अलंकार संप्रदाय

प्रवर्तक – आचार्य भामह (समय- 6ठी शताब्दी) कश्मीर के निवासी थे

रचना – ‘काव्यालंकार’

पिता का नाम – रक्रिल गोमी था।

‘अलंकार’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘अलं’ तथा ‘कृ’ धातु से हुई है, इसका अर्थ’ है ‘सजावट’।

‘अलंकार’ शब्द में ‘अलं’ और ‘कार’ दो शब्द है। अलं का अर्थ ‘भूषण’ तथा कार अर्थ है करने वाला है।  

‘अलंकरोति इति अलंकारः।’ अथार्त जो अलंकृत करे वह अलंकार है।

“अलंक्रियते अनेन इति अलंकार:” अथार्त जिसके द्वारा शोभा होती है वह अलंकार है।

अलंकार की परिभाषाएँ:

दंडी के अनुसार- “काव्याशोभाकारान धर्मान् अलंकारान प्रचक्षेते”

      अथार्त काव्य की शोभा बढाने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं।

      इन्होंने 36 अलंकारों का विवेचन करते हुए ‘अतिशयोक्ति’ को अलग अलंकार निरुपित किया है।

वामन के अनुसार –काव्यशोभाया: कर्तारो धर्मा गुणा:।”

* यदि काव्य की शोभा कारक धर्म है, तो अलंकार उस शोभा को बढ़ानेवाला है।

* इन्होंने काव्य में गुण को ‘नित्य’ और अलंकार को ‘अनित्य’ स्थान दिया है।

* आचार्य वामन ने सौंदर्य को ही अलंकार कहा है – ‘सौंदर्यमलंकार:’

* इन्होंने सर्वप्रथम अलंकार के दो भेद किये – 1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार – “अलंकार काव्य का अनिवार्य गुण नहीं है। वह अस्थाई धर्म है। काव्य शोभा अलंकार पर निर्भर नहीं है, वे शोभा के करता नहीं होकर शोभा का वृद्धि करते हैं। काव्य का सौंदर्य रस है अलंकार का गौरव उसी का उपकार करने में है।

अग्निपुराणकार के अनुसार- “अलंकार रहित विधवेव सरस्वती” अथार्त अलंकार के बिना सरस्वती विधवा के सामान है।

‘अग्निपुराणकार’ और ‘भोज’ ने वामन के द्वारा किए गए वर्गीकरण में ‘उभयालंकार’ जोड़कर अलंकारों के तीन भेद माने हैं।  

आचार्य जयदेव के अनुसार – “अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृति।
                        असौ न मन्यते कस्मादनुषणमनलं कृती।।

      जो अलंकार रहित शब्दार्थ को ही काव्य मानता है वह अग्नि को शीतल क्यों नहीं मान लेता है अथार्त जिस तरह अग्नि शीतल नहीं हो सकती वैसे ही अलंकारों के बिना काव्य की रचना नहीं हो सकती है।

आचार्य भामह के अनुसार – “वक्रभिधेय शब्दोक्तिरिष्टा वाचामलंकृति।”

      अथार्त उक्ति वैचित्र्य युक्त शब्द अलंकार है।   

अलंकार को काव्य का आवश्यक आभूषण तत्व मानते हुए कहा है- 

            “न कान्तमपि विभूषणं विभाति वनिता मुखम्।”

      अर्थात् बिना अलंकारों के काव्य उसी प्रकार शोभित नहीं हो सकता जिस प्रकार किसी सुन्दर स्त्री का मुख बिना अलंकारों के शोभा नहीं पाता।

      भामह ने 35 अलंकारों को निर्दिष्ट किया है, जिनमें उपमा, रूपक, श्लेष इत्यादि को प्रधान अलंकार है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण, क्रियाका अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने में सहायक उक्ति को अलंकार कहते हैं।”

डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार – “अलंकारों के प्रयोग से भाषा और भावों की नग्नता दूर होकर उनमें सौंदर्य और सुषमा की सृष्टि होती है।”

सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में – “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं हैं। वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं। भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वस्तुतः काव्य शरीर को सजाने के लिए अलंकार रुपी गहनों का प्रयोग अपेक्षित हैं।”

अलंकार के प्रकार विभिन्न आचार्यों के अनुसार:

* भरतमुनि ने चार (4) प्रकार के अलंकारों की चर्चा की है- उपमा, रूपक, दीपक और यमक।

* भामह ने 48 प्रकार के अलंकारों की चर्चा की है जिसमे दो शब्दालंकार और 36 अर्थालंकार हैं।

* उद्भट ने अलंकारों की कुल संख्या 41 मानी है।

* दंडी ने अलंकारों का 39 भेद मानी है।

* वामन ने अलंकारों की कुल संख्या 32 मानी है।

* कुंतक ने अलंकारों की संख्या 20 मानी है।

* आचार्य भोज ने अलंकारों की संख्या 72 मानी है, जिसमे 24 शब्दालंकार, 24 अर्थालंकार और 24 उभयालंकार है।

* रुद्रत ने अलंकारों का वैज्ञानिक विवेचन करते हुए इन्हें दो भागों में विभाजित किया है शब्दालंकार और अर्थालंकार।

* अग्निपुराण में 16 अलंकारों का उल्लेख है।

* जयदेवकृत ‘चंद्रलोक’ में 100 अलंकारों का वर्णन मिलता है।

* अप्पय दीक्षित कृत ‘कुवलयानंद’ में 123 अलंकारों का वर्णन मिलता है।

* पंडितराज जगन्नाथ कृत ‘रसगंगाधर’ में 161 अलंकारों का उल्लेख मिलता है।

* आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में 8 शब्दालंकार और तथा 62 अर्थालंकार का विवेचन किया है।

विशेष तथ्य:

* राजशेखर ने अलंकार को ‘वेद’ का साँतवा अंग मानकर, उसे वेदर्थ का ‘उपकारक’ कहा है।

* राजशेखर ने ‘उपमा’ को संपूर्ण अलंकारों की ‘जननी’ कहा है।

* ‘विप्सा’ अलंकार का सर्वप्रथम विवेचन रीतिकालीन आचार्य भिखारीदास ने किया है।

* आचार्य केशवदास ने अलंकार को ‘काव्य की आत्मा’ कहा है।

* केशवदास द्वारा रचित ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ काव्यशास्त्रीय पुस्तकें है।

* अलंकार निरूपण में ‘देव’ ने ‘केशव’ को आदर्श माना है।

* भूषण कवि कृत ‘शिवराज भूषण’ अलंकार ग्रन्थ है। इसमे 105 अलंकारों का निरूपण किया गया है जिसमे 4 शब्दालंकार और 99 अर्थालंकार। शेष 2 ‘चित्र’ और ‘संकर’ नामक अलंकार हैं।

* बाबूश्याम सुन्दरदास ने अलंकार को साधन माना है। अलंकार यथार्थ में वर्णन करने की एक शैली है वर्णन का विषय नहीं।

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