आचार्य वामन : (समय 8वीं शताब्दी के आसपास)
रचना – ‘काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ (परिच्छेद 5 हैं)
‘रीति’ का अर्थ- प्रणाली, ढ़ंग, प्रकार अथवा मार्ग है।
* आचार्य वामन ने ‘काव्यालंकार सूत्रवृति’ में ‘रीति’ संप्रदाय की प्रतिष्ठा की है।
* उनके अनुसार पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है- ‘विशिष्टापद रचना रीति:।’
* वामन के अनुसार ‘रीति’ काव्य की ‘आत्मा’ है- ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’
* इन्होंने ‘गुण’ को महत्वपूर्ण माना है।
* इन्होंने गुणों की संख्या 20 बताया है।
* वामन ने तीन रीतियों के बारे में बताया है – वैदर्भी रीति, गौडी रीति, पांचाली रीति।
* इन्होंने ‘वक्रोक्ति’ को ‘सादृश्यमूलक’ अलंकार कहा है।
* इन्होंने अर्थालंकार को उपमा का ‘प्रपंच’ कहा है।
* भारतमुनि के नाट्यशास्त्र में ‘रीति’ के लिए ‘प्रवृति’ शब्द मिलता है।
इसमें चार प्रवृतियाँ हैं – अवंती, दक्षिणत्या, पांचाली और मागधी का उल्लेख किया है।
* भामह ने काव्य भेद के अंतर्गत ‘वैदर्भी’ एवं ‘गौडी’ का उल्लेख किया है।
* वामन से पूर्व दंडी ने रीति में व्यक्तित्व की सत्ता स्वीकारते हुए ‘गुण’ को रीति का नियामक माना है।
* दंडी ने रीति की चर्चा करते हुए उसके दो भेद माने हैं – ‘गौडी’ और ‘वेदर्भी’ का उल्लेख किया लेकिन ‘रीति’ का लक्षण नहीं बताया।
वामन के अनुसार- “विशिष्ट पद रचना रीतिः” अथार्त पदों की विशिष्ट रचना ‘रीति’ है।
* वामन ने ‘विशेषोगुणात्मा’ कहकर यह बताया कि पदों में यह विशेषता उत्पन्न करने का श्रेय गुणों को ही है।
* वामन ने ‘वैदर्भी’ और ‘गौडी’ इन दो रीतियों के साथ-साथ ‘पांचाली’ नामक नई रीति को प्रतिष्ठित किया तथा उन्होंने ‘वैदर्भी’ रीति को उत्तम माना है।
* ‘पांचाली’ को ‘ग्राम्या’ भी कहते है।
* ‘वदर्भी रीति’- सभी (दस) गुणों से युक्त है (समग्रगुणावैदर्भी)।
* ‘गौडी रीति’- ‘ओज’ और ‘कांति’ गुणों से युक्त है।
* ‘पांचाली रीति’- ‘माधुर्य’ और ‘सौकुमार्य’ गुणों से युक्त है।
आचार्य रुद्रट – आचार्य रुद्रट ने ‘लाटी’ नामक चौथी रीति की प्रतिष्ठा किया और समास को दृष्टि में रखकर रीतियों का भेद निरूपण किया।
* आचार्य रुद्रट ने रीतियों का संबंध ‘रस’ से स्थापित किया है।
* इन्होंने चार प्रकार की रीतियों का उल्लेख किया है – वैदर्भी, गौडी, पांचाली और लाटी।
आचार्य भोजराज ने छः प्रकार की रीतियों का उल्लेख किया है- ‘वैदर्भी’, ‘गौडी’, ‘पांचाली’, ‘लाटी’, ‘अवंतिका’ और ‘मागधी’।
आचार्य कुंतक ने रीति की व्याख्या ‘मार्ग’ के रूप में किया है। उनके अनुसार रचना के तीन मार्ग है – ‘सुकुमार’, ‘विचित्र’, ‘मध्यम’।
कुंतक के अनुसार – ‘सुकुमार’ मार्ग के अंतर्गत ‘वैदर्भी’, ‘विचित्र’ के अंतर्गत ‘गौडी’, और ‘मध्यम’ कर अंतर्गत ‘पांचाली’ रीति का समावेश हो जाता है।
आचार्य विश्वनाथ ने रीतियों का विभाजन वर्ण-सगुंफन के आधार पर चार भागों में किया है। वैदर्भी, गौडी, पांचाली और लाटी।
राजशेखर के ‘कर्पूरमंजरी’ में केवल तीन रीतियों का उल्लेख मिलता है- लच्छोभि (वदर्भी), मागधी तथा पंचालिका (पांचाली)।
आचार्य मम्मट ने ‘उपनागरिका’, ‘पुरुषा’ और ‘कोमला’ वृतियों का उल्लेख करते हुए इन्हें ‘वैदर्भी ”गौडी’, एवं ‘पांचाली’ कहा है।
आचार्य विश्वनाथ ‘रीति’ को काव्य का ‘उपकारक’ मानते हैं।
देव ने रीति को काव्य का द्वार और रस से अभिन्न माना है।