जीवन की सच्ची अनुभूति ‘यथार्थ’ है। जब इसका अभिव्यक्तिकरण कलात्मक ढ़ंग से होता है, तब वह यथार्थवाद कहलाता है।
‘यथार्थवाद’ अंग्रेजी के ‘रियलिज्म’ शब्द का हिंदी रूपांतरण है। यह शब्द दो शब्दों ‘यथा’+’अर्थ’ के योग से बना है। जिसका अर्थ है- ‘जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में ग्रहण करना’ यथार्थवाद है।’
‘यथार्थवाद’ की परिभाषाएँ-
हिंदी साहित्यकोश भाग-1- “यथार्थवाद साहित्य की एक विशिष्ट चिंतन-पद्धति है, जिसके अनुसार कलाकार को अपनी कृति में जीवन के यथार्थ रूप का अंकन करना चाहिए।”
डॉ बच्चन के अनुसार- “यथार्थवाद एक दृष्टिकोण भी है, और एक पद्धति भी है, जहाँ तक दृष्टिकोण का संबंध है यह रोमेंटिसिज्म, मिथकवादद और काल्पनिकता के विरुद्ध पड़ता है”।
गंपतिचंद्र गुप्त के अनुसार – यथार्थवाद का शाब्दिक अर्थ है- जो वस्तु जैसी हो, उसे उसी अर्थ में ग्रहण करना। दर्शन, मनोविज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में वह विशेष दृष्टिकोण जो सूक्ष्म की स्थूल को काल्पनिक की अपेक्षा वास्तविक को भविष्य की अपेक्षा वर्तमान को, सुन्दर के स्थान पर कुरूप को, आदर्श के स्थान पर यथार्थ को ग्रहण करता है, वह यथार्थवादी दृष्टिकोण कहलाता है।”
नंददुलारे बाजपेयी के अनुसार – “यथार्थवाद का संबंध प्रत्यक्ष वस्तु जगत से होता है।”
डॉ. शिवदान सिंह चौहान के अनुसार – “महान साहित्य और कला सदा निर्विकल्प रूप से जीवन की वास्तविक्ता को ही प्रतिबिंबित करती है अतः उसकी एक मात्र कसौटी यथार्थवाद है।”
प्रेमचंद के शब्दों में – “यथार्थवादी रचनाकार काल्पनिक लोक में भ्रमण नहीं करता है। बल्कि वह जिस परिवेश में साँस लेता है, वह उसकी धड़कन को महसूस करता है अतः वह उसका चित्रण प्रमाणिकता के आधार पर करता है।”
यथार्थवाद के रूप: यथार्थवाद के दो रूप है- (i) बाह्य यथार्थवाद (ii) भीतरी यथार्थवाद।
(i) बाह्य यथार्थवाद- इसका संबंध बाह्य जगत् से होता है। इसका रूप उस वस्तु जगत् के हू-ब-हू चित्रण करने वाला, सरल, वर्णात्मक एवं विवरणात्मक होता है।
(ii) भीतरी यथार्थवाद- यह मानसिक जगत् पर आधारित होता है। यह जटिल, क्लिष्ट, प्रतीकात्मक, बिंबात्मक एवं संकेतात्मक होता है।
यथार्थवाद से संबंधित पारिभाषिक शब्दावली/ रूप –
आलोचनात्मक यथार्थवाद – इसमें साहित्यकार के आलोचनात्मक दृष्टिकोण का महत्व अधिक होता है। घटक विसंगतियों का निषेधात्मक और व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण एवं प्रेरणादायक जीवन मूल्य आलोचनात्मक यथार्थवाद के तत्व हैं।
समाजवादी यथार्थवाद- इसमें साहित्यकार का समाजवादी दृष्टिकोण अभिव्यक्त होता है साहित्यकार शोषित वर्ग के जीत के लिए अनुकूल वर्ग-संघर्ष पर बल देता है जीवन मूल्यों का साहित्य में चित्रण करता है। निराला की रचनाओं में सामाजिक यथार्थवाद के प्रभावी चित्र देखे जा सकते है।
प्राकृतरूपी यथार्थवाद- इस यथार्थवाद के प्रवर्तक एमिली जोला व डार्विन है। इन्होंने प्राकृतरूपी यथार्थवाद पर बल दिया। इसमें मनुष्य की पशु प्रवृतियों का चित्रण है।
मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद- मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद ‘फ्रायड’ तथा ‘युंग’ के विचारों से प्रभावित है। इसमें चेतन, अवचेतन मन का चित्रण मिलता है।
अतियथार्थवाद – फ्रायड से प्रभावित, प्रकृतवाद की चरम सीमा
