वक्रोक्ति संप्रदाय

आचार्य कुंतक : (समय – 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध) ये कश्मीर के निवासी थे।

आचार्य कुंतक का मूलनाम – ‘कुंतल’ था।

रचना – ‘वक्रोक्ति जीवितम्’

‘वक्रोक्ति जीवितम्’ में कुल 4 अध्याय है, जिन्हें ‘उन्मेष’ कहा गया है।

‘वक्रोक्ति जीवितम्’ के दो भाग है- (i) कारिका (ii) सूत्र

विशेष तथ्य:

कुंतक ‘ध्वनि’ विरोधी आचार्य थे।

इन्होंने ध्वनि सिद्धांत का खंडन करने के लिए ‘वक्रोक्ति जीवितम्’ की रचना की।

इन्होंने काव्य के मुख्य तीन प्रयोजन माने हैं –

      (i) चतुवर्ग फल प्राप्ति

      (ii) व्यापार की शिक्षा

      (iii) अन्तश्चमत्कार की प्राप्ति

इन्होंने काव्य में अलंकारों को आवशयक माना है। ‘सालंकारस्य कव्यतः’

कुंतक का वक्रोक्ति सिद्धांत-

* वक्रोक्ति शब्द दो शब्दों के मेल से बना है – वक्र+उक्ति, जिसका सामान्य अर्थ होता है-

* टेढ़ी – मेढ़ी उक्ति या कथन।

* इसका शाब्दिक अर्थ हुआ ‘वैचित्र्यपूर्ण’ कथन।

* काव्य शास्त्र में ‘वक्रोक्ति’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले भामह ने ‘काव्यालंकार’ में विस्तारपूर्वक किया है।

* उन्होंने ‘वक्रोक्ति’ को ‘लोकातिक्रांतिगोचर’ कहकर समस्त अलंकारों का आधार माना है।

भामह के अनुसार (समय-6वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध, ये कश्मीर के निवासी थे। 

रचना – (‘काव्यालंकार’), इसमें छः अध्याय है, जिन्हें ‘परिच्छेद’ कहा गया है।

* ये ‘अलंकारवादी’ आचार्य है।

* काव्यशास्त्र में ‘वक्रोक्ति’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले भामह ने किया था।

* इन्होंने वक्रोक्ति को ‘लोकांतिक्रांतगोचर’ कहकर समस्त अलंकारों का आधार माना है। 

भामह के अनुसार- “अलंकार काव्य की ‘आत्मा’ है और उन अलंकारों के मूल में ‘वक्रोक्ति’ है।

भामह की परिभाषा-

      “शब्दस्य किं वक्रता अभिदेयस्य

      च वक्रता लोकोक्तिर्णन रूपेण अवस्थानाम”(भामह)

शब्द तथा अर्थ की वक्रता क्या है? इनका लोकोत्तर रूप में अवस्थान अथार्त आलौकिक रुप से स्थिति ही वक्रोक्ति है।

      “सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्यो विभावाते”

अथार्त शब्द तथा अर्थ किसी अन्य विशेष अर्थ को प्रकट करने वाली होती है। इसके अभाव में कोई अलंकार नहीं हो सकता है। (भामह ने वक्रोक्ति को अतिश्योक्ति के रूप में स्वीकार किया है)

* भामह ने इसे ‘इष्टावाचामलंकृति’ अथार्त इच्छित वाणी को अलंकृत करनेवाली मानकर ही अलंकारों का मूल कारण स्वीकार किया है।

* भामह ने यह भी कहा है कि वक्रोक्ति के ‘अंभव’ में काव्य में सौंदर्य की सृष्टि ‘संभव’ नहीं हो सकता है।

दंडी – (समय – 9वीं शताब्दी), दक्षिणी भारत के निवासी थे।

रचना – ‘काव्यादर्श’ (चार परिच्छेद, लगभग 650 श्लोक है)

दंडी अलंकारवादी आचार्य है।

      “श्लेष सर्वासु पुष्णाति प्रायो वक्रोक्ति श्रियम्”

अथार्त श्लेष की सत्ता से वक्रोक्ति में और भी चमक आ जाती है।

दंडी ने भी सभी अलंकारों के मूल में वक्रोक्ति को स्वीकार किया है। 

वामन – (समय 8वीं शताब्दी के उतरार्द्ध) कश्मीर के निवासी है

रचना – ‘काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ इसमे 5 परिच्छेद, 319 सूत्र है)

