुआ है।
विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार रीतिकाल का वर्गीकरण:
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिकाल को तीन भागों में विभाजित किया है-
रीतिकाल के बारे में विशेष तथ्य:
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि ‘बिहारी’ है।
रीतिकाल के प्रवर्तक ‘केशवदास’ है।
रीतिकाल के अंतिम कवि ‘ग्वाल’ है।
रीतिकाल में लक्षण ग्रंथ लिखने वाले अंतिम प्रसिद्ध कवि ‘पद्माकर’ है।
रीतिकाल का विलक्षण एवं राष्ट्रकवि ‘भूषण’।
श्रृंगारिक काव्य लिखने वाले अंतिम प्रसिद्ध कवि ‘द्विजदेव’ है।
रीतिकाल के अंतिम आचर्य कवि ‘भिखारीदास’ है।
रीतिकाल में ‘श्रृंगाररस’ के लिए सवैया छंद, ‘वीररस’ के लिए कवित्त छंद और ‘भक्तिरस’ के लिए दोहा छंद का प्रयोग हुआ।
रीतिकाल के कवि और उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ:
विषय की दृष्टि से रीतिबद्ध कवि चार प्रकार के है –
रीतिबद्ध कवि | रीतिसिद्ध कवि | रीतिमुक्त कवि | |
1 | केशवदास | बिहारी | घनानंद |
2 | देव कवि | नेवाज | बोधा |
3 | कुलपति मिश्र | वृंद कवि | आलम |
4 | भूषण | बेनी कवि | ठाकुर |
5 | भिखारीदास | पजनेश | द्विजदेव |
6 | रसलीन | कृष्ण कवि | |
7 | चिंतामणि | सेनापति | |
8 | मतिराम | हठी जी | |
9 | सुरति मिश्र | विक्रमादित्य | |
10 | जशवंत सिंह | रसनिधि | |
11 | सोमनाथ | नृप शंभू | |
12 | ग्वाल कवि | ||
13 | पद्माकर | ||
14 | मंडन मिश्र | ||
15 | कुमार मणि | ||
16 | तोष कवि | ||
17 | रसिक गोविंद |
1. सर्वांग निरूपक 2. रस निरूपक 3. अलंकार निरूपक 4. छंद निरूपक
2. रीतिबद्ध के कवियों को डॉ. बच्चन सिंह ने दो भागों में बाँटा है- रीतिचेतस, काव्य चेतस
रीतिबद्ध कवियों की प्रमुख रचनाएँ:
केशवदास – (1555-1617 ई.)
रचनाएँ- रसिकप्रिया (1591 ई.), कविप्रिया रसिकप्रिया (1601 ई.), राम चंद्रिका (1601 ई.), वीरसिंह देव चरित(1607 ई.), रत्न बावनी (1607 ई.), छंदमाला (1607 ई.), नखशिख (1607 ई.), विज्ञान गीता (1610 ई.), जहाँगीर जस चंद्रिका (1612 ई.),
चिंतामणि- (1609-1685 ई.)
रचनाएँ- कविकुल कल्पतरु, काव्य विवेक, रस विलास, छंद विचार पिंगल, श्रृंगार मंजरी, काव्य प्रकाश, कवित्त विचार।
भूषण- (1613- 1715 ई.)
रचनाएँ- शिवराज भूषण, अलंकार प्रकाश, शिवा बवानी, छत्रशाल दशक, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण हजारा, छंदों हृदय प्रकाश
कुलपति मिश्र- रस रहस्य, संग्राम सार, दुर्गा शक्ति चंद्रिका, युक्ति तरंगिणी, नखशिख।
कुमारमणि – रसिक रंजन, रसिक रसाल।
सोमनाथ – रस पीयूस निधि, श्रृंगार विलास, कृष्ण लीलावती, सुजान विलास, माधव विनोद।
भिखारीदास – रस सारांश, काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय, शब्द नाम कोष, छंदर्णव पिंगल, अमर प्रकाश, शतरंज शतिका, विष्णु पुराण भाषा।
रसिक गोविंद – समय प्रबंध, युगल रस माधुरी
प्रतापसाही – जयसिंह प्रकाश, श्रृंगार मंजरी, व्यंग्यार्थ कौमुदी श्रृंगार शिरोमणि अलंकार चिंतामणि काव्य विनोद युगल नखशिख रस चंद्रिका
अमीरदास – सभा मंडल वृत्त चंद्रोदय ब्रज विलास सतसई शेरसिंह प्रकाश वैध कल्पतरु अश्व संहिता प्रकाश
ग्वाल कवि- रसिक नंद, हमीर हठ, कवि दर्पण, बलबीर विनोद, साहित्यानंद, गुरु पचासा, निम्बार्क स्वाम्यष्टयाम, नेह निर्माण, विजय विनोद, भक्तभावन, इश्कलहर दरयाव।
रसलीन- (1699-1750 ई.) रस प्रबोध, अंग दर्पण।
पद्माकर- (1753- 1833 ई.)