यथार्थवाद का जन्म एवं विकस-
* 19 वीं शताब्दी में फ़्रांस में एक आंदोलन के रूप में यथार्थवाद का प्रादुर्भाव हुआ।
* मर्क्यू फ्रांसे ने 1826 ई. में पहली बार यथार्थवाद को अपने निबंध में परिभाषित किया।
* 1855 ई. में फ़्रांस के कूर्वे अपने अपने चित्रों के लिए रियलिज्म शब्द का प्रयोग किया।
* फ्लावेयर द्वारा रचित मादाम बावेरी के उपन्यास को प्रथम उपन्यास माना जाता है।
* ‘कूर्वे’ एवं ‘फ्लावेयर’ यथार्थवाद के प्रवर्तक माने जाते है।
यथार्थवादी साहित्य प्रवृत्तियाँ:
* यथार्थवाद कलाकार का जीवन क्या है का अंतर देता है वह क्या होना चाहिए कि समस्या में नहीं पड़ता।
* यथार्थवादी साहित्य में अतीत और भविष्य की अपेक्षा वर्तमान का चित्रण होता है।
* यथार्थवादी साहित्य में जीवन की विसंगतियों, कटुताओं एवं विषमताओं का चित्रण रहता है।
* यथार्थवादी साहित्य पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होता है।
* यथार्थवादी साहित्य में बौद्धिकता पक्ष कि प्रधानता और भावपक्ष की उपेक्षा रहती है।
* यथार्थवादी साहित्य में परिस्थितियों का मानव पर प्रभाव बताया जाता है।
* यथार्थवादी साहित्य में श्रृंगार, रौद्र एवं वीभत्स रसों की अभिव्यक्ति होती है।
* यथार्थवादी साहित्य में अश्लीलता और श्लीलता दोनों का सामान रूप में चित्रण होता है।
हिंदी साहित्य में यथार्थवाद:
* हिंदी साहित्य में यथार्थ की प्रवृतियाँ सबसे पहले कबीर में मिलती है। कबीर हिंदी के पहले यथार्थवादी कवि थे।
* जयशंकर प्रसाद ने भारतेंदु को यथार्थवाद का ‘जनक’ कहा है।
* हिंदी आलोचना में यथार्थवाद का श्री गणेश प्रेमचंद से होता है।
* प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अवधारणा को जन्म दिया।
* बच्चन सिंह के अनुसार हिंदी में आलोचनात्मक यथार्थवाद और सामाजिक यथार्थवाद का प्रयोग 1950 ई. के आसपास हुआ था।
यथार्थवाद के दोष:
* यथार्थवाद के नाम पर निकृष्ट साहित्य परोसा गया।
* भोग लिप्सा कामासकती का वर्णन अधिक हुआ।
* एकांगिकता (जीवन के बुरे पक्ष का चित्रण हुआ है।)
रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में – “यथार्थवादी कलाकार जीवन के सुन्दर अंश को छोड़कर असुंदर अंश का अंकन करना चाहता है। यह एक प्रकार का पूर्वाग्रह है।”
यथार्थवाद के गुण:
* जीवन के वास्तविकता को बोध होना।
* सामयिक समस्याओं का चित्रण।
* शोषकों के प्रति घृणा और आक्रोश का भाव।
* शोषितों के प्रति करुणा का भाव।
* मानवतावाद।
नामवर सिंह के शब्दों में – “यथार्थवाद का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है इसने सुधारवादी दृष्टिकोण स्थित किया है।”
पाश्चात्य यथार्थवादी साहित्यकार – गानकोर्ट फ्लाबेयर, एमिली जोला, मोयाँसा फ्रायड, युंग, एडलर आदि।
हिंदी के यथार्थवादी साहित्यकार- कबीर प्रेमचंद नागार्जुन निराला आदि
महत्वपूर्ण कथन:
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार- “यथार्थवाद का संबंध प्रत्यक्ष वस्तु जगत से है।”
डॉ. शिवदान सिंह चौहान के अनुसार – “महान साहित्य और कला सदा निर्विकल्प रूप से जीवन की वास्तविकता को ही प्रतिबिंबित करती है। अतः उसकी एकमात्र कसौटी यथार्थवाद है।”
प्रेमचंद के अनुसार – “यथार्थवादी रचनाकार काल्पनिक लोक में भ्रमण नहीं करता, वह जिस परिवेश में साँस लेता है उसकी धड़कन को महसूस करता है अतः उसका चित्रण प्रमाणिकता के आधार पर करता है।”