रामवृक्ष बेनीपुरी : माटी की मूरतें (रेखाचित्र)

1. रचना – माटी की मूरतें (रेखाचित्र)

रचनाकार – रामवृक्ष बेनीपुरी

जन्म – 1902 ई. बेनीपुर, मुजफ्फ़र (बिहार)

निधन – ( 1968 ई.)

> ‘माटी की मूरतें’ 1941 ई. से 1945 ई. के बीच में लिखें गए संस्मरणात्मक रेखाचित्रों का संग्रह है।

> इन सभी संस्मरणात्मक रेखाचित्रों को बेनीपुरी जी ने स्वयं ‘शब्दचित्र’ कहा है।

> मानव को अपनी मट्टी के प्रति जो आसक्ति रहती है उसका उत्कृष्ट और बेजोड़ नमूना ‘माटी की मूरतें. है।

> ‘माटी की मूरतें में लिखित सभी रेखाचित्र बेनीपुरी जी ने हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में रहते हुए लिखें है।

> इन रेखाचित्रों को बेनीपुरी जी ने अपने जीवन के उन चुनिंदा लोगों के विषय में लिखा है जो उनके अत्यंत प्रिय थे।

> हर व्यक्ति के विषय में बताते हुए वे अपने बचपन के दिन को याद करते हैं।

> ‘माटी की मूरतें’ हिंदी कथा साहित्य को एक सच्ची ग्रामीण दृष्टि प्रदान करते हुए उसे भारतीय संस्कृति के विकासशील तत्वों से जोड़ने का प्रयास करती है।

> इसका प्रथम प्रकाशन 1946 ई. में हुआ था। उस समय पुस्तक में 11 रेखाचित्र संकलित थे।

> इसका दूसरा प्रकाशन 1953 ई. में हुआ। इसमें निम्नलिखित 12 रेखाचित्र है।

> ‘रजिया’ रेखा चित्र को दूसरा संस्करण में जोड़ा गया।

> ‘माटी की मूरतें’ हिंदी कथा साहित्य को एक ग्रामीण दृष्टि प्रदान कर उसे भारतीय संस्कृति के विकासशील तत्त्वों से जोड़ने का प्रयास करती है।

12 शब्दचित्रों के नाम इस प्रकार हैं-

      रजिया, बलदेव, सरजू भैया, मंगर, रूप की आजी, देव, बालगोबिंद भगत, भौजी, परमेसर, बैजू मामा, सुभान खां, बुधिया

माटी की भूमिका में लेखक का कथन – “ये मूरतें न तो किसी आसमानी देवता की होती है, न किसी अवतारी देवता की गाँव के ही किसी साधारण व्यक्ति मिट्टी के पुतले ने असाधारण लौकिक कर्म के कारण एक दिन देवत्व प्राप्त कर लिया, देवता में गिना जाने लगा।”

1. रचना – ‘रजिया’ (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

> 1952 ई. में यह ‘नयी धारा’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

> 1953 ई. में यह ‘माटी की मूरतें’ में संकलित हुआ था।

> 1959 ई. में यह पुनः ‘नवनीत’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ।

> रजिया एक निम्नवर्ग की चुड़िहारिन की पुत्री है, जो चूड़ी बेचने के व्यवसाय में निपुणता प्राप्त कर लेती है। इस शब्द चित्र में उसकी सादगी और सरलता का चित्रण है।   

रजिया शब्दचित्र के प्रमुख पात्र:

रजिया चुड़िहारिन (नायिका)

हसन (रजिया का पति)

बेनीपुरी की मौसी

रजिया की पोती

रजिया के तीन पुत्र

2. रचना – बलदेव सिंह

> यह व्यक्ति प्रधान शब्दचित्र है।

> 1946 ई. में यह ‘मधुकर’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

> 1946 ई. ही यह ‘माटी की मूरतें’ में संकलित हुआ था।

> गाँव के एक पहलवान व्यक्ति का मार्मिक चित्रण है। बलदेवसिंह एक पहलवान है।   जिंदादिल, शेरमर्द, इंसाफ का पक्षधर, दीन – दुखियों और पीड़ितों का रक्षक, वचन का पक्का, ताकतवर, बच्चों का सा निरीह और मानव सेवी हैं, जो छलपूर्वक मौत के घाट उतार दिया जाता है।

प्रमुख पात्र:

बलदेव सिंह (प्रधान पात्र)

शब्द चित्रकार बेनीपुरी

बेनीपुरी के मामा जी

विधवा, पुलिस सुपरिटेंडेंट, मोलीवी साहब, बिसनपुर गाँव के दो भाई।

3. रचना – सरजू भैया

रचनाकाल –1942 ई.

      यह व्यक्ति प्रधान शब्दचित्र है। सरजू भैया बेनीपुरी जी का मुँह बोला बड़ा भाई है। वह  जिंदादिल, मिलनसार, हँसोड़ और मजाकिया था। उसके जीवन का मूल मंत्र मानव सेवा था।

      सरजू भैया का संदर्भ में लेखक का कथन: “उनका चरित्र अनुसरणीय ही नहीं वंदनीय और पूजनीय है जब-जब मैं उन्हें देखता हूँ, मेरा ज्ञानी मस्तिष्क अपने आप उनके चरणों में झुक जाता है।”

प्रमुख पात्र:

      सरजू भैया, बेनीपुरी जी, सरजू भैया के पिता, महाजन, बेनीपुरी जी की मौसी, बेनीपुरी जी की पत्नी।

4. रचना – मंगर (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

      मंगर गांव का एक मेहनती हलवाहा है। उसके जैसा मेहनती हलवाहा पुरे गाँव में नहीं है। वह गरीब है लेकिन स्वभाव से ईमानदार है।

प्रमुख पात्र – मंगर (हलवाहा), बेनीपुरी जी, बेनीपुरी जी के चाचा जी।

5 रचना – रूपा की आजी (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

रचनाकाल – (1944 ई.)

