महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण

द्विवेदी जी ने 1903-1920 ई. तक ‘सरस्वती’ का संपादन किया। इसी के माध्यम से उनहोंने नवजागरण के संबंध में अपने विचारों को आगे बढ़ाया।

      ‘सरस्वती’ हिंदी नवजागरण की एक सशक्त पत्रिका के रूप में स्थापित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से भारतीयों में राजनीतिक चेतना जाग्रत करने का अथक प्रयास किया। अनेक कवियों, लेखकों, साहित्यकारों को देश प्रेम पर कविताएँ, लेख, आलेख आदि लिखने के लिए आमंत्रित किया। ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक के रूप में द्विवेदी जी ने कवियों, लेखकों में राजनीतिक चेतना की अलख जगायी जिसने समस्त जनमानस में क्रांति का परिवेश तैयार किया। वे पहले राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन का खुलकर विरोध किया। इसका प्रमाण उनकी पुस्तक ‘संपत्तिशास्त्र’ में मिलता है। इस पुस्तक के द्वारा उन्होंने अंग्रेजों की अर्थनीति के पीछे उनके झूठ को उजागर किया। यह सितंबर 1917 ई. की ‘सरस्वती’ में ‘भारतवर्ष का कर्ज’ लेख में उन्होंने लिखा है।      

      हिंदी भाषा के व्याकरण को स्थिर रूप देकर द्विवेदी जी ने नवजागरण के भाषिक पक्ष को निखारा। सरस्वती पत्रिका में उन्होंने अपनी कविता ‘हे कविते’ में खड़ीबोली का तत्सम शब्द रूप पाठकों के समक्ष रखा –

      “सुरभ्य रूप! रस राशि रंजिते विचित्र वर्णाभरणे! कहाँ गई?

      आलौकिकानंद विधायानी महा कवींद्र कांते! कविते! अहो कहाँ?”

      शुक्ल जी ने लिखा है- “व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदी जी ही थे। गद्य की भाषा पर द्विवेदी जी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिये शुद्धता आवश्यक समझी जाएगी तब-तक बना रहेगा।”

      * द्विवेदी राष्ट्र व राष्ट्रभाषा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने समाज के दृष्टिकोण में भी सुधार लाने का प्रयास किया।

      * जनसाधारण के दृष्टिकोण से रीतिवादी मानसिकता निकालने और आधुनिक दृष्टिकोण स्थापित करने के लिए उन्होंने लोकवादी रचनाकारों जैसे- भारतेंदु, तुलसी, बिहारी व देव जैसे कलावादी कवियों को श्रेष्ठ माना। वे साहित्य को प्रगतिशील मार्ग पर ले गए।

      * उन्होंने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया वे स्त्री पराधीनता का विरोध करते थे। ‘कवियों कि उर्मिला विषयक उदासीनता’ नामक निबंध इसका प्रमाण है।

      * द्विवेदी जी ने समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया तथा वैज्ञानिक चेतना का प्रसार किया। वे आधुनिक और नए ज्ञान अनुशासकों के हिमायती थे। ‘सम्पत्ति शास्त्र’ की भूमिका में उनका यह दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है।

      * वे छुआछूत के विरोधी थे। सन् 1914 ई. में उन्होंने निम्न जाति के व्यक्ति ‘हीरा डोम’ की कविता (अछूत की शिकायत) ‘सरस्वती’ में प्रकाशित किया।

      * एक संपादक के रूप में उन्होंने ऐसे साहित्यकारों को बड़ी मात्रा में उभारा, जिन्होंने समसामयिक स्थितियों को समझते हुए, अपने केंद्र भारत व भारत की समस्याओं को समझा तथा नवजागरण के मूल-चरित्र ‘राष्ट्रवाद’ को बढ़ाने में अपनी महती भूमिका निभाई।

      द्विवेदी जी महत्व को रेखांकित करते हुए प्रेमचंद ने कहा है – “आज हम जो कुछ भी हैं, उन्ही के बनाये हुए हैं। यदि पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी न होते तो अभी बेचारी हिंदी कोसों पीछे होती। समुन्नति की इस सीमा तक उसे आने का अवसर ही नहीं मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ प्रदर्शक का भी काम किया। हमारे उपर उनका भारी ऋण है। उनके चरणों पर झुककर ही हम उसे स्वीकार कर सकते हैं-किसी अन्य प्रकार से नहीं।”

      हिंदी नवजागरण में उन्होंने जो योगदान दिया, हिंदी की सेवा की है इतना किसी ने नहीं किया है।  

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