रचनाएँ- हिम्मत बहादुर विरुदावाली, प्रताप विरुदावली, पद्माकर अलंकार ग्रंथ, कवि पचीसी, जगत् विनोद (रीति ग्रंथ)
बेनी प्रसाद – नवरस तरंग, श्रृंगार भूषण, नानाराव प्रकाश।
सुखदेव मिश्र – वृत्तविचार, छंद विचार, रसार्णव, फाजिल अली प्रकाश, अध्यात्म प्रकाश, रस रत्नाकर।
जसवंत सिंह- भाषा भूषण (अलंकार ग्रंथ), अपरोक्ष सिद्धांत, अनुभव प्रकाश, आनंद विलास, सिद्धांत बोध, सिद्धांत सार।
मतिराम- (1613- निधन अज्ञात है).)
ललितललाम, अलंकार पंचाशिका, रसराज, मतिराम सतसई, वृत कौमुदी, फूल मंजरी, लक्षण श्रृंगार, छंद सार संग्रह।
सुरति मिश्र- अलंकार माला, रस रतन माला, काव्य सिद्धांत, बेताल पचीसी, रस रत्नाकर, श्रृंगार सागर, भक्ति विनोद।
देव कवि – (1673-1767 ई.)
भाव विलास, अष्टयाम, रस विलास, कुशल विलास, प्रेम चंद्रिका, सुजान विनोद, देव शतक, देव चरित, शब्द रसायन/काव्य रसायन, सुख सागर तरंग, देव माया प्रपंच (प्रबोध चन्द्रोदय), जाति विलास, प्रेम तरंग, राग रत्नाकर।
रीति सिद्ध कवियों के प्रमुख रचनाएँ:
बिहारी- (1595- 1663 ई.)
रचनाएँ- बिहारी की एकमात्र रचना बिहारी ‘सतसई’ है।
सेनापति- जन्म -1589 ई.- निधन अज्ञात है।
रचनाएँ – कवित्त रत्नाकर, काव्य कल्प द्रुम
वृंद कवि- (1643 -1723 ई.)
रचनाएँ – बारहमासा भाव पंचाशिका, नयन पचीसी, पवन पचीसी, वृंद सतसई, यमक सतसई,
श्रृंगार शिक्षा
नृप शंभू- (1657-निधन अज्ञात है)
रचनाएँ – नायिका भेद, नखशिख, सात शतक, बुध भूषण (इनकी तीनों कृतियाँ ब्रज भाषा में है)
रामसहाय भक्त- राम सतसई, वाणी भूषण, ककहरा
पजनेश- मधुर प्रिय, पजनेश प्रकाश, नखशिख
रीतिमुक्त धारा के कवियों की प्रमुख रचनाएँ:
आलम- (1740- 1760 ई.)
रचनाएँ- आलम केलि, श्याम सनेही, माधवानल कामकंदला, सुदामा चरित
ठाकर- ठाकुर ठसक, ठाकुर शतक
बोधा (मूलनाम- बुद्धि सेन) – विरह वारिस, इश्क नामा
द्विजदेव (1820-1869 ई.)मूलनाम- मान सिंह
रचनाएँ- श्रृंगार बत्तीसी श्रृंगार चालीसा, श्रृंगार लतिका सौरभ
घनानंद – (1689-1739 ई.)
रचनाएँ- सुजान सागर, रसकेलि वल्ली, घनानंद कवित्त, प्रेम पत्रिका, प्रेम पहेली, प्रेम पद्धति, वियोग वेलि, इश्कलता, विरहलीला, कृपकंद, लोकसार, सुजान हित, प्रीति पावस।
रीतिकाल से संबंधित: बच्चन सिंह के महत्वपूर्ण कथन:
1. भक्तिकाल के भक्त कवियों को ‘सिकरी’ से कोई काम न था पर रीतिकाल के कवियों का ‘सिकरी के बिना सरै न एकौ काम।’
2. कवि लोग कविता के ‘सौदागर’ थे। सौदागरी पूँजीवाद के युग का प्रादुर्भाव हो चूका था। लाखन खरचि रचि आखर खरीदे है।’ पद्माकर डंके की चोट पर कहते हैं- ‘आखर लंगाय लेतलाखन की सामा हौं।’
3. जब हिंदी काव्य नायिका-भेद और नखशिख वर्णन में लगा हुआ था, भूषण ने इतिहास की उस प्राणवान धारा को पहचाना जो औरंजेबी अत्याचार के विरुद्ध बह रही थी।
4. देव के शब्दों में- “शब्दार्थ का सार काव्य है और काव्य का सार रस है।”
5. देव के शब्दों में- “शब्दार्थमय काव्य कामधेनु है, जिसका दूध रस है और मक्खन है आनंद।”
6. डॉ. ग्रियर्सन के शब्दों में- “मेरी जानकारी में बिहारी जैसी रचनाएँ यूरोप की किसी भी भाषा में नहीं पाई जाती।”
7. डॉ. वासुदेव सिंह के शब्दों में- “घनानंद की भाषा सरल और स्वाभाविक है, जिसमे लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ का प्राधान्य है।”
8. डॉ. नगेंद्र के शब्दों में- “रीतिकाल का सम्यक प्रवर्तन केशवदास द्वारा भक्तिकाल में हो गया था।”
9. रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में (घनानंद के संबंध में)- “प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीरज पथिक तथा जाँबादानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”