      रूपा की आजी को गाँव में लोग डायन समझते हैं। यह अंध विश्वास पूरे गाँव में व्याप्त है। माँ के निधन के बाद रूपा की आजी उसे पालती है। रूपा के विवाह के बाद उसके सास-ससुर की भी निधन हो जाती है। धीरे-धीरे पूरे परिवार की मृत्यु हो जाती है। इस कारण सब लोग उसे डायन समझने लगते है।  

प्रमुख पात्र – रूपा की आजी, बेनीपुरी जी, रूपा, मामी, रवि बाबू।

6. रचना – देव (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

रचनाकाल – 1944 ई.

      कथानक: देव आरंभ में एक साहसी, निर्भीक, सत्यवादी बालक के रूप में चित्रित हुआ है। बाद में यह अपने थाने के क्षेत्र का एक छात्र नेता बन जाता है तथा पुलिस के अत्याचारों का शिकार हो जात है। इसमें देव के माध्यम से मानवीयता एवं पुलिस के अत्याचारों के चित्रण हैं।

मुख्य पात्र: देव, तपेसर भाई, कुनकुन, दरोगा एवं इन्स्पेक्टर।

7. रचना – बालगोबिंद भगत (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

रचनाकाल – 1954 ई.

      कथानक : बालगोबिंद भगत जात के तेली और कबीर पंथी थे। वे कबीर को ‘साहेब’ कहते थे। कबीर के पद गाते थे। बिमारी से उनके देहांत हो गया।

      लेखक का कथन- “न जाने वह कौन सी प्रेरणा थी, जिसने मेरे ब्राह्मण का गर्वोन्नत सर उस तेली के निकट झुका दिया था। जब-जब वह सामने आता है, मैं झुककर उससे राम-राम किये बिना नहीं रहता।”

पात्र: बालगोबिन भगत, बेटा, पतोहू।

8. रचना – भौजी (लेखक की भाभी) यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।

रचनाकाल – 1943 ई.

      कथानक: लेखक ने अपने भौजी (भाभी) के विवाहोपरांत से घर आगमन से लेकर उसकी मृत्यु तक के स्मृतियों के गुण दोषों का चित्रण किया है।

      कथन: “भारतीय परिवार में भौजी का वही स्थान है जो मरुभूमि में ओएसिस का।”

“वह कलम टूट जाए जो निंदा के लिए उठती है।”

पात्र – भौजी, फूफाजी, देवर, संपादक मित्र आदि।

9. रचना – परमेसर (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

रचनाकाल – 1941 ई.

      कथानक: परमेसर के रूप में एक आवारा एवं फिजूल खर्ची व्यक्ति का चित्रण है आवारागर्दी की आग ऐसी जो खुद को जलाती थी किंतु दूसरों को रौशनी एवं गर्मी देती थी परमेसर अतिसार रोग से ग्रसित था।

पात्र: परमेसर, परमेसर की मंडली, परमेसर की पत्नी, चाचा जी, ओझा, श्री राम आदि।

10. रचना – बैजू मामा(यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।

रचनाकाल – 1944 ई.

      बैजूमामा एक अजीब चोर था वह बार-बार चोरी के कारण जेल जाता था। वह तीस वर्षों की सजा भुगत चुका था। लेखक से उसकी मुलाक़ात जेल में ही हुई थी।

पात्र: बैजू मामा, जेलर, जज साहब, मेट, जमादार।

11. रचना – सुभान खाँ (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है।)

रचनाकाल – 1942 ई.

      सुभान खाँ राजमिस्त्री (कारीगर) थे। वे इमानदारी, विनम्रता, वात्सल्य आदि गुणों मानवोचित गुणों से युक्त थे। उनमे हिन्दू-मुस्लिम एकता की चाहत थी।

कथन: मैं मुसलमान हूँ, कभी अल्लाह को नहीं भुला हूँ। मैं मुसलमान की हैसियत से कहता हूँ, मैं गाय की कुर्बानी न होने दूँगा, न होने दूँगा।” सुभान खाँ

पात्र: सुभान खाँ (नायक), यजींद्र, हजरत हुसैन, बेनीपुरी के मामा जी आदि।

12. रचना – बुधिया (यह संस्मरणात्मक रेखाचित्र है)

रचनाकाल – 1943 ई.

      7-8 वर्षीय बकरी चराने वाली बुधिया के प्रारंभिक जीवन से लेकर मातृत्व रूप तक का मार्मिक चित्रण है। बचपन की बुधिया चंचल चुलबुली हैं, तो जवानी में हजारों जवानों की दिल की धड़कन।

      लेखक बुधिया के बारे में कहते है- “वृन्दावन में एक गोपाल और हजार गोपियाँ थी, यहाँ एक गोपी और हजार गोपाल हैं। अधेड़ उम्र में फटे हुए कपड़े, चोली का नाम नहीं, बिखरे बाल, चेहरे पर झुरियाँ, सूखा हुआ चेहरा दिखाई देता है। फिर भी अपने बच्चों पर मातृत्व को लेखक वंदन करते हैं।”

पात्र: बुधिया, जगदीस, बुधिया का पति, बुधिया के 4 बच्चे आदि।

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