* रीति संप्रदाय के प्रवर्तक है।

* वामन ने वक्रोक्ति को अर्थालंकार’ के ‘उपमा’ के अंतर्गत माना है।

* इसी दृष्टि से उन्होंने वक्रोक्ति की परिभाषा देते हुए कहा है-

      “सादृश्याश्रयात् लक्षण वक्रोक्ति” सदृश्य पर आश्रित लक्षण वक्रोक्ति है।

आचार्य रुद्रट – (समय – 9वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध), कश्मीर के निवासी।

रचना- काव्यालंकार (16 अध्याय, 734 श्लोक हैं)

* रुद्रट ने वक्रोक्ति को ‘शब्दालंकार’ मानकर उसके दो भेद किये है-

काकूवक्रोक्ति और श्लेषवक्रोक्ति

आचार्य आनंदवर्धन – (समय -9वीं शताब्दी) कश्मीर के निवासी

रचना- ‘ध्वन्यालोक’ (इसमें 4 अध्याय है जिन्हें उद्दोग कहा है)

* इन्होंने वक्रोक्ति को ‘वाच्य’ तथा ध्वनि को ‘व्यंग्य’ कहा है।

कुंतक

आचार्य कुंतक ने ‘वक्रोक्ति’ को काव्य का ‘जीवन’ माना है – “वक्रोक्ति: काव्य जीवितम्।”

वक्रोक्ति को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुंतक ने कहा है

      “वक्रोक्ति: वैद्ग्ध्यं-भंगी-भणितिरुच्येत।”

अथार्त वक्रोक्ति कवि-कर्म-कौशल पर आधारित वाक्वैचित्र्य (चमत्कारपूर्ण) अभिव्यक्ति है।

कुंतक की परिभाषा में आए तीन शब्द अति महत्वापूर्ण है-

वैदग्ध्य – कुशल प्रतिभा संपन्न कवि का निर्माण कौशल

भणिति – कथन की शैली  

भंगी – चमत्कार अथवा चारुता

आचार्य कुंतक के अनुसार वक्रोक्ति के मुख्य छः भेद हैं-

वर्ण-विन्यास वक्रता – जहाँ एक या दो से अधिक वर्णों को थोड़े-थोड़े अंतर से वैचित्र्य पूर्ण विन्यास में रखा गया हो वहाँ वर्ण-विन्यास वक्रता होती है।

      उदाहरण- “चारु चन्द्र की चंचल किरने….।

अनुप्रास अलंकार वर्ण-विन्यास वक्रता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। 

पद-पूर्वाद्ध वक्रता – जहाँ पद के पूर्व भाग में वक्रता हो वहाँ पद-पूर्वाद्ध वक्रता होती है। उदहारण – “बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय

            सौंह करै भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाए।

      कृषण की मुरली छिपानेवाली गोपियों की प्रत्येक क्रिया में एक प्रकार की स्वाभाविक वक्रता है।

पद-परार्धवक्रता – जहाँ पद के उत्तर भाग में वक्रता हो वहाँ पद परार्द्ध होता है।

      उदहारण- “कोमल अंचल ने पोछा मेरी पीली आँखों को।

              वायु उड़ा ले गई कहाँ रंगीन मृदुल पाँखों को।।”

      इन पंक्तियों में ‘अंचल’ और ‘वायु’ शब्दों के प्रयोग कर्तरिवाच्या के रूप में होने के कारण चमत्कार पूर्ण है।

वाक्य वक्रता – जहाँ संपूर्ण वाक्य में कोई चमत्कार हो वहाँ वाक्य वक्रता होता हैं।

प्रकरण वक्रता – (प्रकरण का अर्थ ‘प्रसंग’ होता है)।

किसी विषय के माध्यम से चमत्कार उत्पन्न करना है।

प्रबंध वक्रता – विषयवस्तु कथन, शैली आदि संपूर्ण काव्य में वक्रता हो वहाँ प्रबंध वक्रता होता है।

सुमित्रानंदन पंत ने ‘पल्लव’ की भूमिका को वक्रोक्ति का घोषणा-पत्र कहा है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को भारतीय वक्रोक्ति का ही विलायती उत्थान कहा है।

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